‘हिंदी-लघुकथा-जगत् में अनेक रचनाकारों ने अपनी क़लम चलाई है और इस विधा की विकास-यात्रा में अपना-अपना नाम दर्ज करवाया है। आधुनिक हिंदी-लघुकथा के लेखकों में अशोक लव भी पांक्तेय हैं। लघुकथा ही एक मात्र ऐसी विधा है, जो लघुता में भी समग्रता का बोध करवाती है और हिंदी-साहित्य की अन्य गद्य विधाओं में अपना अलग अस्तित्त्व रखती है। हर रचनाकार की अपनी लेखन शैली होती है जिससे उसकी पहचान बन जाती है, और वह अपने उसी लेखन-शैली से जाना-पहचाना जाता है। ठीक इसी तरह से अशोक लव जी की अपनी एक विशेष शैली है जो उनको सब के मध्य अपना एक विशेष स्थान प्रदान करती है।
विष्णु प्रभाकर जी के अनुसार ‘लघुकथा अपने आपमें एक स्वतंत्र, सशक्त विधा है, ‘सतसैया के दोहे…देखने में छोटे लगे घाव करे गंभीर’ वाली बात नहीं है इसकी शक्ति के पीछे सामाजिक परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया है। वह अन्य विधाओ की तरह जीवन के यथार्थ की अंकित करती है और जीवन की आलोचना भी करती है, लघुकथा की विशेषता चौंकाना नहीं है, न मात्र स्तब्ध करना है। वह तो सूत्र रूप में विराट जीवन की व्याख्या करती है। उसकी न कोई अपनी भाषा होती है, न भावुकता, न ऊहापोह, न आसक्ति, पर अर्थ वहन में अपूर्व होती है।
अशोक लव जी की लघुकथाओं को पढ़ते हुए यह पाया कि आपकी लघुकथाओं में सहजता, विषयानुरूप पात्रों का चयन, सहज और स्वाभाविक भाषा-शैली एवं प्रतिपादन दृष्टिगोचर होता है। आपकी लघुकथाओं में चौंक से अधिक समाज का कटु-सत्य उजागर होता है जो बिना लाग-लपेट के आपने अपनी लघुकथाओं में बहुत ही करीने से चित्रांकित किया है।
‘सलाम दिल्ली’ अशोक लव जी के इस लघुकथा संग्रह को पुनः प्रकाश में लाने का श्रेय अपने को ग़ज़लगो मानने वाले योगराज प्रभाकर जी को जाता है जो लघुकथा के क्षेत्र में समर्पित होकर इस विधा की विकास-यात्रा में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं और इस तरह के संग्रह को पुनः प्रकाशित करवाकर अपना दायित्त्व को निभाकर लघुकथा विधा के प्रति आपकी निष्ठा को सिद्ध करते नज़र आते हैं। हिंदी-लघुकथा जगत् आपके इस कार्य हेतु सदैव ऋणी रहेगा कि अहम पुस्तकों का पुनः प्रकाशन करवाकर आप नई-पीढ़ी को उनसे जोड़ रहे हैं। इस हेतु लघुकथा जगत् आपको हमेंशा याद रखेगा।
भगवती प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार ‘ज़िंदगी की विसंगतियों को उजागर करती हुई लघुकथा एक न्यूट्रॉन बम है, जो विस्फोट होने ही एकाएक अंतर्मन को आन्तोलित कर देती है।’
अशोक लव जी ने भी अपने इस संग्रह में समाज के विभिन्न विसंगतियों को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाया है और प्रत्येक लघुकथा को बहुत ही गंभीरता से प्रत्येक विसंगति पर बहुत ही सहज और स्वाभाविक लेखन कर अपने लेखन कौशल को उजागर किया है।
इस लघुकथा संग्रह को पढ़ते हुए इसमें प्रकाशित कुल ६४ लघुकथाओं को अपने विषयानुसार इस तरह से विभाजन किया है-
१.परिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित लघुकथाएँ: –
अ).बुज़ुर्ग विमर्श: अपना घर, मृत्यु की आहट, इत्यादि.
ब). भाई-बहन: अपने-अपने सुख, इत्यादि.
स). पति-पत्नी: अविश्वास, दरार, बलिदान, माँजी, (लुटेरे, षड्यंत्र), इत्यादि.
२. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ
अ).शिक्षा विभाग:- उज्ज्वल भविष्य,कफंचोर, इत्यादि.
ब).कथनी करनी में अंतर- उपदेश, इत्यादि.
स).सरकारी विभाग:- एक हरिश्चंद्र और, गालियों की सार्थकता, चमेली की चाय, मृगतृष्णा, इत्यादि.
ड).कार्यालयीन भ्रष्टाचार- एक ही थैली के चट्टे-बट्टे, नई चेतना, नया साक्षात्कार, इत्यादि.
ई). राजनीति भ्रष्टाचार: जन-सेवा, प्रतिशोध, इत्यादि.
३.सामाजिक सरोकार पर आधारित लघुकथाएँ- कृष्ण की वापसी, घंटियाँ, ठहाके, डरपोक, नए रास्ते, निखट्टू, पंडित की कथा, परिवर्तन, पहाड़ और ज़िंदगी, पार्टी,प्यार और इंतज़ार, बौने बनते हुए, मछुआरे का जाल, मूल्यों के लिए, विवशताएँ, व्यापार, शालीनता की प्रतिमा, सलाम दिल्ली, हार या जीत, इत्यादि.
४.बालमन पर आधारित लघुकथाएँ : छोटा भाई, नानी का घर, बहेसें जारी हैं, बाप, सामनेवाला कमरा, इत्यादि.
५.मानवीय शोषण पर आधारित लघुकथाएँ: चेहरों के भीतर, दलाल, दुम, धंधा, नई दुकान, पादरी की बेटी,(पारिवारिक भी चेक करना), राजा साहब की बख़्शीश, रामौतार की गाय, रिसते घावों का दर्द, इत्यादि.
६.अन्य विषयक लघुकथाएँ:
कर्फ़्यू , आग, प्रेतों की चिंता, कफ़नचोर, मोड़, प्रतीकात्मक:-वृक्ष ऊँचे रहेंगे, स्वामी कमलानंद, हिसाब-किताब.
इस लघुकथा संग्रह को पढ़ते हुए, इन लघुकथाओं को जितना मैं समझ पाई हूँ उसी अनुसार अपने विचारों को रखने का विनम्र प्रयास कर रही हूँ। अब इस प्रयास में इस लेख को लिखने वाली कहाँ तक सफल हुई है, इसका निर्णय यह पाठक-गण एवं सुधीजनों तय कर सकेंगे।
१.परिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित लघुकथाएँ: –
अ).बुज़ुर्ग विमर्श: ‘अपना घर’:-परिवार में बुज़ुर्गों का एक अहम स्थान व भूमिका होती है। वर्तमान समय में घर के बड़े-बूढ़ों के प्रति उदासीनता का व्यवहार समाज में बदलती सोच एवं संवेदनहीनता को दर्शाती है जो चिंताजनक एवं विचाराधीन विमर्श का मुद्दा है।
इस लघुकथा में कथानायिका शकुंतला एक ऐसी बहू है जिसका हाल ही में विवाह हुआ है और जिसकी डोली विदा हुई है, इसके साथ ही रिश्तेदार भी विदा होने लगे हैं। घर में आते ही वह अपने ससुर को घूरती हुई जाती है। और अपने पति से अपने ससुर के प्रति कड़वाहट उगलते हुए कहती है, “मुझे नहीं लगता पिताजी वापस आश्रम जाएँगे। इस बार अपना बक्सा भी साथ उठा लाए हैं। तुम उन्हें साफ़-साफ़ कह देना। मुझसे उनकी सेवा नहीं होती। आश्रम में सारे आराम हैं। यहाँ बार-बार कौन बाज़ू पकड़-पकड़कर उन्हें पेशाब कराने ले जाएगा? उनकी खाँसी और बलगम थूकने की आवाज़ों से मुझे तो रात-रातभर नींद नहीं आती। मेरा अपना ब्लड-प्रेशर हाई हो जाता है। तुम कल उनको आश्रम छोड़ आना।” ७३ शब्दों के इस लंबे-से संवाद में बहू का अपने ससुर के प्रति के कठोर एवं संवेदनहीन विचारों का चित्रांकन हुआ है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बहू किसी भी हाल में अपने ससुर जी की सेवा नहीं करना चाहती है। यह संवाद अधिक लंबा हो गया है जो थोड़ा खटक तो रहा है परंतु लेखक शायद यह दर्शाना चाह रहे हैं कि संवेदनहीन व्यक्ति किसी दूसरे की भावनाओं को समझना ही नहीं चाहता और अपने वर्चस्व को सिद्ध करने हेतु किसी भी हद तक जाने से बाज नहीं आता। ऐसा ही कुछ कथानायिका शकुंतला ने किया है।
इस लघुकथा का विषयवस्तु एक ऐसे परिवार का चित्रांकन है जिसमें एक नव-विवाहिता अपने ससुर को किसी भी हालत में घर में रखना नहीं चाहती है और वह किसी भी हाल में उनसे मुक्ति चाहती है और चाहती है कि उसका पति उनको पुनः आश्रम में छोड़ आए। ससुर बाबू रामदयाल बहू की बातों को सुन लेते हैं। और बहू के तेज़ धार-से शब्द उनके हृदय को चीरते चले जाते हैं। उनके फेफड़ों में सोई खाँसी जाग जाती है। वह उसे रोके रखने का बहुत प्रयास करते हैं परंतु छाती पर जमी बलगम खड़खड़ाने लगती है। दम फूल जाने से वे हाँफने लगते हैं।खाँसी को रोक नहीं पाते और उनका बाँध टूट जाता है।
किवाड़ खोलकर बेटा बाहर आ जाता है और पिता की सेवा भी करता है। अपने बेटे के स्पर्श को पाकर बाबू रामदयाल की ऑंखें भर आती है और रुँधे गले से कहते है, “श्रीकांत! सवेरे ज़रा जल्दी उठा देना। तेरे साथ ही तैयार हो जाऊँगा। दफ़्तर जाते समय रास्ते में आश्रम छोड़ जाना।
एक तरफ़ जब युवा-पीढ़ी अपने बड़ों का सम्मान नहीं करती और उनके प्रति संवेदनहीन रहती हैं वहीं दूसरी और बुज़ुर्ग अपने बच्चों को सुखी देखना चाहते हैं और अपनी असमर्थता के बावजूद भी बच्चों पर भार नहीं डालना चाहते फिर भले ही वह परेशान होते रहते हैं या उनके बच्चों के व्यवहार से आहत् हुए हों।
इस लघुकथा का अंत दुखद एवं नकारात्मक है जिसमें कथानायिका के ससुर बाबू रामदयाल गहरी नींद में समा जाते हैं। इस नकारात्मक अंत के बावजूद लेखक ने समाज के जिस पहलू को उजागर करने का उद्देश्य बनाया है कि बुज़ुर्गों को आश्रम में रख आना किसी भी समस्या का हल नहीं है, एवं ऐसा करने से घर में सुख-शांति आ जाए ज़रूरी नहीं। यह एक ऐसी समस्या है जिसपर समाज एवं उसमें रह रहे युवा-पीढ़ी के साथ सभी को विचार करना होगा। इस उद्देश्य को पूर्ण करने में लेखक सफल हुए हैं। यह लघुकथा सामान्य होते हुए भी हृदय में संवेदना जगाने में सफल होती है।
यह एक अलग कथानक लिए हुए एक अच्छी लघुकथा बन पड़ी है जिसमें राजधानी के पश्चिमी क्षेत्र धमाकों से गूँज उठता है। रसोई-गैस के सिलेंडर पटाख़ों के समान फट-फटकर आसमान में उड़ने लगते हैं। उनके टुकड़े साथ लगे गली-मोहल्ले में गिरने लगते हैं। पूरे क्षेत्र में कोहराम मच जाता है। लोग छत पर चढ़कर दूर लगी आग को देखने लगते हैं। बात ही बात में ख़बर फ़ैल जाती है कि विशाल टैंकों में भरी रसोई-गैस को भी आग लग गई है। दस-बारह किलोमीटर तक सब स्वाहा हो जाएगा।
मौत का ऐसा तमाशा देख लोग घर-बार छोड़-छोड़कर भागने में लगे हुए हैं। स्त्रियों ने धन-गहने सँभाल लिए हैं और सभी जल्दी-से-जल्दी मौत के दायरे से बाहर निकल जाना चाहते हैं।
कथानायक नरेंद्र जो अपने मित्र के घर राजौरी गार्डन गया हुआ था, आग लगने के समाचार को सुनकर वह अपनी मोटरसाइकिल को दौड़ाता है और जल्दी-जल्दी पत्नी और दोनों बच्चों को पीछे बिठाकर वहाँ से जाने को होता है। पीछे उसकी वृद्ध माँ अकेली रह जाती है जो रोती-चिल्लाती है, “बेटे! मुझे भी साथ ले चल। यहाँ ज़िंदा जलने के लिए मत छोड़ जा।” माँ जो वयोवृद्ध है, अपने बेटे के इस बेरुख़ी से बेमौत मर जाती है जब वह अपने बेटे को उसके प्रति उपेक्षा करते देखती है परंतु विवश होकर होनी को स्वीकार करने हेतु मजबूर होती प्रत्यक्ष होती है। वह अपने अतीत में खो जाती है जिसमें वह अपने बेटे को किन-किन कष्टों को सहकर बड़ा करती है का चित्रांकन हुआ है जो बहुत ही प्रभावशाली हुआ है।
