Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

रूपांतर

$
0
0

जब भी मुश्किल समय आता उसे पिता की सीख याद आती -“बेटा पत्थर की बन जाना; दुनिया में दिल की कोई नहीं समझेगा।” वह धीरे-धीरे पत्थर में बदलती गई।

माँ के वचन कानों में गूँजते रहते- “बेटा बात को जितना बढ़ाओगे, बढ़ जाएगी; जितना समेटोगे, सिमट जाएगी।” बातें सिमटी या नहीं पता नहीं;  लेकिन वह अपने में सिमटती गई।

कुछ जुमले दिन-रात उसकी प्रतीक्षा में रहते।  “क्या तुम दुनिया में अकेली औरत हो, जिसका पति शराब पीता है”, “मर्द नहीं पिएँगे  तो क्या तुम पिओगी।”

“क्या मोम की बनी हो कि एक-दो थप्पड़ से टूट जाओगी।”

“धर्म-कर्म कुछ करती नहीं है; बच्चे तो नास्तिक ही होंगे ॥”

ये जुमलों की बौछारें थीं कि कभी बंद ही नहीं होती।  सीलन -भरा मन प्रेम की धूप की राह देखता कब का बुझ गया।  वह ख़ुद अगरबत्तियों की राख हो गई।  ऐसे मंत्र बन गई,  जिनको कोई न उचारता।  बच्चे ढूँढते,  तो माँ की बजाय पूजा की पुस्तक मिलती। कर्तव्यों की लंबी लिस्ट थी वह।  अधिकार?

मन के दुःख एक ऐसी आरी थे, जो उसे दुनिया से काट रहे थे।  उमंगों पर पतझड़ आया तो फिर कभी बहार न आई।  ऐसा उजाड़ रेगिस्तान जहाँ ख़ुशी की कोई बूँद न थी।  रोज़ उठते बवंडरों से घायल मन की तिश्नगी आँसू से भला क्या बुझती।

एक दिन उसका होना हर कोई भूल गया।  जिस सुहाग को मांग में सिंदूर बनाकर सजाया; उसकी बगल में कई फुलझड़ियाँ सजने लगी।

फिर बारिशें हुई।  जुमलों की बौछारें।  अगरबत्ती की राख का वह क्या करता?  अरे ज़िंदा लोगों को जिंदादिली ही अच्छी लगती है।

क्या थी वह पत्नी, माँ, बहू, बेटी, पत्थर, सिमटी हुई बात, पूजा की किताब, अगरबत्ती की राख, क्या कभी ज़िंदा इंसान थी?

क्या थी वह?

-0-


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles