महानगर की रेलमपेल । चारों ओर कंक्रीट का जंगल , कहीं कोई जान पहचान नहीं। जो जानते हैं , वे भी अपने आप में इतने अस्तव्यस्त कि शायद ही कभी दुआ सलाम होती हो ।
नवीन को इस शहर में आए दस साल होने को हैं । यहाँ पढ़ने आया था , नौकरी भी यहीं ढूँढ ली और हमेशा हमेशा के लिए यहीं का हो गया ।
इस बीच शादी हो गयी , दो प्यारे से बच्चे हो गये , नीता भी एक दफ्तर में काम करने लगी । सब कुछ ठीक चल रहा था कि शहर में बच्चा चोरी और बलात्कार की घटनाएँ अचानक बढ गयीं । नवीन और नीता को अब दिन में ऑफिस में चैन न आता , न रात में नींद , हरपल एक अदृश्य भय घेरे रहता । नौकरानी पुरानी थी फिर भी संशय नागफनी की तरह जब तब सिर उठा लेता ।
सीसीटीवी की फुटेज कई कई बार खँगाली जाती पर डर पीछा ही नहीं छोड़ रहा था ।
आज भी इन्हीं संशयों से जूझते हुए वह घर पहुँचा तो भीतर से किलकारियों और कहकहों की आवाजें आ रही थी । ऐसा तो कभी नहीं होता । जब वे घर लौटते हैं ,बच्चे या तो कम्प्यूटर पर कार्टून देख रहे होते हैं या कोई गेम खेल रहे होते हैं । एकदम शमशान जैसी शांति पसरी होती है, अजीब सी मनहूसियत वाली शांति । आया बच्चों को टीवी या कम्प्यूटर में व्यस्त कर खुद कहीं और व्यस्त होती है ,पर आज तो उलटी गंगा बह रही थी। उसने अंदर प्रवेश किया । बच्चे दादा से मस्ती में लीन उनके कंधों पर सवार थे ।
“प्रणाम पापा, आप कब आए?”
“दोपहर में।”
“तू तो आता नहीं , मैंने सोचा मैं ही दस पंद्रह दिन तेरे पास लगा आऊँ।”
उसे लगा , तेज धूप में चलते- चलते अचानक एक घने बरगद की छाँव तले आ गया है। आज रात वह निश्चिंत होकर सो सकेगा ।
“पापा, जब तक आपका मन करे, आप रहिए।”
बेटा ,मैं सोमवार चला जाऊँगा ।
दोनों बच्चे टाँगों से लिपट गए -“हम आपको जाने नहीं देंगे।”
“मैं तो दरवाजा बंद कर लूँगा” यह आहिल था ।
पापा मंद- मंद मुस्कुरा रहे थे ।
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