इस कथा का अंत कुछ हद तक सकारात्मक तो है, कि आग पर दमकलों ने नियंत्रण पा लिया है। घर में पीछे रह गई माँ तटस्थ-भाव से जीवन को लौट आते महसूस करती है। तभी वह अपने बेटे नरेंद्र को अपने पत्नी और बच्चों के साथ घर में प्रवेश होते देख लेती है। वह संतुष्ट हो जाती है और उसकी आँखों से दो बूँद अश्रु निकलकर लुढ़क जाते हैं और वह उठकर अपनी कोठरी की ओर बढ़ जाती है। कहीं-न-कहीं वृद्धा के मन में अपने प्रति उपेक्षा होती देख वह दुखी भी होती है और अपनी विवशता पर भी वह विचलित हो जाती है। परंतु अपने बेटे को वापस आता देख उसका विश्वास पुनः जाग जाता है और वह अपने कमरे में चली जाती है। यह एक उत्तम श्रेणी की लघुकथा है। एक सुंदर और सार्थक संदेश को दर्शाती जिसमें वृद्ध माँ को अपना बेटा पुनः मिल जाता है और उसका विश्वास जीत जाता है। इस लघुकथा का प्रतिपादन बहुत ही सुंदर ढंग से किया गया है। इस लघुकथा का शीर्षक सटीक और लघुकथा के अनुरूप है।
ब). भाई-बहन के रिश्तों को दर्शाती लघुकथा : ‘अपने-अपने सुख’:- रक्त के रिश्तों में भी जब संवेदनाओं का हनन होता है तब हृदय आहत् होता है। इसी उद्देश्य को उजागर करती अशोक लव जी के इस लघुकथा में कथानायिका शकुंतला अपने बेटी की शादी की तैयारियों में व्यस्त है, इस बीच उसका छोटा भाई गिरीश आता है। परंतु शकुंतला उसपर विशेष ध्यान नहीं देती। इसपर जब वह अपने बड़े भाई राकेश को हार्ट-अटैक हो गया है की सूचना देता है तब शकुंतला अपने भाइयों के प्रति बेरुख़ी दिखाती हुए कहती है, “मेरे घर में जब भी कोई शुभ काम होता है, कोई-न-कोई रिश्तेदार बीमार पड़ जाता है। इन भाइयों ने आज तक मेरी कोई मदद नहीं की। अब बेटी की शादी करने जा रही हूँ तब इस राकेश ने मुसीबत खड़ी कर दी है। भगवान ने करे उसे कुछ हो जाए! मेरी बेटी की शादी ठीक-ठाक निपट जाए।” यह लघुकथा सुंदर है और इसका उद्देश्य स्पष्ट तरीक़े से प्रत्यक्ष हो रहा है।
स). पति-पत्नी के रिश्ते को दर्शाती लघुकथाएँ: ‘अविश्वास’ :- पति-पत्नी का रिश्ता विश्वास पर टिका होता है। अगर विश्वास टूट जाए तो रिश्ते में न सिर्फ़ दरार आ जाती है अपितु गाँठ बन जाती है और रिश्ते में कड़वाहट आ जाती है। इसी पृष्ठभूमि को आधार बनाकर अशोक लव जी की यह कथा ‘अविश्वास’ है जिसमें कथानायिका किसी वजह से अस्पताल पहुँच जाती है और उसको तीन अज्ञान लोग वहाँ पहुँचाते हैं। इसपर कथानायक रमेश रातभर सो नहीं पाता और वह उन अज्ञान व्यक्तियों के विषय में सोचता है। एक आशंका उसके हृदय को कचौटती है कि कहीं कुछ ऐसा उसकी पत्नी के साथ हुआ है जिसको वह छिपा रही है। वह पत्नी से तरह-तरह से पूछने का प्रयास करता है एवं विश्वास दिलाने का प्रयत्न भी करता है कि वह उस तरह का इनसान नहीं और वह उसका पति होने के कारण उसपर विश्वास करता है परंतु वह यह बता दे कि वे लोग कौन थे और इस बीच कुछ अनचाहा तो नहीं हुआ। पत्नी इस बात से इनकार कर देती है और कहती है जब ऐसा कुछ हुआ ही नहीं तो क्या बताऊँ।
इस लघुकथा का अंतिम वाक्य:- ‘रातभर पति-पत्नी के मध्य अविश्वास तैरता रहा था।’ इस पूरे कथानक के मर्म तक पहुँचने में सफल हो रहा है। यह एक बेहतरीन लघुकथा है जो बहुत ही स्वाभाविक और सहज है और पुरुषप्रधान समाज का सच है। जो एक स्त्री को हरदम शक़ के घेरे में रखना अपना अधिकार समझता है वहीं उसका अहम यह भी स्वीकार करने को इनकार करता है कि वह कुछ ग़लत कर रहा है। इस लघुकथा में पुरुष के मनोविज्ञान को करीने से दर्शाया गया है जो सराहनीय है।
‘दरार’ :- पति-पत्नी के रिश्ते में जब कड़वाहट आ जाती है तब दोनों में मध्य सामंजस्य पुनः स्थापित होने के लिए समय लगता है और अगर पति के घर में पत्नी पर शारीरिक एवं मानसिक अत्याचार होता आ रहा हो और ऐसे में अगर पत्नी को मायके का सहारा लेना पड़ जाए और समाज के नियम और उनके तानों से पुनः पति के घर आने को बाध्य हो जाए तब भी पत्नी स-शरीर घर पर आ तो जाएगी परंतु उसका मन हर दम भय और आशंकाओं से घिरा रहेगा। और ऐसे समय पर अगर पति उसके निकट आने का प्रयास भी करता है तब भी वह उसको पहले की तरह विश्वास नहीं कर पाती है और उसका डर और उसकी इच्छाशक्ति से पति को भी हिम्मत नहीं हो पाती और वह स्वयं को अजनबी सा महसूस करने लगता है। इसी पृष्ठभूमि पर अशोक लव की यह ‘दरार’ लघुकथा है जो पति-पत्नी के आतंरिक रिश्ते को भी चित्रांकित कर रही है। यह एक बेहतरीन लघुकथा है। विषय में नयापन न होने के बावजूद इसका प्रतिपादन सुंदर तरीक़े से हुआ है। शीर्षक भी कथानक के अनुरूप है।
‘बलिदान’ :- अधिकांश ऐसा होता है कि पत्नी को पति और उसके घरवालों से प्रताड़ना मिलती है जिसको उसे सहना पड़ता है या वह इसका विरोध करती नज़र आती है। परंतु ऐसा नहीं है कि पुरुष वर्ग प्रताड़ित नहीं होता या सभी पत्नियाँ अच्छी ही होती हैं। कई बार पत्नी अपने पति को प्रताड़ित करती है और पति के शिकायत करने पर भी वह उसकी बातों पर ध्यान नहीं देती और अपने वर्चस्व को सिद्ध करने हेतु अपने ज़ुल्मों में कमी नहीं आने देती और पति को बाध्य करती प्रतीत होती है कि उसका पति उसके कहने पर ही चले अन्यथा घर में क्लेश ही होता रहता है।
‘बलिदान’ एक ऐसे परिवार को केंद्र में रखकर कथा को गढ़ी गई है जिसमें कथानायिका क्रूरता की पराकाष्टा को भी निभा रही है और अपने पति को कम दिखाई देने की समस्या जो जानते-बुझते भी उसको काम पर जाने और रोटी-रोज़ी कमाने हेतु बाध्य करती है और पति के लाख मना करने पर, अपनी विवशता को उजागर करने के बावजूद, हर तरह से समझाने के उपरांत भी वह उसकी एक नहीं सुनती। पति की प्राइवेट नौकरी होने के कारण उसका अधिकारी उसको डाँट लगाता नज़र आता है जो यह कहता है, “दिखाई नहीं देता तो घर पर क्यों नहीं बैठे रहते?”
पर कथानायक के नसीब में ऐसा कहाँ संभव है? उसकी पत्नी ताने मार-मारकर उसको काम पर जाने हेतु विवश कर देती है और उसको अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह न चुराने हेतु निर्देश देती है। इसका परिणाम यह होता है जो इस कथानक का अंत में, ‘कार्यालय से लौटते-लौटते रात हो जाती है। पति सड़क पार करने लगता है तब तेज़ी से आती कार ने उसे उठाकर दूर गड्ढे में फेंक देती है। पलभर में ही उस सदा-सदा के लिए चिंताओं से मुक्ति मिल जाती है।
यह एक मध्यमवर्गीय परिवार की जीवन-शैली का सटीक चित्रण है जो संघर्षमय जीवन को जीने हेतु बाध्य हो जाता है और कई बार वह अपने पर भी ध्यान नहीं दे पाता और अगर देना भी चाहे तो ज़िम्मेदारियों की बेड़ियाँ उसको ऐसा करने नहीं देती और एक समय आता है जब वह अपने परिवार के पीछे बलिदान देने हेतु बाध्य हो जाता है और उसकी जीवनलीला ही समाप्त हो जाती है।
यह मध्यमवर्ग जीवनशैली का बेहतरीन उदाहरण है जिसको लेखक ने बहुत ही सुंदरता से प्रस्तुत किया है।
‘माँजी’:- इस लघुकथा में जिठानी और देवरानी के मध्य ‘माँजी’ को अपने साथ रहने हेतु लड़ाई करती को प्रत्यक्ष किया गया है जिस हेतु वह यथासंभव प्रयास करती हैं। और लड़ाई करने से भी पीछे नहीं हटती और न ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। वृद्ध माँजी को इस क़द्र प्रताड़ित कर देती हैं की सीढ़ियों पर ही दोनों उनके हाथ को अपनी ओर खींचती नज़र आती है जिस कारण स्थिति यहाँ तक की बढ़ जाती है कि वृध्दा का सिर दीवार पर टकरा जाता है और सिर से ख़ून का फव्वारा फूट पड़ता है। और वह सीढ़ियों से नीचे गिर जाती हैं और बेहोश हो जाती है। इनके लिए डॉक्टर बुलाने की आवश्यकता पड़ जाती है।
संवेदनहीनता की पराकाष्टा यहाँ तक पहुँच जाती है जब माँजी की सेवा करने की बारी आती है तब भी जिठानी और देवरानी के मध्य लड़ाई होती है और उनका ध्यान रखने हेतु दोनों में से कोई भी तैयार नहीं होता। इसका अंतिम वाक्य, ‘माँजी पर दोनों के दावे बदल चुके थे।’ स्वार्थी और भावशून्य समाज को उजागर करता है जिस समाज में वृद्धजनों के प्रति नई-पीढ़ी के उदासीन व्यवहार को न सिर्फ़ दर्शाता है अपितु एक ऐसे समाज पर प्रश्चिह्न लगाता है जो अपने को विकास की राह पर चलते हुए सफलता को प्राप्त कर रहा है और अपने को समृद्ध कहता है।
२. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ
अ).शिक्षा विभाग:- अशोक लव जी की ‘उज्ज्वल भविष्य’, इस लघुकथा में शिक्षा जैसे क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार अपना जाल बिछा रखा है जिसमें विद्यार्थी-वर्ग को मोहरा बनाकर गंदी राजनीति खेलने में भी नेता-गण पीछे नहीं हटते और युवा पीढ़ी का उपयोग वह अपने निजी स्वार्थ हेतु करते है, जिससे वह भटक जाता है और उनका भविष्य अंधकार की खाई में चला जाता है। इसी पृष्ठभूमि पर आपकी इस लघुकथा में विद्यालय के छात्रावास के विद्यार्थियों के सामान की जाँच होती है, जिस हेतु उनको अपनी कक्षाओं में भेज दिया जाता है। प्रत्येक विद्यार्थी को बारी-बारी से बुलाकर उनके सामान की जाँच होस्टल-वार्डन करने लगते हैं।
छोटी कक्षा के विद्यार्थियों के अलमारियों से कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिलता है परंतु दसवीं से बारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों की अलमारियों से विदेशी सिगरेट के पैकेट, शराब की बोतलें, स्त्री-पुरुष के अश्लील चित्रों से भरी देशी-विदेशी पत्रिकाओं के ढेर बरामद होते हैं।
विद्यार्थियों के नामों के साथ प्रधानाचार्य को रिपोर्ट दे दी जाती है। २० विद्यार्थियों को छात्रावास से निकालने की सिफ़ारिश की जाती है परंतु उन विद्यार्थियों के निलंबन-पत्र देते है टेलीफोनों की घंटियाँ खड़खड़ाने लगती हैं और प्रबंध-समिति सभी के निलंबन को रद्द कर देती है। और जाँच में मिली शराब की बोतलें प्रबंध-समिति के सदस्यों में बाँट दी जाती है।
इस लघुकथा का अंतिम वाक्य ‘छात्रावास की अलमारियाँ फिर से सजने लगीं’ शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र में भ्रष्टाचार की पोल खोलता है और इस कटु सत्य को उजागर करता जो विद्यार्थी जीवन से खेलता नज़र आता है जो पाठक को सोचने पर विवश कर देता है कि आख़िर हमारे भविष्य का क्या होगा? बहुत ही अहम विषय को लेकर अशोक लव जी ने अपनी क़लम चलाई है। आप अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं। शीर्षक भी कथानक के अनुरूप है।
ब).कथनी करनी में अंतर- ‘उपदेश’ दोहरी मानसिकता को उजागर करती हुई यह एक अच्छी लघुकथा है जिसमें शिक्षकगण जो शिक्षा और नैतिकता का पाठ पढ़ाने हेतु जाने-पहचाने जाते हैं और समाज उनसे सज्जन व्यवहार और साफ़-सुथरे आचरण की अपेक्षा करता है, परंतु जब शिक्षक ही भ्रष्ट और व्यभिचारी हो तो वे समाज के निर्माण में अपने दायित्त्वों को किस तरह से निभा सकता है?
