साहित्यिक रुचि वाले पाठक स्वयं लेखक या समीक्षक भी हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि वे लेखन की बजाय केवल पढ़ने में ही आनंद लेते हों। अधिकतर बार व्यक्ति वही साहित्य पढ़ता है जिसमें उसकी रुचि होती है। मानव मन की रुचि, उसके आस-पास के वातावरण और उसकी जिज्ञासा से सीधी आनुपातिक है।
मैं भी जब किसी लघुकथा को पढ़ता हूँ, तो सबसे पहले एक सामान्य पाठक की तरह ही पढ़ता हूँ। एक लेखक, समीक्षक या शिक्षक की तरह पढ़ने पर मैं आज तक साहित्यिक रचनाओं के साथ वह
नजदीकी नहीं ला पाया, जो एक पाठक बनकर ला पाता हूँ। लघुकथाओं से मेरा सम्बन्ध पठन ने ही करवाया था। मेरे अनुसार, जिस तरह यदि हमारे बैंक में बैलेंस है, तो ही हमारे द्वारा दिया गया चेक क्लियर हो सकता है, उसी प्रकार सामान्य पाठक सरीखी रुचि का बैलेंस हममें है, तभी हम रचनाओं को हृदयंगम कर पाने के चेक को क्लियर करवा सकते हैं। पढ़ते समय एक लेखक किसी रचना की अपनी लेखन शैली से तुलना कर सकता है, कोई समीक्षक रचना के मानकों और शास्त्र में ही उलझ सकता है लेकिन किसी रचना में स्वयं को तलाश करना हो, समाज को भी ढूँढना हो या भावनाओं का अनुभव करना हो तो मैं यह मानता हूँ कि सामान्य पाठक बनना ही पड़ेगा।
परिंदे पत्रिका के फरवरी-मार्च 2019 के लघुकथा केन्द्रित अंक में वरिष्ठ लघुकथाकार बलराम ने अपने साक्षात्कार में एक प्रश्न के उत्तर में कहा था – “समाज के सब लोग साहित्य नहीं पढ़ते।” उनकी इस बात पर मुझे एक घटना याद आई थी। उदयपुर के एक विश्वविद्यालय राजस्थान विद्यापीठ के संस्थापक मनीषी पंडित जनार्दनराय नागर स्वयं एक ख्यातनाम साहित्यकार थे। एक बार विश्वविद्यालय के लेखा शाखा के एक क्लर्क पंडित नागर के घर बैठे थे। वहीं पंडित नागर ने उन्हें स्नेहवश अपनी एक कविता पढ़ाई और पूछा, “कैसी है? कोई कमी तो नहीं।” यूँ तो वे क्लर्क विद्वान थे; लेकिन कभी साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे, तो पढ़कर उन्होंने अपना मत रखा, “कविता तो अच्छी है; लेकिन भाषा थोड़ी क्लिष्ट है – आम आदमी को समझ आने में मुश्किल होगी।” यह सुनते ही पंडित नागर एक बार तो तिलमिला उठे, लेकिन अगले चार-पाँच क्षणों में ही उन्होंने स्वयं को संयत कर लिया और बोले, “यह साहित्य है प्रिय पुत्र! कोई सामान्य उपन्यास नहीं, इसे ना तो सब लोग पढ़ते हैं और ना ही मैं सभी को पढ़ने देता हूँ।”
पंडित नागर का यह वृत्तात और बलराम जी द्वारा कही हुई बात दोनों में एक सह-सम्बन्ध है तथा इनसे दो विचार उत्पन्न हो सकते हैं, एक तो यह कि जिस साहित्य में समाज का हित हो वह कई वर्षों से इस तरह से सृजित हो रही है, जिनके पाठक केवल प्रबुद्ध हैं, सर्व समाज नहीं। हालाँकि, इसके भी दो विरोधी मत मैं स्वयं ही देना चाहूँगा, (अ) यह सृजन किसी समय विशेष में पठन के लिए उचित हो सकता है तथा (ब) प्रबुद्ध पाठक साहित्य के मर्म को समझ कर समाज में प्रेषित करते हैं, अतः ऐसा साहित्य सृजन उचित है। बहरहाल, दूसरा महत्त्वपूर्ण विचार वह है, जिसे पंडित नागर ने इशारों ही इशारों में कहा कि आम पाठक से जुड़ने के लिए एक अलग किस्म का साहित्य लिखना पड़ता है। लेकिन वैसा अलग किस्म का साहित्य समाज को कैसी दिशा दे रहा है, इससे हम अनभिज्ञ नहीं है। हालाँकि, मैं दृढ़ता से कह सकता हूँ कि इन बातों का समाधान है – लघुकथा। लघुता इसकी सबसे बड़ी शक्ति है और प्रबुद्ध से लेकर आम पाठकों को तक पहुँच पाने वाला लेखन इसकी समृद्धि। अतः लघुकथा सभी को पसंद आना स्वाभाविक है।