कुछ इसी तरह की समस्या को लेकर अशोक लव जी की ‘उपदेश’ नामक लघुकथा है जो अपने संदेश को पाठक तक पहुँचाने में सफल हुई है।
स).सरकारी विभाग:- ‘एक हरिश्चंद्र और’ :- सरकारी विभाग में निजी व्यवसाय करने वालों एवं राजनीति के हस्तक्षेप का होना कोई नई बात नहीं। अशोक लव की यह लघुकथा इसी समस्या को दर्शाती एक बेहतरीन लघुकथा हुई है जिसमें कथानायक हरिश्चंद्र साहनी जो बिजली विभाग में महाप्रबंधक हैं को यह शिकायत मिलती है की भंडार-घर में रखे सभी बंडलों में से बीस-बीस मीटर प्रत्येक बण्डल में कम मिलता है जिस हेतु वह अधिशासी अभियंता सुबोध श्रीवास्तव को ज़िम्मेदार मानते हैं और उनसे पूछताछ करते हैं।
वह मुख्यालय से अपने निजी-सचिव से कहकर श्रीवास्तव का निलंबन-पत्र लिखवाते हैं। यह बात मुख्यालय में आग की तरह फ़ैल जाती है और तार-कंपनी एक शुभचिंतक कंपनी के प्रबंध-निदेशक को फोन कर स्थिति से अवगत करवाता है जो ब्रिफकेस लेकर बिजली विभाग के महाप्रबंधक के समक्ष गीडगीडाता है और उसको ख़रीदने का प्रयास करता है। परंतु हरिश्चंद्र जी अपनी ईमानदारी का परिचय देते हुए उस व्यापारी यानी कि कंपनी के प्रबंध-निदेशक को पुलिस बुलवा लेते सरकारी अफ़सर को रिश्वत देने के ज़ुल्म में गिरफ़्तार करवा देता है जिसके परिणाम स्वरूप अगले ही दिन बिजली विभाग के महाप्रबंधक श्री हरिश्चंद्र का स्थानांतरण अंडमान किया जा रहा है का पत्र उसके हाथ में थमा दिया जाता है।
यह एक साधारण-से विषय पर लिखी गई एक साधारण-सी लघुकथा है।
सरकारी ठेकेदारों द्वारा निर्माण की गई सड़कें हो या उनके द्वारा निर्माण किए गए पुल, जब किसी कारण यह ढ़ह जाते हैं तब आम जनता के मुँह से गालियों की बौछार होती है। इस पृष्ठभूमि पर लिखी गई अशोक लव की लघुकथा ‘गालियों की सार्थकता’ है जिसमें कथानायक उन लोगों को गालियाँ देता है जो सड़क के किनारे बैठे चाय पी रहे थे, जब की शहर में बाढ़ आ गई थी और गलियों में नाँव चल रही थी। लोग चाय के साथ-साथ बाढ़ और उसके कारणों पर बहस कर रहे थे। कथानायक गालियों की बौछार कर रहा था और आसपास बैठे हुए लोग उसकी बातों को अनसुना कर अपनी ही धुन में मगन थे।
तब पता चलता है कि वह सचिवालय में सेक्शन-अफ़सर था। पिछले वर्ष कार्यालय से ऋण लेकर मकान बनवाया था। बाढ़ में मकान ढ़ह गया था, जिसमें उसके पत्नी और बच्चे पानी की तेज़ धारा में बह गए थे। और तबसे वह अकेला रह गया था। वह नेताओं एवं सरकारी-विभाग को उनकी लापरवाही और अपने दायित्त्वों को सही से न निभाने हेतु एवं भ्रष्ट-नीतिओं के अंतर्गत काम करवाने हेतु एवं आम-जनता को यूँ आराम से बैठकर चाय पीना एवं बेमतलब की चर्चाओं में व्यर्थ समय गवाँने हेतु गालियाँ दिए जा रहा था।
‘उसकी गालियाँ सार्थक लगने लगी थी।’ इस चरम वाक्य से उस पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा साफ़ नज़र आ रही थी।
इसका अंतिम वाक्य, ‘गालियाँ जारी थीं और बाढ़ तथा उसके कारणों पर लोगों की बातें भी जारी थीं। इन दोनों वाक्यों में आम जनता की बेबसी और समाज के प्रति अपने दायित्त्व का निर्वाह न करने की आदत साफ़ नज़र आती है।
‘चमेली की चाय’ का कथानक सफ़ाई कर्मचारियों की बस्ती और सरकारी महकमे के पदाधिकारी का उनकी बस्ती में जाने से पहले की सोच से वहाँ लोगों के बीच रात को ठहर जाने के बाद तक की सोच के मध्य आए परिवर्तनों को बहुत ही करीने से चित्रांकित किया गया है। इस हेतु घटनाक्रमों का ताना-बाना जिस तरह बुना गया है वह लाजवाब है। इस लघुकथा में एक व्यक्ति के मनोविज्ञान को भी बहुत ही उल्लेखनीय ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जिस व्यक्ति की सोच हरिजन बस्ती की एक औरत के हाथ से बनी चाय को पीने से धर्मभ्रष्ट होता है, जैसी सोच रखने वाला पदाधिकारी जो लघुकथा के अंत तक आते-आते उसको उसी औरत की बनी चाय में पहले जैसी कड़वाहट नहीं मिलती। सोच का परिवर्तन वो भी एक ही रात में ! यह अशोक लव जी जैसे क़लमकार ही लिख सकते हैं। इस लघुकथा का प्रतिपादन उल्लेखनीय तरीक़े से हुआ है।
‘मृगतृष्णा’:- नौकरी में रिज़र्वेशन के मुद्दे को लेकर लिखी गई यह एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसका ट्रीटमेंट इस लघुकथा को ऊँचाई प्रदान करता है। यह एक ऐसे बेरोज़गार पर आधारित लघुकथा है जो रोज़गार-कार्यालय से लिपिक के पद हेतु लिखित परीक्षा देता है और पंद्रह उत्तीर्ण प्रत्याशियों में उसका स्थान तीसरा आता है। स्वाभाविक है कि उसके घर वाले बहुत ख़ुश होते हैं। निश्चित तिथि पर वह कार्यालय पहुँचता है।
प्रमाण-पत्रों की जाँच के पश्चात् उसको डायरेक्टर साहब के कमरे में बुलवाया जाता है। जहाँ उसको बताया जाता है कि रोज़गार-कार्यालय से केवल अनुसूचित जाति के प्रत्याशियों के नाम मँगवाए गए थे। भूल से उन्होंने कथानायक अखिलेश शर्मा का नाम भी भेज दिया था।
उसको समझा-बुझाकर यह कह दिया जाता है कि उसके नाम को नोट कर लिया गया है और भविष्य में उसकी आवश्यकता पड़ने पर उसको बुलवा लिया जाएगा।
एक उत्तीर्ण युवा की ऐसी दुर्दशा देखकर पाठक के हृदय में सहज ही संवेदना जाग उठती है और वह वर्तमान के रिज़र्वेशन कोटे पर विचार करने को विवश हो जाता है। इस पॉलिसी के चलते सामान्य वर्ग के युवाओं को जिन-जिन परेशानियों का सामना करना पड़ता है उसका चित्रांकन इस लघुकथा में बहुत ही करीने से किया गया है।
इस लघुकथा में जो अनकहा है वह उस युवा की मनोदशा वह किस तरह से इन सब का सामना कर रहा था? और आख़िर में वह चिंतित हो जाता है कि घर वालों की आशाओं का क्या होगा?
उसके सामने सब बिखरता जान पड़ता है। वह चुपचाप उठता है। झटके से दरवाज़ा खोलकर बाहर आता है और सामने पड़े पत्थर को उठाकर और पेड़ पर मार देता है।
इस अंतिम वाक्यों में कथानायक की पीड़ा उभरकर आती है और उसका पेड़ को पत्थर मारना बिल्कुल वैसा ही प्रतीत होता है जैसे की किसी ने उसकी क़िस्मत पर ठोकर मार दी हो। इस लघुकथा संग्रह की यह एक बेहतरीन लघुकथाओं में से एक है।
ड).कार्यालयीन भ्रष्टाचार- ‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’:- कार्यालयीन भ्रष्टाचार एवं द्वेष-भरी प्रतिस्पर्धा के चलते कभी एक साथ काम करने वाले किस तरह से दुश्मनी निभाते हैं का सटीक उदाहरण अशोक लव की इस लघुकथा से प्राप्त होता है। कथानायक टोपीलाल यूनियन नेता था। अशर्फीप्रसाद अफ़सर। तबादले के बाद जब अशर्फीप्रसाद उस शहर में आता है तब न दोनों में दाँत-कटी रोटी हो गई थी। और वह एक-दूसरे को नीचा दिखाने में या उनकी छवि ख़राब कर उनके काले कारनामों को उजागर करने में कहीं कमी नहीं रख रहे थे। इस लघुकथा में दोनों पात्रों के मध्य के घमासान को बहुत ही ख़ूबसूरत तरीक़े से प्रस्तुत किया है जो इस लघुकथा को चार-चाँद लगाने में सफल हुआ है। दोनों के मध्य की दुश्मनी आख़िर में आते-आते कुछ ऐसे होती है कि टोपिलाल को नौकरी से त्याग-पात्र देना पड़ जाता है। अशर्फिप्रसाद उसके आदमियों को अपनी ओर ले आता है और टोपीलाल के ख़िलाफ़ सबूत इक्कट्ठा करता है कि किस तरह से उसने जाली कंपनियों के नाम से विभाग में हज़ारों रुपये का सामान सप्लाई कर रहा था। सतर्कता-विभाग ने केस बना लिया और टोपीलाल के अपने स्टॉक में भी हेरा-फेरी पकड़ी गई। उसके अधिकारी भी उससे त्रस्त हो चुके थे सो उसको त्यागपत्र देने हेतु सभी ने मिलकर मजबूर किया और धोखाधड़ी का मुकद्दमा चलाया गया जिससे उसका जेल जाना निश्चित हो गया था परंतु टोपीलाल ने त्याग-पत्र देना उचित समझा।
टोपीलाल ने इसका बदला कुछ इस तरह से लिया कि दो माह पश्चात् अशर्फिप्रसाद को स्थानांतरित कर असम भेज दिया गया जिसका आधार टोपीलाल द्वारा भेजे सब प्रमाणपत्र बने।
समाज का एक ऐसा वर्ग जो ऊँचे-ऊँचे हौदों पर बिराजमान है और जिनका नाम होता है परंतु उनके काले कारनामों से आम-जनता अपरिचित होती है और अगर पता भी चल जाए तो भी ऐसे लोगों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता ऐसे लोगों के काले कारनामों का चिट्ठा इन जैसे लोगों के पास ही होता है और ऐसे लोग मतलबी होते है और समय आने पर किसी भी स्तर पर जा सकते है। इस लघुकथा का अंत नकारात्मक है परंतु इस लघुकथा का उद्देश्य बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है और समाज के बीच ऐसे लोगों का परिचय देने में सफल होता है ताकि अच्छे और बुरे लोगों के भेद को समझते हुए अपने कार्यों को किया जा सके। यह एक उत्तम श्रेणी की लघुकथा है। इसका शीर्षक भी सटीक है।
‘नई चेतना’:- सरकारी विभाग हो या बड़ी कंपनियाँ, जब इनके लिए नौकार-चाकर नियुक्त किए जाते हैं और इनको कंपनी के ओर से दूसरी सुविधाएँ भी प्रदान की जाती है ऐसे अफ़सरों की पत्नियाँ अपने को अफ़सर से कम नहीं मानती और ऐसे भी वह यह भी भूल जाती हैं कि अगर कोई व्यक्ति किसी और काम से उनके घर आता है और यह अपने घर की साफ़-सफ़ाई करवाने पर अड़ीग हो उससे अकड़कर बात कर लेती हैं और इसके अतिरिक्त उसकी झूठी-सच्ची शिकायत अपने पति को कर देती हैं परिणाम स्वरूप उसके अहम को ठेस पहुँचती है और वह उस काम करने वाले को खरी-खोटी सुना देता है। और वह भूल जाता है कि सामने वाले व्यक्ति का अपना स्वाभिमान भी है और उसके लिए वह लड़ने को तैयार भी हो सकता है। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित अशोक लव जी की यह लघुकथा का ताना-बाना बहुत ही करीने से प्रस्तुत किया गया है। जिसमें कथानायिका श्रीमती चोपड़ा अपने घर आए बिजली के टेक्नीशियन को घर में साफ़-सफ़ाई करने हेतु आदेश दे देती है और उसके इनकार करने पर आग-बबूला होकर उसको नौकरी से निकलवा देने की धमकी भी दे देती है। जब वह फ़ैक्ट्री पहुँचता है और जी.एम. के केबिन में बुलावा आने पर चला जाता है। चोपड़ा जी बिना सोचे-समझे और न ही उसकी बात को सुनते हैं और उसको आदेश दे देते हैं कि , “मेमसाहब ने ग़लती से तुम्हें झाड़ू लगाने के लिए कह दिया तो तुम गालियाँ देने लगे। तुम उन्हें बता देते कि तुम टेक्नीशियन हो क्लास-फोर नहीं हो। बाहर पी.ए.. से अपनी तीन महीने की पे का चेक ले लो। पी.ए..ही तुम्हें डिसमिस-लेटर भी दे देगा।’