बहरहाल, जैसा मैंने ऊपर इंगित किया है कि आधुनिक लघुकथाओं से मेरा सम्बन्ध पठन ने ही करवाया था, परिचय तो बाद में हुआ। जिस आधुनिक लघुकथा ने सबसे पहले मुझ पर अपनी छाप छोड़ी, उसका जिक्र करना चाहूँगा और मेरे अनुसार तो कोई लघुकथाकार ऐसा नहीं होगा, जिसने यह रचना नहीं पढ़ी हो। एक सामान्य पाठक को ऐसा कथ्य चाहिए, जो किसी न किसी तरह उसके हृदय या मस्तिष्क तक पहुंचे, प्रबुद्ध साहित्यिक पाठक को साहित्यक दृष्टि से उत्तम रचना और लघुकथाकार को उनके लघुकथा लेखन को समृद्ध कर सकने वाली रचना। इन तीनों प्रकार के पाठकों को संतुष्ट करती यह रचना है – रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ कृत ऊँचाई। यह लघुकथा मुझमें लघुकथा की थोड़ी-बहुत भी समझ आने से काफी पहले ही मेरी पसंदीदा बन गई थी। महाभारत के यक्ष प्रश्न प्रसंग में युधिष्ठिर ने यक्ष को एक प्रश्न के उत्तर में बताया था कि, ‘पिता चोच्चतरं च खात्।’ अर्थात पिता आकाश से भी ऊँचा है। शायद इसी बात के आधुनिकस्वरुप पर आधारित यह लघुकथा पिता-पुत्र के सम्बन्धों को सुदृढ़ करने में अपना योगदान तो देती ही है, साथ ही लघुकथा कलश जुलाई-दिसम्बर 2019 ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ के संपादकीय में योगराज प्रभाकर जी का यह कथन कि वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लम्बा सफर है, को भी चरितार्थ करती है। यह लघुकथा उस पारिवारिक अवधारणा को भी सशक्त करती है जो एक ही परिवार में रहकर एक-दूसरे को नीचे नहीं देखने देती। एकल परिवार की अवधारणा के पक्षधर सामयिक समाज में यह रचना आदर्श तो दर्शाती ही है, समाज की बर्बर सोच को न्यूनतम करने का प्रयास भी करती है। इसमें सत्य वस्तुस्थिति दर्शाते हुए चरम परिणति पर पहुँचाना सिद्धहस्तता का अच्छा उदाहरण है। लघुकथा का यह संवाद “अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?” स्वतः ही परिस्थिति का वर्णन कर रहा है और अंत से कुछ पहले का में यह संवाद -“ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”-महाभारत में कही गई पिता की ऊँचाई को दर्शाने में समर्थ है।
दूसरी लघुकथा जिसका जिक्र मैं करना चाहूँगा ,वह प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक-कवि कार्ल सैंडबर्ग की एक लघुकथा ‘अधिकार’ है। यह लघुकथा सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक होकर सार्वभौमिक और सार्वकालिक रचना है। कालजयी लघुकथा किसे कहते हैं, उसका एक बेहतरीन उदाहरण भी है। किसी भी काल से लेकर आज तक का विचार कर लीजिए, मानव ज़मीन के लिए लड़ता आ रहा है। सवांद शैली की इस लघुकथा की एक विशेषता यह भी है कि यह ‘ऊँचाई’ लघुकथा से भिन्न एक विचार रखती है। जहाँ ‘ऊँचाई’ में परिवार और पिता द्वारा पुत्र को