यह सुनते ही उस टेक्नीशियन का माथा ठनक जाता है और उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है और वह कह उठता है, “ सर! आपने मेरी बात सुनी ही नहीं और नौकरी से निकालने का आदेश दे-दिया। मैंने मेमसाहब को सिर्फ़ नौकरानी से झाड़ू लगवा लेने के लिए कहा था। मैं भला अनपढ़-गँवार हूँ जो उनको गालियाँ देता? बाक़ी रही नौकरी से निकालने की बात, तो यह आप भूल जाइए। मैं जा रहा हूँ। चेक और डिसमिस करने का पत्र भिजवाते रहिएगा। अभी यूनियन है और कोर्ट-कचेरियाँ बंद नहीं हुई हैं। और वह कमरे से बाहर आ जाता है।
इस अप्रत्याशित उत्तर की कल्पना भी जी.एम.साहब ने नहीं की थी। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि हर व्यक्ति का अपना स्वाभिमान होता है फिर चाहे वह कोई अफ़सर हो या कोई कर्मचारी। हरेक के अपने अधिकार होते हैं और अगर किसी कारण से उसके अधिकारों का कोई हनन करने का प्रयास करता है तो उसको अपनी आवाज़ उठाना चाहिए बिल्कुल इस लघुकथा के टेक्नीशियन गोविंद की तरह।
यह एक सुंदर लघुकथा है जो अपने उद्देश्य और संदेश हेतु पाठकों के हृदय में अपना स्थान पा लेगी ऐसा मेरा मानना है।
‘नया साक्षात्कार’:- सरकारी महकमे में अगर कोई कार्य संपन्न हो जाता है तो हर व्यक्ति को उसका हिस्सा मिलता है ऐसी की पृष्ठभूमि पर आधारित है अशोक लव की यह लघुकथा जो ‘नया साक्षात्कार’ शीर्षक से इस पुस्तक में प्रकाशित हुई है।
लेखा-अनुभाग में कथानायक की नौकरी लगते ही ठीक दूसरे दिन मेज़ की दराज से फ़ाइल निकालने के उपरांत जब वह उस फ़ाइल को खोलता है तब उसमें सौ-सौ के पाँच नोट पड़े मिलते हैं।
वह अस्चार्यचाकित हो जाता है और उन रुपयों को लेकर बड़े बाबू के पास पहुँच जाता है।
वह हँसते हुए कहते हैं, “ नए-नए आए हो। सब समझ जाओगे। रुपये जेब में रख लो।”
कथानायक के समझ में कुछ नहीं आता इस हेतु बड़े बाबू उसको उनके अनुभाग से मेहता कंस्ट्रक्शन कंपनी को पचास हज़ार का चेक मिलने की सूचना देता है और उसी चेक से जिस प्रतिशत से सब के बीच के हिस्से का हिसाब समझाते हैं।
इस लघुकथा के अंतिम वाक्य में ऐसे भ्रष्ट लोगों का बेहतरीन तरही से चित्रांकन हुआ है, ‘ बड़े बाबू की हँसी के ठहाकों के मध्य मेरी निगाहें हाथ में पकड़े सौ-सौ के उन पाँच नोटों पर जम गईं।’
इस अंतिम वाक्य में जो अनकहा है वह यह है कि उस ठहाकों में नए आए कथानायक हेतु यह चेतावनी भी है कि उसको इन सब के साथ मिलकर ही काम करना होगा और वह चाहे या न चाहे उसको उनकी बातों को मानना ही होगा। सरकारी विभाग में बड़े बाबू की छवि बुरी ही होती है और कहा जाता है कि अफ़सर के पास फ़ाइल बाद में पहुँचे या न पहुँचे यह सब निर्णय बड़े बाबू का होता है और वह अपनी पदवी का रौबदार तरीक़े से उपयोग करता है। और अपने ऊपर काम करने वाले हों या नीचे काम करने वाले हों, वह अपने को सर्वशक्तिमान सिद्ध करता प्रतीत होता है। यह एक बेहतरीन व्यंग्यात्मक लघुकथा है।
ई). राजनीति भ्रष्टाचार: ‘जन-सेवा’:- लालच का मुँह अगर खुल जाता है और ऐसे में अगर किसी व्यक्ति की नियत बिगड़ जाती है और वह उस लालच के जाल में फँस जाता है , ऐसे में लालच का जाल बिछाने वाला व्यक्ति उसका किस तरह से उपयोग करता है। इस परिस्थिति का सटीक चित्रण अशोक लव जी ने ‘जन-सेवा’ लघुकथा के माध्यम से किया है। इसका शीर्षक व्यंग्यात्मक है जो इस लघुकथा को उत्तम-श्रेणी में लाकर खड़ा करती है।
इस लघुकथा का कथानायक पुरुषोत्तम वर्मा के मंत्री बनने पर प्रोफ़ेसर हरिश्चंद्र उसको बधाई देने आते हैं।
कुछ देर के वार्तालाप के उपरांत मंत्री महोदय लालच का जाल बिछाने की शुरूआत करते हैं और कहते हैं “ कितना कमा लेते हो पढ़ाकर? यही चार-पाँच हज़ार रुपये महीना। हम मंत्री बन गए हैं तो यार-दोस्तों का नहीं तो किसका ध्यान रखेंगे? अब मिल-बाँटकर लोगों की सेवा करेंगे। किसी को रसोई-गैस की एजेंसी देंगे। किसी को पेट्रोल-पम्प की एजंसी देंगे। एक-एक एजेंसी लेनेवाला तीन-चार लाख आराम से दे जाएगा। तुम पार्टियाँ लाना और मैं…” यह कहते हुए वह ठहाके लगता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में प्रवेश मिलते ही व्यक्ति के लालच का पिटारा खुल जाता है और वह चारों तरफ़ से पैसों को बटोरने की नियत से अपने लोगों को अपनी तरह बनाने में अतिशीघ्रता दिखाता है और चालाकी से अपने लोगों को ऐसी जगहों पर फिट कर देता है जहाँ से भी उसको मुनाफ़ा कमाने का अंदेशा हो जाता है।
और प्रोफ़ेसर हरिश्चंद्र जो साधारण-सा व्यक्ति है इन जैसे मंत्रिओं की चालाकियों को नहीं समझते और क्षणिक भी न सोचते हुए उसका मोहरा बनने को तैयार हो जाते है। इसका एक पहलू और हो सकता है कि एक साधारण व्यक्ति को जब अहसास हो जाता है कि वह कम मेहनत करने के बाद भी लाखों में खेल सकता है तो व्यर्थ में अपनी जूतियों को क्यों घिसा जाए और वह शोर्ट-कट अपनाकर जल्द-से-जल्द अमीर बनने की इच्छा रखता है। जिस हेतु वह आगे-पीछे कुछ भी न देखते हुए लालच की भट्टी में कूद पड़ता है।
‘प्रतिशोध’ इस लघुकथा की कथानायिका रितिका जैसे ही कमरे में घुसती है कथानायक रोहित के नथुनों में उसकी देह की गंध घुस जाती है और उसके समक्ष चार वर्ष पूर्व की रितिका घूम जाती है।
वह उससे पिछले चार वर्हों की घटनाओं के बारे में पूछता है और मंत्री-पद तक पहुँचने के अपने क़िस्से सुनाता है।
वह मुस्कराती सुनती रहती है।
वह उसको भीतर बैठने को कहता है और अपने पी.ए.. को कुछ समझाता है। वह साथ चल पड़ती है और जैसे ही रोहित के कार्यालय से निकलकर रितिका बाहर आती है वह विरोधी दल के वरिष्ठ नेता चमनलाल के पहुँच जाती है और रोते-रोते रोहित द्वारा बलात्कार करने की शिकायत कर देती है।
राजनीति में इस तरह की खबरे आग की तरह फैलती हैं और ऐसा ही कुछ इस कथानक में भी दर्शाया गया है।
रितिका और समर्थकों की नारे लगाती भीड़ के साथ विरोधी दल माँ नेता चमनलाल पुलिस-स्टेशन पहुँच जाते हैं और नारेबाज़ी तेज़ हो जाती है।
“बलात्कारी मंत्री को गिरफ़्तार करो!”
“नारी-रक्षा न कर सके जो-वह-सरकार निकम्मी है!”
नतीजा यह होता है कि पुलिस-स्टेशन से लेकर गृह मंत्रालय तक में खलबली मच जाती है। डॉक्टरी जाँच से बलात्कार का आरोप सिध्द हो जाता है और रोहित के गिरफ़्तार की माँग करते हुए चमनलाल समर्थकों सहित धरने पर बैठ जाते हैं।
क्योंकि चुनाव निकट थे सरकार की बदनामी के भय से रोहित को सरकार और पार्टी से निकाल दिया जाता है।
अब तक तो लघुकथा राजनीति के मैदान में चल रही गंदी राजनीति का चित्रण हो रहा है परंतु यह अशोक लव जैसे कुशल लेखक है जिन्होंने इस लघुकथा का अंत आते-आते ही इसके चरम वाक्यों के माध्यम से सिध्द करते प्रतीत होते है कि लघुकथा को किस तरह से और रोचक बनाया जा सकता है और किस तरह से इस तरह के कथानक को मोड़ा जा सकता है।
‘पुलिस आयुक्त रोहित को गिरफ़्तार कर लाते हैं। चार वर्षों की लंबी प्रतीक्षा के पश्चात् रीतिका का प्रतिशोध पूर्ण हो जाता है।”
इसके अंतिम वाक्य ‘अमूल्य मूल्य चुकाने पर भी वह प्रसन्न थी।’ से उस महिला के अब तक पीड़ा और उसके बदले की भावना को किस तरह से वह ठंडक पहुँचा पाती है का सटीक चित्र उभरकर सामने आता है।
इस तरह के क़िस्से इतिहास में ख़ूब पढ़ने में आते रहे हैं कि राजा-महाराज किस तरह से औरतों का इस्तमाल अपने दुश्मनों का ख़ात्मा करने हेतु उपयोग किया करते थे और औरते भी चालाकी से अपना बदला भी ले-लिया करती थी। यह एक अच्छी लघुकथा हुई है।
३.सामाजिक सरोकार पर आधारित लघुकथाएँ- ‘कृष्ण की वापसी’ विदेश से लौटकर आया एक मित्र किस तरह से अपने एक ग़रीब मित्र की मदद करता है का सुंदर चित्रण इस लघुकथा के माध्यम से हुआ है। सामाजिकोत्थान के उद्देश्य को लक्षित कर रही इस लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि कृष्णा जो विदेश से लौटकर अपने देश आया है वह किसी की तलाश हेतु भटकता है और जब उससे भेंट हो जाती है तब भी वह अपने अमीर होना का दिखावा न करते हुए उस व्यक्ति से सहज होकर उसके परिवार से भी मिलता है और उनको भी अपनी तरह सहज ही महसूस करवाता है आख़िर में उसको एक छोटे-से घर तक पहुँचाता है जिसका नाम ‘सुदामा निवास’ होता है।
संवेदना जगाती यह एक अच्छी लघुकथा है जो अमीर और ग़रीब की दूरी को मिटाकर मानवता के उद्देश्य को परिलक्षित कर रही है। ‘
‘घंटियाँ’ : अपने अफ़सरों के सामने किस तरह से झुक जाने पर व्यक्ति विवश हो जाता है और कई बार कई बातों में न चाहते हुए भी उनकी बातों का समर्थन करना पड़ जाता है। अशोक लव जी ने इस समस्या को बहुत ही सुंदर ढंग से इस लघुकथा के माध्यम से दर्शाया है कि किस तरह से एक नास्तिक व्यक्ति हो अपने धार्मिक माता-पिता के धार्मिक होने पर भी विरोध जताता है को मजबूर होकर अपने अफ़सर के साथ हर मंगलवार को मंदिर ले जाना पड़ता है।
यह एक बेहतरीन प्रतीकात्मक लघुकथा है जिसके माध्यम से लेखक यह दर्शाने में सफल हुआ है कि समाज में अफ्सरवादी का बोलबाला है और उसके आगे व्यक्ति की अपनी सोच के कोई मायने नहीं रह जाते।
‘ठहाके’:- व्यक्ति कितनी आसानी से मुखौटा बदलकर समाज में बहुत ही आराम से रहता है फिर वह चाहे औरत ही क्यों न हो। ऐसा ही कुछ अशोक लव ने इस लघुकथा के माध्यम से दर्शाया है कि वर्तमान में महिलाएँ भी बहुत ही सहज होकर मुखौटा पहनकर समाज में उठती बैठती है और अगर उनके इस ढोंग का पता किसी को चल भी जाता है तो चालाकी से वह इस बात को ढाँक देने में सक्षम होती है और बेशर्मी से सबके मध्य ठहाके लगाते नज़र आती हैं।
कथानायिका श्रीमती संगीता कार्यालय में ज़िंदादिल औरत मानी जाती थी। अवसरानुकूल ऐसे मज़ाक भी कर लेती थीं कि पुरुष भी पीछे रह जाते।
संयोगवश एक बार सब उसके घर गए तब देखते हैं कि वही दबंग दिखने वाली महिला अपने घर में सिर पर पल्ला किए पति के आदेश पर इधर से उधर कठपुतली बनी काम किए जा रही थी।
अगले ही दिन कार्यालय में पुनः वह उसी रूप में नज़र आती हैं जिस रूप में वह कार्यालय में जानी जाती थी परंतु अपने को ढाँकने हेतु वह कहती है, “मेरे पति के विचार अठारहवीं शताब्दी के हैं। मुझे घर पर उनकी तरह ही बनकर रहना पड़ता है। अपनी घर-गृहस्थी को तमाशा तो नहीं बनाना।”
यह एक अच्छी व्यंग्यात्मक लघुकथा है।
‘डरपोक’:- सफ़र करते समय अगर कोई हादसा हो जाए या चोर-उच्चक्के ही यात्री-गणों को परेशान करते हों, परंतु लोग चुपचाप बैठे तमाशा देखते नज़र आएँ और ऐसे में कोई हिम्मत दिखाकर उनसे भीड़ जाता है और उनसे लोगों को मुक्त करवाता है, तब अगर वही तमाशबीन लोग उस बहादुर व्यक्ति को शाबाशी देने के बजाय सरकार एवं पुलिस को कोसने लगे तब वह बहादुर व्यक्ति अपने को रोक नहीं पाता और वह उनको आईना दिखाने में सफल हो जाता है परंतु उनका डर जस-का-तस बना रहता है। इसी विषय को लेकर यह लघुकथा सुंदरता से लिखी गई है जिसमें कथानायक चार जेबकतरों से बस में सफ़र कर रहे यात्रियों को मुक्ति दिलाता है परंतु तमाशबीन आख़िर तक तमाशबीन ही बने नज़र आते हैं।
बड़े शहरों में ठगों की कोई कमी नहीं। नित-नई तरकीबों से लोगों को ठगने की कई घटनाएँ अक्सर देखने-सुनने में आ ही जाती है। इसी समस्या पर अशोक लव ने भी अपनी क़लम चलाई है। आपकी लघुकथा का शीर्षक है ‘हार या जीत’ जिसमें रात का खाना खाकर पंकज के साथ कथानायक सैर करने निकलता है। पंजाबी बाग़ क्लब के पास किसी नाली में एक युवक लेटा हुआ दिखाई देता है। पंकज के समझाने पर भी कथानायक उसकी मदद करने को तत्पर दिखता है और वह उस नाली में गिरे हुए व्यक्ति से बात करता है।
वह व्यक्ति कहता है कि ग़लती से उसने ज़्यादा पी ली है और उसको थाने पहुँचा देने की गुहार करता है। परंतु कथानायक उसके घर का पता पूछता है जिसपर वह व्यक्ति बता तो देता है पर उसके भीतर एक शैतान बसता है जो कथानायक जैसे सज्जन पुरुष को दिखाई नहीं देता सो वह उसपर दया खाकर उसके घर पहुँचाने में उसकी मदद करता है। परंतु जैसे ही वह उस व्यक्ति के घर के पास की गली तक पहुँचता है वह व्यक्ति चिल्ला-चिल्लाकर कहता है, “बचाओ! बचाओ! लूट लिया ! मेरी घड़ी और रुपये लूट लिए।”
उसका शोर सुनकर गली से लोग निकल आते है। और पंकज और कथानायक वहाँ से भाग निकलने में सफल हो जाते हैं और घर जाकर वह इस घटना की चर्चा अपने पिताजी से करता है जो पुलिस के पास अपनी शिकायत दर्ज करने ले जाते है और उस ठग को पकड़ लिया जाता है।
इस लघुकथा के माध्यम से अशोक लव जी ने अनजान लोगों पर जल्दी से भरोसा न करने का संदेश देकर एक सजग नागरिक के दायित्त्व को भी निभाया है जिससे आपके गंभीर व्यक्तित्त्व की छवि भी उभरकर आती है।
‘नए रास्ते’:- पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की उपभोग की वस्तु समझने वालों का सही चित्रण करती हुई यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है जिसमें बहन के विवाह के लिए ऋण लेने हेतु साहब को प्रार्थना-पत्र देता है। परंतु साहब उस क्लर्क से कहते है, “ कभी बहन से मिलवाओ तो।”
वह मिलवाने हेतु साहब को दिलासा तो दे देता है परंतु अपनी ही बहन को कोई भाई इस तरह कैसे भेज सकता है। शाम को वह अपने एक मित्र से इस विषय में चर्चा करता है तब वह किसी युवती से मिलते हैं और उसको दो सौ रुपये दे देते हैं और उसे बहन बनाकर साहब के बंगले पर ले जाते हैं। और ऋण पास हो जाता है।
समाज का यह एक ऐसा काला सच है कि जो स्त्री एक माँ होती है बहन होती है, पत्नी होती है वहीं उसी समाज में महिलाओं का उपभोग करने वाले भी होते हैं और कई महिलाएँ भी इस कु-कर्म में पुरुषों का साथ देती नज़र आती हैं।
‘निखट्टू’ यह भी पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं पर प्रताड़ना करने जैसी समस्या को दर्शाती एक अच्छी लघुकथा है जिसमें औरत न चाहते हुए भी प्रताड़ित होती रहती है और समर्पण भाव से अपनी पति को ही अपना सब कुछ मानती चली आती है।
कथानियाका एक मजदूरनी जिसकी गोद में एक बच्चा है जो अपनी साथियों के संग ट्रेन के किसी डिब्बे में चढ़ जाती है।
वह अपने बच्चे को थप्पड़ मार देती है और उसके रोने पर दूसरी मजदूरिन उसको डाँटती है जिसका उत्तर बच्चे वाली वह मजदूरिन कुछ इस तरह से देती है, “का करूँ? अपणा मरद सै। वा का घर सै। दारू पीके आवै, मारे,पिट्टे,गालियाँ देवे-सब सहण करणी पड़ें। दारू पीण खातर, जुआ खेलण खातर पैसा माँगै तो देणा पड़े। व मरद सै। मारण-पीटण का वा हक्क सै। औरत मरद के आगै के कर सकै।”
इस लघुकथा से उस समय पर औरतों की दयनीय स्थिति का चित्र बहुत ही सुंदर ढंग से उभरकर आता है। वर्तमान में समय के साथ महिलाओं के क़ानून बदल गए हैं और उनको बहुत सारे अधिकार प्राप्त हुए है परंतु जमीनी तौर पर यह क़ानून कितने हद तक कारगार साबित हो रहे हैं यह तो आँकड़ें ही बता सकेंगे।
यह न सिर्फ़ एक महिला की प्रताड़ना को उजागर करती लघुकथा है अपितु यह एक समुदाय की कथा है जो इस तरह के जीवन को जीने हेतु बाध्य होती है।
‘परिवर्तन’ वर्तमान का युवा वर्ग जिस हद तक आधुनिकता की आड़ में गुमराह होता जा रहा है और ऐसे में लड़कियों की भी कमी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम जैसे पवित्र रिश्ते को खेल समझ युवा वर्ग किस तरह दूसरों की भावनाओं से खेल रहा है और तन-मन-धन से लूट रहा है एवं लूटा जा रहा है का एक बेहतरीन उदाहरण है यह लघुकथा जिसमें एक युवा लड़की के लिए प्यार के मायने सिर्फ़ तन-मन से साथ देना है और वह किसी भी बंधन में पड़ना पसंद नहीं करतीं। दिशाहीन युवा वर्ग को दर्शाती यह एक सुंदर लघुकथा है।
‘पहाड़ और ज़िंदगी’ यह दो सहेलियों के मध्य अपने-अपने अस्तित्त्व की लड़ाई को लेकर उनके बीच के संवादों से बुनी गई एक अच्छी लघुकथा है जिसमें कथानायिका सीमा किरण को अपने मित्र सुधीर के साथ विवाह करने हेतु अथवा उसका आना-जाना बंद करने हेतु की सलाह देती है। जिसपर किरण कहती है कि विवाह के बाद एक बेटी को जन्म देना एवं तीन वर्ष बाद ही उसका विधवा हो जाने में उसका कोई दोष नहीं है। और बोलने वाले तो हर हाल में बोलते ही मिलेंगे पर काम कोई नहीं आता अपनी लड़ाई तो हर हाल में अपने को लड़ना होती है और बताती है कि उसके मृत पति के बीमे के पैसे भी चूँकि आ गए हैं और वह नौकरी भी तो कर रही है सो उसको कोई दिक़्क़त नहीं आना। परंतु इस बीच कोई ऐसा व्यक्ति जो उसके दुख-दर्द और उसकी बेटी के साथ उसको अपनाने हेतु तैयार होता है तो अवश्य सोचेगी। विधवा होने के बावजूद पुनर्विवाह करना उस पीड़ा से कई गुना ज़्यादा बेहतर है जिस पीड़ा से उसकी सखी सीमा जो को उसके विवाह के मात्र छह माह के उपरांत उसके पति की मृत्यु के बाद सहना पड़ा था जब उसका अपना जेठ उससे बलपूर्वक शारीरिक संबंध स्थापित करने में सफल हो जाता है। सीमा को इस बात का अहसास हो जाता है कि कितनी ग़लत थी, जब उसने अपने जीवन से हार मान ली थी और किरण ने उलटा उसको ही समझाइश दे दी थी कि महिलाएँ अबला नहीं सबला है और वह परेशानियों से लड़ सकती हैं। महिलाओं के आत्मबल को जगाती यह एक अच्छी लघुकथा है।
‘पार्टी’ दो ऐसे मित्रों के बीच प्रेम को दर्शाती यह एक अच्छी लघुकथा है जिसमें एक मित्र विजय अमीर होता है और दूसरी तरफ़ प्रशांत ग़रीब घर से होता है। विजय अपनी भतीजी के जन्मदिन की पार्टी के लिए प्रशांत को अपने घर आने को कहता है परंतु प्रशांत उसको टालने का प्रयास करता है और पिताजी के आँखों के ऑपरेशन होने के कारण शाम को उसको दुकान पर बैठना होता है की समस्या बता देता है। परंतु वह मन-ही-मन दुखी भी होता है क्योंकि विजय की भतीजी को देने हेतु उसके पास कुछ नहीं होता और न ही इतने पैसे होते है जिससे वह कुछ ख़रीद सके, वह अपने जूतों को तो चिप्पियाँ लगाकर जैसे-तैसे चला रहा था। परंतु विजय उसको लेने उसके घर पहुँच जाता है और मजबूरन उसको जाना पड़ जाता है पर वहाँ वह अपने को असहज महसूस करता है ऐसे विजय की बड़ी दीदी उसको टोक देती है, “ अरे प्रशांत! इत्ती ठंड में तू चप्पल पहनकर ही आ गया है।”
वह झेंप जाता है और पैरों को एक-दूसरे पर रखकर जल्दी-जल्दी सोफ़े के नीचे छिपाने का प्रयास करता है।
फिर आधी बाएँ का स्वेटर पहनने का ताना भी देती है और उसको भीतर चलने को कहती है जहाँ हीटर चल रहा होता है।
पार्टी के समाप्त होने पर विजय जब उसको छोड़ने बाहर तक आता है तब वह कहता है, “प्रशांत! यार दीदी की बातों का बुरा तो नहीं माना? मैं सचमुच शर्मिंदा हूँ।
इसपर प्रशांत कहता है, “अरे! बुरा कैसा मानना ! दीदी का मुझपर कितना स्नेह है। तभी तो कह रही थी।”
यह कहकर वह चलने के लिए मुड़ जाता है परंतु मुड़ते ही उसकी आँखें छलछला आती हैं।
इस लघुकथा का अंत पाठक को भावुक कर देने में सक्षम हो रहा है। यह एक मार्मिक लघुकथा है जो अमीर और ग़रीब के मध्य के फ़ासलों को बाखूबी चित्रांकित कर रही है और साथ में यह भी दर्शा रही है कि स्वाभिमान सबके एक सामान होता है जिसपर ठेस लगने से अश्रु बह ही निकलते हैं।
‘प्यार और इंतज़ार’ युवा-पीढ़ी के प्यार और जीवन के यथार्थ को दर्शाती यह एक उत्तम श्रेणी की लघुकथा है जिसमें युवा जोड़े के मध्य बहुत समय तक प्यार रहता है और वह मिलते रहते हैं। इस बीच लड़का सिर्फ़ बी.ए.. कर पाता है, वहीं वह लड़की एम.ए.. करने के बाद पी.एच.डी. कर लेती है और विभागाध्यक्ष की कृपा से कॉलेज में प्राध्यापिका बन जाती है। दोनों के मध्य जब विवाह की बात होती है तब कथानायक विवाह का प्रस्ताव रखता है परंतु लड़की के मुँह से यह निकल जाता है कि लड़का सिर्फ़ एक क्लर्क बनकर ही रह गया है। उसको भी तो उन दोनों ने जो तय किया था उस अनुसार आगे बढ़ना चाहिए। लड़का अफ़सर बनने का इंतज़ार करता है और इस बीच युवती एक प्रोफ़ेसर से विवाह कर लेती है।
प्यार करना और प्यार को निभाना एक बार आसान हो सकता है परंतु जीवन के यथार्थ से भागा नहीं जा सकता और यथार्थ के आगे प्यार कई बार टिक नहीं पाता। इसी बात को दर्शा रही है अशोक लव की यह लघुकथा।
‘बौने बनते हुए’ अपने बच्चों की कमज़ोरियों को ढ़ाँकने के लिए कई बार लोग फिर वह चाहे यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर ही क्यों न हो को मजबूरन इस तरह से गिड़गिड़ाना पड़ता है कि सामने वाला भी उस व्यक्ति का लिहाज़ रखने हेतु उसकी मदद करने को एक बार तो तैयार हो जाता है परंतु बाद में उसको इस बात का अहसास भी हो जाता है कि किसी को बौना बनते देख सहन न कर पाने के कारण वह भावुक होकर उसको सहयोग करने का वचन तो दे देता है परंतु उसके लिए उसको अनैतिक कार्य करना पड़ जाता है तब वह स्वयं को बौना बनते हुए देखकर भी विवश-सा महसूस करता है।
कथानायक माथुर अंतरराष्ट्रीय ख्यातिनाम विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अपने सहयोगी मित्र से मिलने आते है और इधर-उधर की चर्चा करने के बाद जब उनसे वहाँ आने की वजह जानना चाहते हैं तब वह उनकी मदद माँगते हुए कहते हैं कि वह अपने पेपर में ध्यान रखे और दूसरे सहयोगी प्रोफेसरों से भी कह दें ताकि इस वर्ष जैसे-तैसे उनका बेटा पास हो जाए। और अगले वर्ष वह उसको मेहनत करने हेतु प्रेरित करेंगे।
इसका एक पहलू यह भी है कि जिनको आसानी से अगर कुछ मिल जाता है तो वह मेहनत करना छोड़ देते हैं ऐसे में अगर वह विद्यार्थी है तो वह अपने भविष्य से ही खेलता है।
प्रोफ़ेसर माथुर के जाने के बाद उनके सहयोगी को अहसास होता है कि उसको उनकी बात नहीं मानना चाहिए थी। उनकी बातों को मानकर उन्होंने अनैतिक कार्य को अनजाने में ही समर्थन दे-दिया है जिससे वह स्वयं को बौना सा महसूस करने लगते हैं। इसका प्रतीकात्मक शीर्षक इस लघुकथा की जान है।
‘मछुआरे का जाल’ इस लघुकथा में कथानायिका रेणुका को कार्यालय में में मिल जाने हेतु मेहरोत्रा कहता है जिससे कि उसकी कहानी के विषय में चर्चा हो सके।
रेणुका ने जिस समाचार-पत्र में प्रकाशनार्थ कहानी भेजी थी मेहरोत्रा उसमें उप-संपादक थे। दोनों के मध्य सामान्य वार्तालाप होते-होते मेहरोत्रा की बातों से रेणुका की छठी इन्द्रिय जाग जाती है और वह समझ जाती है कि मेहरोत्रा की नियत ठीक नहीं और अंत में वह अपना विद्रोह दर्ज करवा लेती है और क्रोध ने भर जाती है और वहाँ से उठकर चल देती है। और मेहरोत्रा उसको आवाज़ लगाते ही रह जाता है। इसका प्रतीकात्मक शीर्षक के कारण इस लघुकथा को ऊँचाई प्राप्त हुई है।
इसके ठीक विपरीत अशोक लव की लघुकथा ‘शालीनता की प्रतिमा’ का अवलोकन किया जा सकता है जिसमें कथानायक उसके मित्र शांतनु के घर जब भी जाता है तब उसकी पत्नी रेणुका उसका अच्छा सम्मान करती है। वह शालीनता की जीवित प्रतिमा लगती है। सुरेंद्र जो एक प्रसिध्द पत्रिका का संपादक है जिसने कथानायक को अँग्रेज़ी के एक उपन्यास का संक्षिप्तीकरण करने के लिए अपने घर बुलाया था। दोनों के मध्य हँसी-मज़ाक की बातें होती है और घर-परिवार की चर्चा भी होती है जिसमें कथानायक से सुरेंद्रा कहता है, “यह साली संपादक की कुर्सी ही ऐसी है। पत्रिका में छपने के लिए युवतियाँ स्वयं चली आती है। हम तो सुधारना चाहते हैं, पर कोई सुधरने दे तब तो सुधरें। इसी चक्कर में हम तो शादी ही नहीं कर सके। पिछले दो महीने से एक लेखिका की तीन रचनाएँ क्या प्रकाशित कर दी, चरणों में लोटने को तैयार है। आज रात बुलाया है। आती होगी। तुमने तो शादी कर ली। हमने भी तो गुज़ारा करना है।
तभी एक तिपहिया स्कूटर आकर गेट पर रुकता है। जिसमें से एक नारी उतरती दिखाई देती है जो रेणुका ही होती है वही रेणुका जो शालीनता की प्रतिमा दिखाई दी थी।
छपास का भूत की बीमारी जिसको लग जाती है उसका किस हद तक ग़लत फ़ायदा उठाया जाता है, इस बात को पुष्ट करती अशोक लव की यह लघुकथा लेखन जगत् का एक कटु सत्य बयान कर रहा है जो लेखकों की आँखें खोलने के लिए माध्यम बन रही है।
‘मूल्यों के लिए’ अपने मूल्यों के लिए कई बार अपना पूरा जीवन दाँव पर लग जाता है और ऐसे में यदि अपने से कमतर कोई मित्र अपने से ज़्यादा सुखी दे जाए तो यह संभावना बढ़ जाती है कि जो पीछे रह गया हो वह उसके आगे हर दम कुढ़-कुढाता रहे। और ऐसे कुढ़-कुढ़ाने वाले लोग अक्सर अपने को नितांत अकेला कर लेते हैं और परेशान ही रहते हैं। इसी पृष्ठभूमि पर अशोक लव की यह लघुकथा दो मित्रों के बीच का कथानक है जिसमें एक मित्र साधारण परिवार से होता है जो पढ़ने में अपने उस अमीर मित्र से बेहतर होता है जो आज मैनेजिंग डायरेक्टर बन गया है जबकि दूसरा सिर्फ़ डेढ़ हज़ार की नौकरी कर रहा है। एक दिन दोनों कॉफ़ी पीने इक्कट्ठा होते हैं परंतु विश्वेषर अपना दुखड़ा लेकर बैठ जाता है और उसका कुढापन इतनी हद तक बढ़ जाता है कि उसका मित्र जो राजीव जोशी जो मैनेजिंग डायरेक्टर बन गया है वहाँ से यह कहकर उठकर चला जाता है कि ऐसा जीवन उसीकी पसंद है वरना उसने तो उसको नौकरी पर रखना चाहा था।
नतीजा यह होता है कि राजीव के जाने के बाद उसके बीमार पुत्र की दवाई के लिए रखे दस रुपये का नोट भी उसको बैरे की ट्रे में रख देना पड़ता है जबकि वेतन मिलने में अभी चार दिन शेष होते हैं।
मध्यमवर्गीय व्यक्ति का संघर्ष और उसकी जिजीविषा को चलाने हेतु उसकी जद्दोजेहद को चित्रांकित करती यह एक अच्छी लघुकथा है। मध्यमवर्गीय व्यक्ति के मनोविज्ञान को बहुत ही करीने से दर्शाया गया है।
‘विवशताएँ’ ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ मध्यमवर्गीय लोगों को समस्याओं से झूझना पड़ता है। संपन्न एवं संभ्रांत परिवार के लोगों की भी अपनी समस्याएँ होती हैं और उनके लिए अपनी इज़्ज़त को चिंता खाए जाती है। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित अशोक लव जी की इस लघुकथा में दोनों कथानायिका ऐसे ही परिवारों से आती हैं जिनमें से एक की बेटी होती है और एक का बेटा। दोनों माँ एक-दूसरे के बच्चों पर और उनकी परवरिश को दोष देती है क्योंकि दोनों बच्चे क्लब गए थे और वहाँ से देर रात तक भी लौटकर घर नहीं आते। दोनों के मध्य के संवादों के माध्यम से उनके मध्य की कड़वाहट को बाखूबी दर्शाया गया है और अंत में उच्च-पधाकिकारियों की पत्नियाँ फोन पटक देती है। दोनों चिंता में रातभर सो न सकी और उधर क्लब में रातभर नृत्य के दौर चलते रहे।
विदेशी लोगों की नक़ल करते हुए बच्चों के माता-पिता यूँ तो अपने को आधुनिक कहते है परंतु जब अपने बच्चों की बारी आती है तब उनकी चिंता आम आदमी की तरह ही दिखाई पड़ती है जो स्वाभाविक भी है। इसी उद्देश्य को उजागर करती इस लघुकथा का प्रतिपादन सुंदर ढंग से किया गया है।
‘व्यापार’ स्त्री के प्रति पुरुष की गंदी एवं घिनौनी मानसिकता को उजागर करती यह लघुकथा सुंदर है जिसमें कथानायक महिलाओं को सिर्फ़ इसलिए अपने दफ़्तर में रखे हुए है क्योंकि उनके साथ हँसी-मज़ाक हो जाती है और वह उनको छू-छा लेता है। समाज में ऐसे कुंठित लोगों की भी कमी नहीं है, इसी बात को दर्शाती है यह लघुकथा.
‘सलाम दिल्ली’ इस संग्रह की एक अहम और प्रतिनिधि लघुकथा जिसके नाम से ही इस संग्रह का नाम रखा गया है। यह इस संग्रह की बेहतरीन लघुकथा भी है और इस संग्रह के पुनर्प्रकाशन की वजह भी। जैसा की योगराज प्रभाकर जी ने लिखा है कि ‘सलाम दिल्ली’ रवि प्रभाकर जी की प्रिय लघुकथाओं में से एक थी। वह इस लघुकथा से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने कहा था कि इस रचना पर एक विस्तृत शोधात्मक आलेख लिखेंगे। इसी उद्देश्य से उन्होंने श्री अशोक लव जी से ‘सलाम दिल्ली’ की प्रति मँगवाई थी। अशोक लव जी के पास केवल रिकॉर्ड हेतु रखीं केवल पाँच प्रतियाँ ही शेष थीं जो लगभग तीन दशकों से उन्होंने सँभाल कर रखीं हुई थीं। तभी योगराज प्रभाकर जी के मन में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण को प्रकाशित करने का विचार आया था और उन्होंने रवि प्रभाकर जी से अपने ‘देवशीला पब्लिकेशन’से प्रकाशित करने का सुझाव दिया है। इससे आज के पीढ़ी को भी पुराने शिल्पियों की रचनाएँ पढ़ने का अवसर प्रदान होगा।
इस लघुकथा को पढ़ते हुए लगा जैसे कोई चलचित्र चल रहा है। इस लघुकथा का का विषयवस्तु, इसकी बनावट एवं बुनावट सभी श्रेष्ठ है और इसका पात्र भी एक सामान्य व्यक्ति है जो समाज में कहीं-न-कहीं दिखाई दे ही जाता है। फ़िल्मी दुनिया और टी.वी. की दुनिया की चकाचौंध किस तरह से युवा वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करती है और उस हेतु अपना घर-द्वार छोड़कर युवा किस तरह से अपना सब कुछ दाँव पर लगा लेते हैं और फिर अपनी क़िस्मत को अजमाने हेतु जूते चटकाते फिरते नज़र आते हैं। इन सब का एक बेहतरीन उदाहरण है अशोक लव की यह लघुकथा ‘सलाम दिल्ली’। इस शीर्षक के अलावा ‘सलाम दिल्ली’ शब्द पूरी लघुकथा में दो बार आ रहा है और दोनों ही बार इस शब्द का अलग परंतु गूढ़ अर्थ उभरकर आ रहा है।
अशरफ़ इस लघुकथा का कथानायक रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठा है और सिगरेट सुलगाता है। गाड़ी चलने में अभी वक़्त था। वह खिड़की से सिर टिकाकर बैठा है। उसके मन मष्तिष्क में रह-रहकर कई स्वर गूँजने लगे जिसमें उसके संघर्षमयी जीवन का सफ़र था। वह एक कलाकार था जो अभिनय करना जानता था। उसके क़लम में शब्दों का जादू था। वह बनारस से दिल्ली टी.वी. में काम करने हेतु आया था। वह तरह-तरह के लोगों से मिलता है और सब अपने-अपने तरीक़े से उसको दिलासा देते नज़र आते हैं। इस लघुकथा का प्रत्येक संवाद इस टी.वी.जगत् की नितांत अलग ही कहानी बयान करता है।
यह अशोक लव जैसे अनुभवी लेखक का ही कौशल है जो इस तरह की लघुकथा को लिख पाए हैं और हिंदी-लघुकथा को एक कालजयी लघुकथा प्रदान की है।
अशरफ़ के छह महीने का संघर्ष ! जिसमें उसके पास अपना हुनर तो था, काम करने का जोश भी था परंतु उसके पास नोट नहीं थे। उसके पास बोतलें नहीं थीं। उसके पास प्रोड्यूसरों की कमज़ोरियों का इलाज नहीं था। उसके पास महानगर की मरी हुई आत्मा नहीं थी। इसलिए ढाबे का उधार बढ़ता गया था। सर्दी बढ़ती गई थी। उसके कपड़े कम, और कम होते चले गए थे।
असल में इस चकाचौंध वाली दुनिया के पीछे का सच इतना कड़वा और भयानक होता है कि यह एक दलदल जैसा प्रतीत होता है जिसमें इनसान फँसता और धँसता जाता है। इसमें आपका किसी बड़े व्यक्ति से परिचय, पैसा जैसीं और भी चीज़ों की आवश्यकता होती है और सब से ज़्यादा ज़रूरत होती है आपके भीतर के धैर्य और आत्मबल को मज़बूत करने की।
छह महीने बाद ही ‘सलाम दिल्ली’ कह वह बनारस की गाड़ी में आ बैठा था। यहाँ एक थका-हारा और अपने से ही निराश हो चुके व्यक्ति का वक़्त के थपेड़ों के आगे अपने घुटने को टेक देने का मानभाव दिखाई देता है कि जब किसी व्यक्ति का सपना टूट जाता है तो वह किस तरह से टूट जाता है, बिखर जाता है और ऐसे समय में उसके समक्ष जो अँधेरा छा जाता है उस कारण वह आगे कुछ नहीं देख पाता और ऐसे में पूरी संभावना होती है कि वह कोई ग़लत निर्णय ही ले बैठे। परंतु ऐसे समय में अगर वह आत्ममंथन कर पुनः अपने संघर्ष के समय का स्मरण कर ले और उसको यह अहसास हो जाए कि विपरीत स्थिति में हार जाना किसी समस्या का हल नहीं होता, परंतु जीवन से लड़ना ही सच्चा पुरुषार्थ होता है और इसके लिए स्वयं को ही खड़ा होना पड़ेगा और गिरने के बाद सँभलना और फिर उठकर चलने को ही ज़िंदगी कहते हैं। यह मूलमंत्र जब उसके मन-मश्तिष्क में कौंध जाता है तब वह पहले से दोगुनी ऊर्जा से स्वयं को तैयार करने का प्रयास करता है और इस कथानक के अशरफ़ के तरह यह महसूस कर लेता है कि दिल्ली उसको चिढ़ा रही है। उसने हार कैसे मान ली? उसे न जाने क्या होता है कि वह अटैची उठाकर सरकती हुई गाड़ी से प्लेटफ़ॉर्म पर कूद जाता है और स्टेशन से बाहर निकलकर आ जाता है। सामने पड़े पत्थर पर कसकर ठोकर मारता है। पत्थर उछलकर दूर जा गिरता है और उसके होठों पर मुस्कराहट तैर जाती है।
और वह सामने जगमगाती दिल्ली से हाथ उठाकर कहता है- “सलाम दिल्ली!” यहाँ यह शब्द ऊर्जा-उत्साह एवं दृढ़ निश्चय को दर्शा रहा है। नकारात्मक सोच से सकारात्मक की ओर लक्षित करना ही जीवन का ध्येय होना चाहिए।
यही संदेश इस लघुकथा के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है जो हर पाठक को प्रेरित करने में अपनी भूमिका अदा कर सकेगा। इसके शीर्षक को देने के पीछे भी लेखक ने अपने अनुभवी होने का परिचय दिया है।
लोगों की बातों का स्मरण होने के बाद जब अशरफ़ अपना आत्ममंथन करता है तब वह चौंक जाता है और अपने बनारस लौट जाने के निर्णय पर ही स्वयं से प्रश्न पूछता है।
४.बालमन पर आधारित लघुकथाएँ :
‘छोटा भाई’:- बेटी और बेटे में फ़र्क़ रखने वालों को ध्यान में रखकर लिखी गई इस लघुकथा में बेटियों के जन्म के बाद बेटे के जन्म पर जो उत्साह दिखाई देता है उससे बालमन किस तरह से आहत् होता है विशेष तौर पर बेटियों के मन में यह आने लगता है कि वह अपने छोटे भाई के जन्म होने के उपरांत उससे भी बहुत ज़्यादा छोटी हो गईं है।
‘बहेसें जारी हैं’:- ऐसे शिक्षक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी गई लघुकथा है जो अपने को देश के प्रति जागरूक एवं सबसे बड़ा शुभचिंतक मानते हैं। वे अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझते है और जब भी राजनीति या देश के किसी मुद्दे पर चर्चा या विमर्श होता है तब वह अपनी सहभागिता दिखाते हैं और इस बीच वह यह तक भूल जाते हैं कि उनका किसी क्लास में पीरियड है और विद्यार्थी उनका इंतज़ार कर रहे होंगे। विद्यार्थी जीवन चंचल होता है, वह कहीं भी हो अपनी चंचलता नहीं छोड़ पाता पर जब शिक्षक उनको पढ़ाने आता है तब वह एकाग्रता से उनको सुनने और समझने का प्रयास करता है परंतु उनके क्लास में न आने पर जाने-अनजाने में क्लास में शोर करके अपना विद्रोह जताता है। ऐसे में भी अगर शिक्षक वर्ग उनको न समझकर अपनी बहस को ज़ारी रखता है तो हम समझ सकते हैं कि भविष्य की नींव रखने वाले युवा वर्ग की क्या मानसिकता होगी और उनके पीछे किस तरह के शिक्षक रहे होंगे और उनको क्या ज्ञान प्राप्त हुआ होगा? और ऐसे शिक्षक अपनी ज़िम्मेदारियों को किस तरह से निर्वाह कर रहे होंगे? इसी विषयवस्तु पर लिखी गई अशोक लव जी की यह लघुकथा कुछ ऐसे ही शिक्षक-गणों का सजीव और सटीक चित्रण करती है जो सब कुछ भूलकर देश और उसके प्रधानमंत्री की कार्य-प्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगाते नज़र आते है। अपनी ज़िम्मेदारियों को न देखते हुए दूसरों पर उँगली उठाने वालों की कमी नहीं होती पर ऐसी भीड़ में अगर शिक्षकगण भी शामिल हो जाए तो युवा वर्ग न सिर्फ़ शोर मचाएगा अपितु उसका भविष्य पर भी प्रश्न-चिह्न लग जाएगा। यह अपने आपमें एक अलग और गंभीर समस्या को उजागर करती एक बेमिसाल लघुकथा है। इसका शिल्प भी प्रभावशाली है।
बच्चे अपने माता-पिता को बहुत ही शुक्ष्मता से देखते और समझने का प्रयास करते हैं और बड़े होकर उनका अनुसरण एवं उनके द्वारा दिखाई गई राह पर चलने का प्रयास करते हैं। बच्चों का हृदय कोमल होता है, बालमन में अगर वह अपने माता अथवा पिता के किसी ग़लत कार्य को देख लेते है तब उनके हृदय को बहुत आघात लग जाता है और कई बार ऐसा होता है कि बच्चा भटक जाता है और अच्छे और बुरे की पहचान खो बैठता है और ऐसे में अगर वह नशे का आदि हो जाए तो उसके वापस लौटने का रास्ता उसको नहीं मिल पाता और न चाहते हुए भी वह कई बार इस बुरी आदत को छोड़ना नहीं चाहता। वह समझ ही नहीं पाता कि अपने को किस दलदल में धकेल रहा है और इसका अंजाम आख़िर क्या होगा? कुछ इसी तरह को उजागर करती अशोक लव की ‘बाप’ लघुकथा में कथानायक एक होनहार विद्यार्थी है जो न सिर्फ़ पढ़ने में अपितु खेलों में भी रुचि रखता है और क्रिकेट-टीम का ओपनिंग बैट्समैन हुआ करता था। जो कुछ समय से अपनी राह पर से भटक गया है और स्मैक जैसी नशीली चीज़ को सेवन करने का आदी हो गया है। उसका मित्र उसको बहुत समझाता है कि वह इस लत को छोड़ दे परंतु वह ख़ामोशी-से उसकी बातों को सुन लेता है। कॉलेज के बाद उसने घर जाना छोड़ दिया था और वह सीधे अपने मित्र के साथ बोर्डिंग-हाउस चला जाता था।
वह नशे में धुत है और बहुत देर हो जाने पर जब उसका मित्र उसको घर छोड़ आने की बात करता है तब उसका दर्द उभरकर बाहर आ जाता है और वह नशे की हालत में भी कहता है, “आख़िर मैं जाऊँगा कहाँ?”
तब कथानायक का मित्र जवाब देता है, “अपने घर और कहाँ?”
तब कथानायक उसको अपनी पीड़ा की वजह बताता है कि उसका पिता वर्ष पैंसठ की लड़ाई में एयर-क्रेश में मारा गया था। शहीद हो गया था। परंतु उसके बाद उसकी माँ रोज़ाना उसके लिए एक नया बाप ले आती है। रात-रातभर घर नहीं आती, कारें आती हैं ले जाती हैं, कारें आती हैं छोड़ जाती हैं। ऐसा ही क्रम वह बचपन से देखता आ रहा है और उसके अनुसार माँ को अगर ऐसा लगता है तो किसी एक व्यक्ति से शादी कर लेना चाहिए।
अपने माँ के प्रति उसकी नफ़रत किस क़द्र अपने बालावस्था से उसके हृदय को चीरकर घर कर चुकी है कि वह उनसे नफ़रत करने लगा है साथ ही वह अपने को सँभाल पाने में भी सक्षम नहीं रहा है और भटक गया है।
ऐसे बच्चों को अगर सही समय पर समझाने वाला और सँभालने वाला न मिले तो उसकी क्या दुर्दशा होती है कि वह चीत्कार उठता है परंतु उसकी चीत्कार उसकी पीड़ा का कोई समाधान जब नज़र नहीं आता तो वह नशे में निढाल हो वहीं ढेर हो जाता है। यह एक संवेदनात्मक एवं मार्मिक लघुकथा है जिसका शिल्प एवं प्रतिपादन उच्चकोटि का हुआ है। यह लघुकथा भी इस लघुकथा संग्रह की एक कालजयी रचनाओं में से एक है।
‘सामनेवाला कमरा’ किसी भी बच्चे के लिए उसके माता-पिता ही उसका संसार होते हैं और ऐसे में अगर किसी की मृत्यु हो जाए तो वह उस क्षण को कभी नहीं भूल पाता फिर भले ही वह स्कूल में हो। ऐसे में अगर उसके स्कूल से उस अस्पताल का कमरा दिख जाता है जिसमें किसी की मृत्यु हुई थी तब बहुत ही स्वाभाविक है कि उसकी नज़र वहाँ टिक जाए। इसी दृश्य को दर्शाती हुई यह लघुकथा बच्चे की कोमल भावनाओं को व्यक्त कर रही है जो बहुत ही मार्मिक बन पड़ी है।
५.मानवीय शोषण पर आधारित लघुकथाएँ:
‘चेहरों के भीतर’ कथनी और करनी विषय पर आधारित इस लघुकथा में एक लेखिका जो नारी-जीवन की दयनीय स्थिति का चित्रण करती आई है, के दोगुले चरित्र को चित्रांकित करती है जो इतनी बड़ी लेखिका होने के बावजूद अपनी नौकरानी का शारीरिक एवं मानसिक शोषण करने से भी नहीं शर्माती, और उसको अपनी करनी पर कोई अफ़सोस नहीं होता है।
‘दलाल’ एक ऐसे व्यक्ति को केंद्र में रखकर लिखी गई लघुकथा है जो किसी दुर्घटना का शिकार हुआ था और उसकी टाँगे ख़राब हो गई थी। एक तरफ़ वह काम माँगने के लिए लोगों के पास गिड़गिड़ाता हैं और दूसरी तरफ़ दलाल बनकर लोगों को काम दिलवाने या उनके काम करवा लेने का प्रलोभन देकर उनसे पैसे लूटता है और शाम को शराब की बोतल मँगवाकर पी लेता है और अगले दिन कटोरा लेकर नौकरी की भीख माँगने के लिए पुनः टी.वी.केंद्र या अख़बार के दफ़्तर पहुँच जाता है।
‘दुम’ चाटुगिरी एवं पैसों के दम पर अनैतिक काम करवा लेने और अपना उल्लू सीधा-करने वालो पर लिखी यह लघुकथा सुंदर है। जिसमें कथानायक अपना उल्लू सीधा करने हेतु लोगों को दावत भी देते हैं और शराब भी पीलाते हैं और वह लालच में आकर सब कुछ भूल जाता है और जिसने उसको यह सब दिया है उसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। ऐसे में अगर उसकी पत्नी उसको सही राह दिखाने का प्रयास भी करती है तो कई बार वह उसको अपना आईना दिखाने में सफल हो जाती है और उसको इस बात का अहसास होने लगता है की वह सचमुच मुँह में हड्डी दबाए दुम हिलाता हुआ कुत्ता बन चुका था। लेखक इस लघुकथा के माध्यम से यह समझाना चाहते हैं कि अपने विवेक-बुध्दी को कभी खोना नहीं चाहिए और लालच में आकर स्वयं को खोना नहीं चाहिए।
‘नई दुकान’:-ब्यूटी पार्लर की आड़ में अनैतिक कार्यों का पर्दाफ़ाश करती यह एक अच्छी लघुकथा है जिसमें यह भी दर्शाया गया है कि किस तरह से ज़रूरतमंद और नवयुवतियों की तलाश कर उनको शोर्ट-कट का रास्ता दिखाकर उनको अमीर बनाने का सपना दिखाकर उनको गुमराह करते हैं और फिर उनसे अनैतिक कार्य करवाकर उनका हर प्रकार से शोषण किया जाता है।
‘पादरी की बेटी’:- काम दिलाने का प्रलोभन देकर ज़रूरतमंदों को अपने घर से बहुत दूर किसी अन्य शहर में लाकर उसका घरेलू नौकर/नौकरानी बनाकर किस तरह से शारीरिक,मानसिक एवं आर्थिक शोषण किया जाता है और ऐसा करने वाले कई सभ्रांत लोग होते हैं। इसी परिदृश्य को दिखाती ‘पादरी की बेटी’ लघुकथा में एक पादरी लड़कियों को अपनी बेटी बनाकर ऐसे परिवारों में भेज देता है जहाँ उसका हर तरह से शोषण होता है। और उसके वापसी के सारे द्वार बंद होते हैं।
यह एक गंभीर समस्या है जो समाज में फैलती नज़र आती है जिसके लिए बाल-मज़दूरी विरोधी क़ानून सख़्त किए गए हैं। परंतु इस समस्या से अभी पूर्ण रूप से मुक्ति नहीं मिल पाई है।
‘राजा साहब की बख़्शीश’ एवं ‘रामौतार की गाय’, राजा महाराजा और ज़मींदारों की अय्याशियों को दर्शाती ये दोनों ही लघुकथाओं का शिल्प प्रभावशाली हैं, जिसने इन दोनों लघुकथाओं को उच्च श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। इन दोनों लघुकथाओं में ग़रीब के शोषण का चित्र है जो अपने में एक गंभीर विषय है परंतु इसका ट्रीटमेंट बहुत ही सहज और स्वाभविक ढंग हुआ है। दोनों में ही शब्दों की मर्यादाओं का भी उचित ध्यान रखा गया है। अनैतिक कार्यों को भी शालीनता से प्रस्तुत किया गया है जो लेखक की लेखकीय-कुशलता को उजागर करता है।
‘रिसते घावों का दर्द’ बाग़ी बन स्टेशनगन उठाने के बावजूद में ज़रूरी नहीं कि ऐसे व्यक्ति में इनसानियत न हो। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित इस लघुकथा में कथानायक जगीरा एक औरत जो पहले ही दो के साथ निबट चुकती थी, के निकट आ जाता है और जैसे ही उससे लिपटने जाता है दोनों एक-दूसरे को पहचान लेते है और उनके सामने उनका बचपन घूम जाता है जब दोनों उसी गाँव में खेला-कूदा करते थे। वह उस लड़की को उस बस अड्डे तक छोड़ देता है जहाँ से उस महिला को उसके गाँव तक जाने की बस मिल जाएगी।
उसके मित्र को इस तरह देख उस महिला के रिसते घावों का दर्द कुछ कम हो जाता है।
६.अन्य विषयक लघुकथाएँ:
‘कर्फ़्यू’ :- यह एक मानवेत्तर एवं प्रतीकात्मक शिल्प में लिखी गई एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें लेखक ने मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाने के लिए प्रकृति ने जब ईश्वर ने कल्पना की और धरती ने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरिजाघरों के निर्माण करने को दर्शाया है और ईश्वर के आशीर्वाद के बाद जब मनुष्य सच्चा इनसान बनने लगा तब शैतान से न देखा गया और दोनों के मध्य घृणा की भावनाएँ जागृत हो गई। परिणाम स्वरूप मनुष्य-मनुष्य का प्यासा हो गया और धरती लाल होने लगी। मनुष्य के वेश में शैतान एक शहर से दूसरे शहर तक चक्कर लगाता है और हर जगह कर्फ़्यू लग जाता है। इसी तरह से सांप्रदायिकता पर आधारित इनकी एक और लघुकथा ‘आग’ को अवलोकित किया जा सकता है जिसमें जाति-वाद को लेकर लोगों के मध्य किस तरह और किस हद्द तक नफ़रत पनप जाती है कि एक-दूसरे के जानी-दुश्मन बन जाते हैं और परिवार में किसी की भी हत्या करने से नहीं चुकते। उनकी आँख तब खुलती है जब अपने ही परिवार से किसी की मृत्यु हो जाती है और वो भी दुश्मनी निभाते हुए दुश्मन के परिवार से ही कोई उसका ख़ून कर देता है।
‘प्रेतों की चिंता’ फंतासी शिल्प में लिखी गई एक और बेहतरीन लघुकथा है जिसमें प्रेतों को चिंता हो जाती है क्योंकि पहला शहंशाह सैंकड़ो निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार देता है और उन्हें देशद्रोही कहकर फाँसी के फंदों पर चढ़ा देता है। प्रेतों को भर-पेट भोजन मिलता रहता है।
देश में क्रांति हो जाती है और उस शहंशाह को बीच चौराहे पर खड़ा करके गोली से उड़ा दिया जाता है। अगला शहंशाह क्योंकि धार्मिक गुरु रह चुका था तो प्रेतों को भोजन कहाँ से मिलेगा की चिंता सताती है परंतु उनकी चिंता शीघ्र ही समाप्त हो जाती है जब वह गद्दी पर बैठने के साथ ही यह घोषणा करवा देता है कि वह अल्लाह के बनाए क़ायदे-कानूनों के अनुसार ही हुकूमत चलाएगा। अगले दिन भी जब ढेरों शव बरामद होते है तब प्रेतों को पता चलता है कि नए शहंशाह ने उन्हें देशद्रोही समझकर मरवा दिया है।
‘कफ़नचोर’– शिक्षा विभाग में भ्रष्टाचार को लेकर आपकी यह लघुकथा भी अच्छी बन पड़ी है जिसमें प्रधानाचार्य दो अद्यापिकाओं को इतिहास की अध्यापिका स्वर्गीय सुधा के चाचाजी के यहाँ भेजते हैं, क्यों की वह उन्हीं के नाम वसीयत कर गई थी। सुधा की वसियतानुसार जो बीस हज़ार रुपये उसने स्कूल के खाते में जमा किए उसमें से प्रति वर्ष इतिहास विषय में प्रथम आनेवाली बाहरवीं कक्षा की छात्रा को पाँच सौ रुपये और प्रतिक-चिह्न देने की व्यवस्था होती है।
परंतु जब अध्यापिकाएँ इस हेतु चाचा जी के पास आती हैं तब वह चाय-नाश्ते का प्रबंध करवा देते हैं और साथ ही सुधा की कैंसर की बीमारी पर हुए ख़र्चों का वास्ता देकर यह सिद्ध करने में सफल हो जाते हैं कि सुधा के एकाउंट में एक पैसा भी नहीं बचा है।
अध्यापिकाएँ खाली हाथ लौट आती है।
इसका लघुकथा का चरम वाक्य, ‘ चाचाजी ने सुधा के तीन कमरों के फ़्लैट, रंगीन टी.वी., वी.सी.आर., फ्रिज, गहने और भरे-पूरे घर पर अधिकार कर लिया था।” से यह ज्ञात होता है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी उसकी अंतिम इच्छा को पूरा करने के बजाय उसका सारा धन से अपने स्वार्थ की सिध्दी करने में भी लोग नहीं चुकते और समाज में ऐसे स्वार्थी लोगों की भरामार है।
इसका अंतिम वाक्य- ‘अब स्कूल को दिए बीस हज़ार भी चुपचाप हड़प गए।’ मानवोत्थानिक उद्देश्य को लक्षित की गई यह एक उत्तम लघुकथा बन पड़ी है। जो पाठक को आत्मचिंतन करने हेतु विवश कर सकती है।
‘मोड़’:- जब धार्मिक चिंतन करते हुए इस बात का अहसास करवाया जाता है कि सांसारिक सुखों में पीछे इतना नहीं पड़ जाना चाहिए कि बाद में किसी भी प्रकार का दुख हो परंतु किसी असाध्य बीमारी के कारण वही बात सच-सी प्रतीत होने लगती है और सब कुछ मिथ्या लगने लगता है।
इस लघुकथा में बिस्तर पर लेटी माला की आँखों में स्वामी जी का उपदेश देने का दिन घूम जाता है जब उन्होंने एक प्रवचन में यह कहा था, “संसार में रहकर संसारिकता से निर्लिप्त रहना सीखना चाहिए। सांसारिक वस्तुएँ मोह में बाँध लेती हैं और भुला देती हैं कि यह संसार मिथ्या है। वस्तुओं का उपभोग करो पर निर्लिप्त रहकर।”
तब माला इस बात को समाझ पाने में असमर्थ होती है और विचलित हो जाती है और जब उसको कैंसर जैसे असाध्य रोग ने घेरे रखा है तब उसको इस गूढ़ बात को समझने में आसानी हो जाती है और उसका भ्रम टूट जाता है और जीवन के यथार्थ को समझ जाती है।
सुख और दुख, जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन में जो भी आए उसको स्वीकार करना चाहिए परंतु किसी भी विषय से स्वयं को विचलित अथवा दुखी नहीं करना चाहिए। सभी स्थितियों को सामान्य जानकर स्वयं को संतुलित रहकर व्यवहार करना चाहिए। इसी संदेश को संप्रेषित करती यह एक सुंदर लघुकथा है।
‘वृक्ष ऊँचे रहेंगे’ इस लघुकथा में कथानायक एक राजा है जो सड़क से गुज़रते समय ऊँचे-ऊँचे लहलहाते वृक्षों को देख इर्ष्या करता है और वह उन सब वृक्षों को काट-छाँटकर देना का आदेश दे देता है। वृक्षों के साथ-साथ ऊँचें भवनों पर बुलडोज़र चला दिए जाते हैं।
राजा सदा वृक्षों के ऊँचा हो जाने की आशंकाओं से भरा रहता है और उसका पूरा ध्यान इसीमें रहता है। राज्य-कर्मचारी जन-कल्याण के कार्यों को त्यागकर ऊँचे वृक्षों को छोटा करने में लगे रहते हैं और इस कारण अव्यवस्था फ़ैल जाती है।
एक दिन राजा वृक्ष के सहारे विश्राम करते समय टहनियों ने बढ़कर राजा का गला जकड़ लेते हैं। वृक्ष मनचाही ऊँचाइयाँ छूने लगते है और बहुमंजिला भवनों के सौंदर्य से धरती जगमगा जाती है।
अपने से अमीर या समृद्ध लोगों को देखकर इर्ष्या करना अथवा स्वयं को बौना समझने से ज़्यादा बेहतर होता है अपने से नीचे और ग़रीब और निर्धन लोगों को देखना और अपने को सुखी समझना। यही संदेश देती हुए अशोक लव की यह प्रतीकात्मक लघुकथा बहुत ही सुंदर ढंग से लिखी गई है। इसका शीर्षक भी लघुकथा के अनुरूप है।
‘स्वामी कमलानंद’, धार्मिक आडंबर पर आधारित इस लघुकथा के माध्यम से वर्तमान के साधु-संन्यासियों के जीवन-शैली को लक्ष्य में रखकर उनके जीवन के उस सच को सामने लाकर खड़ा किया गया है जहाँ वह लोगों को बेवक़ूफ़ बनाकर उनसे धन अर्जित करते है और स्वयं आलिशान आश्रम बनवाकर रहते हैं और अय्याशी करते हैं।
‘हिसाब-किताब’ इस संग्रह की अंतिम लघुकथा है और किसान पर आधारित इकलौती लघुकथा है।
किसान के लिए उसकी फ़सल ही सब कुछ होती है। फ़सल अच्छी होने से उसके सपनों के सच होने की आशा से ही वह प्रफुल्लित हो जाता है और वह यह सोचने लग जाता है कि किस तरह से वह अपने सपनों को साकार कर सकेगा। अधिकांश किसान अपने बेटी की शादी अच्छी फ़सल के होने के उपरांत ही करना चाहता है। इस लघुकथा में भी गणेशी जो कि एक किसान है जब फ़सल को अच्छी हुई देखता है तो ख़ुश हो जाता है और अपनी पत्नी के लिए कपड़े-लत्ते लेने की सोचता है, पिछले कमरे की छत डलवाने की सोचता है और अपनी बेटी अनारो के रिश्ते की बात चलाने का मन बना लेता है।
इतने में ही महाजन उसको देख लेता है और उसका रास्ता रोक लेता है और उससे अपना हिसाब चुकता करने हेतु सौ बाते कर देता है।
गणेशी के सपनों पर पानी फिर जाता है और उसको अपने दो क़दम की घर की दूरी भी कोस भर की दूरी प्रतीत होने लगती है।
प्रत्येक संग्रह में कुछ ऐसी लघुकथाएँ होती हैं जिनसे असहमति हो सकती हैं जो स्वाभाविक है इस संग्रह में भी कुछ लघुकथाओं के साथ इस लेख को लिखने वाली लेखक की सहमति नहीं बन पा रही है जिनमें से मुख्यत भूख, रोटी का सपना, संस्कार, पंडित की कथा, यह, नानी का घर, इत्यादि. लघुकथाएँ हैं। असहमति की वजह अलग-अलग है, किसी का कथानक, तो किसी का उद्देश्य, कोई लघुकथा अपना संदेश संप्रेषित करने में सफल नहीं हो पा रही है।
यूँ तो अशोक लव जी की अधिकांश लघुकथाओं में बहुत ही सहज और स्वाभाविक संवाद प्रस्तुत किए गए हैं जो पात्रों के संघर्ष को बहुत ही करीने से संप्रेषित करते हैं परंतु कहीं-कहीं बहुत ही लंबे संवाद प्रेषित किए हैं जो तनिक अस्वाभाविक से प्रतीत होते हैं परंतु सामान्यतः इस लघुकथा संग्रह की लघुकथाएँ अपने-अपने कारणों से बहुत ही प्रभावशाली हुई हैं।
इस संग्रह के लेख के माध्यम से मैं रवि प्रभाकर जी को भी याद करना नहीं भूली हूँ क्योंकि ‘सलाम दिल्ली’ संग्रह को पढ़ने का आग्रह उन्होंने किया था। जब योगराज प्रभाकर जी ने इसका पुनः प्रकाशन करने का निर्णय लिया और पुस्तक जब प्रकाशित होकर आ गई, तबसे इस पुस्तक का बेसब्री से प्रतीक्षा थी। रवि प्रभाकर जैसे व्यकित्व को लघुकथा-जगत् भविष्य में भी याद करता रहेगा। उनके इस संग्रह को पुनः से प्रकाशित करवाने के विचार को अभिनंदन और आपकी पुण्य आत्मा को शत्-शत् नमन!
[लघुकथा कलश जनवरी-जून 2022 से साभार]
-0-कल्पना भट्ट,श्री.द्वारकाधीश मंदिर, चौक बाज़ार, भोपाल.