देने की बात कही गई है वहीं यह लघुकथा यह कहती है कि पिता की सम्पत्ति पर अधिकार जमाने से पूर्व स्वयं को सशक्त करो। वस्तुतः अधिकार होता क्या है? किसी समय में राजा पिता की संतान भी राजा ही बनती थी, समय के साथ आज तक इस पंक्ति में केवल ‘राजा’ के स्थान पर संज्ञा ही बदली है, बाकी तो वैसा का वैसा ही है। तब कोई अधिक शक्तिशाली व्यक्ति संतान से उसके पिता की सम्पत्ति जो किसी अन्य से शक्ति के बल पर ही ली गई हो, यदि पाने का स्वप्न देखता है तो यह सत्य ही है। वर्षों से यह सत्य किसी न किसी रूप में हमारे समक्ष आ जाता है। ‘जिसकी लाठी उसी की भैंस’ वाली कहावत इस पर भी आधारित है। यह लघुकथा शोषक की बात भी करती है और शोषित की भी। लेकिन यह भी विचारणीय है कि शोषित है कौन? क्या कोई सामाजिक मनुष्य? यहाँ युवाल नोवा हरारी की चर्चित पुस्तक सेपियन्स का जिक्र आ सकता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि मनुष्य जाति ने धरती पर अधिकार ही नहीं किया, उन्होंने अन्य जातियों को नष्ट भी किया और यह सच भी है कृषि के आविष्कार से पहले भोजन के लिए शिकार होते थे, तो कृषि के आविष्कार के बाद ज़मीन के लिए। अर्थात् लड़ना तो हमें है ही। यही बात इस लघुकथा में भी है। लड़ कर ज़मीन ले ली जाती थी/है और हार कर दे दी जाती।`
सच तो यह भी है कि हम अपनी ही मूल प्रकृति के विरोधी तंत्र को अपनाए हुए हैं। हमारा अपना विकास स्वाभाविक नहीं हुआ। हम अपनी व अन्य, चाहे वह अन्य प्रजाति हो या धरती, की प्रकृति के विरुद्ध जाकर विकसित हुए हैं। लड़ कर जीतना हमारी स्वाभाविकता नहीं है। हाँ! लड़ाई से लड़ाई ही उत्पन्न होती है – यह ज़रूर प्राकृतिक स्वाभाविकता है। ‘अधिकार’ लघुकथा में इसी बात को दर्शाया गया है।
एडगर एलन पो ने अपने निबंध ‘द फिलॉसफी ऑफ़ कम्पोज़’ में लिखा है कि लघु रचनाओं में ‘प्रभाव की एकता’ होनी चाहिए। मेरे अनुसार यह बात लघुकथा के एकांगी स्वरूप को भी कह रही है। यह दोनों रचनाएँ भी अपने कथ्य के अनुसार एक ही प्रकार के प्रभाव को दर्शाने में भी सफल हैं। एक लघुकथा आज की पारिवारिक मानवीयता की पक्षधर है, तो दूसरी मानवीयता के विकास में अस्वाभाविकता के विरोध की। दोनों ही लघुकथाएँ अपने पाठकों को प्रभावित करने में सक्षम हैं और यही क्षमता इन दोनों रचनाओं को पठनीय व संग्रहणीय बना रही है।
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- ऊँचाई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु‘
पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” – कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।
वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”
“नहीं तो” – मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।
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- अधिकार / कार्ल सैंडबर्ग
“इस जगह से दूर हट!”
“क्यों?”
“क्योंकि यह जगह मेरी है।”
“तूने कहां से ली थी?”
“अपने बाप से।”
“तो उसने किसके पास से ली थी?”
“वह उसके लिए लड़ा था।”
“तो फिर मैं भी इसके लिए लडूँगा।”
-0-– डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी