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भारतीय लघुकथा कोश

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आज़ादी के बाद के इतने वर्षों में भी हमने साहित्य के द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता की अन्तर्धारा को जोड़ने का काम बहुत कम  किया है। हम उस राजनीति के भरोसे बैठे रहे, जो प्राय: तोड़ने का ही काम करती है, जोड़ने का नहीं। अँग्रेज़ी साहित्य को भारतीय भाषाओं में प्रस्तुत करने के लिए जितना धनबल और जनबल लगा है, उसका शतांश भी हमने भारतीय भाषाओं के साहित्य को सूत्रबद्ध करने के लिए नहीं किया। जो संस्थाएँ इस क्षेत्र में उतरी हैं, उनका कार्य भी सीमित ही रहा है। संस्थाओ का व्यक्तिमात्र के हत्थे चढ़ जाना भी इसका कारण हो सकता है। व्यक्ति होकर एक संस्था-कार्य को करना, बहुत बड़ी चुनौती स्वीकार करना है। लघुकथा के क्षेत्र में कथानामा और हिन्दी लघुकथाकोश से होते हुए ‘भारतीय लघुकथाकोश’ का कार्य वतुत:एक जीवट -भरा कार्य है,जिसे बलराम ने पूरा करके लघुकथा-जगत् में एक यज्ञ की शुरूआत की है। लघुकथा के क्षेत्र में कार्यरत अन्य लोगों को भी इससे बल मिलेगा।

‘भारतीय लघुकथाकोश’ का महत्त्व इसलिए और भी निर्विवाद है; क्योंकि अभी तक एक साथ इतनी भारतीय भाषाओं का लघुकथा-साहित्य एक साथ प्रस्तुत नहीं किया जा सका था। प्रथम खण्ड में 8 भारतीय भाषाओं के 51 लेखकों की 400 लघुकथाएँ हैं। दूसरे खण्ड में 13 भारतीय भाषाओं के 62 रचनाकारों की 416 लघुकथाएँ हैं। समकालीन लेखकों में एक आश्चर्यजनक साम्य है-चेतना की एकरूप भावधारा। हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं में कहाँ टिकती है, इसका मूल्यांकन भी इन संकलनों से किया जा सकता है।

प्रथम खण्ड में मण्टो, प्रेमचन्द, गुलेरी ,सुदर्शन, जयशंकर प्रसाद आदि साहित्यकारों की रचनाएँ भी  सँजोई गई हैं। मण्टो ने लघुकथा को पैनापन दिया। थोथी सैद्धान्तिकता और जीवन के क्रूर दोगलेपन पर कटाक्ष करने में मण्टो का कोई सानी नहीं। मुनासिब कार्रवाई में मरे हुए सिद्धान्तों से चिपटे रहने वाले ढोंगियों की ख़बर ली है। धर्म आचरण का अंग नहीं रहा। इसी के कारण क्रूरता और विवेकहीनता बढ़ी है। प्रेमचंद ने राष्ट्रसेवक में कथनी और करनी के दोहरे मापदण्ड पर कटाक्ष किया है। यह स्थिति आज भी वैसी है, दुमुँहेपन और  दोगलेपन  से भरी।

बकरी ( वि स खाण्डेकर)  में अवसरवादी वृत्ति एवं दूसरों को अपने स्वार्थपूर्त्ति का साधन बनाने वाली शक्तियों को बकरी के माध्यम से चित्रित किया गया है। वस्तुत: बकरी तो वे हैं, जो गड्ढों को अपने तन से पाटकर दूसरों के लिए रास्ता बना देते हैं। आपकी कृपा है (विष्णु प्रभाकर)  में लेखक ने बल दिया है कि ईश्वर-भक्ति में भाव का महत्त्व  निर्विवाद है। सम्मान ( धर्मपाल साहिल-पंजाबी) में  लेखक की साहित्य-जगत् में ऐसे लोगों के हस्तक्षेप पर चिन्ता मुखर हो उठी है, जो साहित्यकार को साधारण व्यक्ति की तरह भी नहीं जीने देते, वरन् उसके सम्मान को छीनने का काम ही अधिक करते हैं।

साभार (कुमार नरेन्द्र) में सम्पादक की समझ पर प्रश्न चिह्न लगाया गया है। नए लेखकों को इस तरह की उपेक्षा का शिकार होना ही पड़ता है। उपयोगिता (पवन शर्मा) में बेरोज़गारी की स्थिति से उबरने के लिए बेटी के नौकरी करने की अपमानजनक परिस्थिति भी खून का घूँट पीकर सहनी पड़ती है।

            दादा जी (सुकेश साहनी) में बूढ़े व्यक्ति को परिवार में आर्थिक निर्भरता के कारण अपमानजनक स्थिति में रहना पड़ता है। छोटे बच्चे राहुल तक में माँ के गलत चिन्तन से अनायास उपेक्षा-भाव जाग्रत हो उठता है। ढहते हुए ये सम्बन्ध परिवार के लिए ख़तरे का संकेत हैं।

जनता के लिए साहित्यकार की सही लड़ाई( सुरेन्द्र सुकुमार) एक भ्रामक विचार है। जो स्वयं अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ सकता , वह जनहित के लिए क्या संघर्ष करेगा! रावण दहन( सूर्यकान्त नागर) में बालक के सहज  प्रश्न ने नेता और रावण के चरित्र- साम्य के कारण समानधर्मा समझ लिया है। अवमूल्यन के इस युग में नेताओं की स्थिति किसी रावण से कम नहीं है। अजनबी( प्रेम जनमेजय) में पुलिस एवं प्रशासन की क्रूरता एवं खानापूर्त्ति  पर कटाक्ष है। मोहभंग( कृष्ण शंकर भटनागर) में लेखक ने पुरुष की भोगलिप्सा व स्वार्थपरता को बेनक़ाब किया है। पुरुष के लिए पत्नी एक इंसान नहीं, वरन उपभोग की क्षुद्र सामग्री मात्र है। इस कपट को पुरुष, प्रेम की आड़ में छुपाने का असफल प्रयास करता है।

भूख और क्रोध( मालती महाबर) एक सफल पारिवारिक कथा है। टकराव के कारणों की पड़ताल और समबन्धों की आन्तरिक बुनावट को स्वाभाविक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ऐसा भी में नारी यौन शोषण के बदनुमा चेहरों को बेनक़ाब किया गया है। वीरता( असगर वज़ाहत) में वफ़ादारी के नाम पर क्रूर क्रीड़ा करने वालों  के विरुद्ध उत्पन्न जागरण की एक सीधी-सादी कथा है। बीच बाज़ार( रमेश बतरा) में दोहरी मानसिकता और थोथे आदर्शों पर चोट की है। अभावग्रस्त जीवन में यह मानसिकता, जितनी शीघ्रता से बद्धमूल होती है, उतनी ही तेज़ी  से भरभराकर ढह भी जाती है।

मूर्त्ति की जगह(डॉ बालेन्दु शेखर तिवारी) साहित्यकार की उपेक्षा पर तीखा व्यंग्य है। साहित्यकारों के सम्मान हेतु तरह -तरह के अनावश्यक कार्य किए जाते हैं; लेकिन उसकी सुख-सुविधा पर ध्यान नहीं दिया जाता है। मौली के तार(शान्ति मेहरोत्रा) में लेखिका ने बहन के उदात्त चरित्र को विभिन्न दृष्टियों से आकलन करने वाली प्रवृत्तियों को सहजता से प्रस्तुत किया है। चौथे युवक का चिन्तन रिश्तों की ओट में छिपी रुग्णता को उघाड़ता है।

सिद्धि ( बलराम) में ऐसे साहित्यकारों पर व्यंग्य किया है, जिनकी प्रतिबद्धता लेखन  से न होकर आधारहीन सिद्धान्तों व पदों की उठापटक से है। अपने लोग( बलराम) में आसपास घिरे रहने वाले तथाकथित अन्तरंग मित्रों के चेहरे अनावृत्त किए हैं। पड़ोसी किराएदार का क़द अन्तरंग मित्रों की तुलना में बहुत बड़ा हो गया है। अन्तरंग मित्र बरसों-बरस तक भ्रम के एक वृत्त द्वारा हमारी चेतना को घेरे रहते हैं।

बिल्ली और बुखार (माखनलाल चतुर्वेदी), गूदड़ साईं (जयशंकर प्रसाद) एवं बड़ाई ( सुदर्शन) लघुकथाएँ , लघुकथा की परम्परा को और अधिक तेजस्विता प्रदान करती है।

दूसरे खण्ड में अधिकतम लघूकथाएँ ऐसी हैं, जिन्हें विश्व स्तर की श्रेष्ठ लघुकथाओं में बरबस रखना पड़ेगा। ताल(जोगेन्द्र पाल सिंह-उर्दू) में वेश्या के स्वरूप के ऊपर माँ की ममता छा गई है। पत्थर लोग( हमदर्द वीर ‘नौशहरवी’: पंजाबी) में नारी के प्रति पुरुष की अमानुषिक सोच को रेखांकित किया गया है।  दुलारी की बलात्कृत लाश भी कुण्ठित वासना से नहीं बच  पा रही है। नारी के प्रति नारी  का यह वहशीपन कब बदलेगा!  भीग रहा आदमी में पिता अपने कर्त्तव्य का पूर्ण निर्वाह करके भी  बेटों के बीच उपेक्षित  एवं एकाकी जीवन जी रहा है। झूठा-सच्चा (सुलक्खन मीत-पंजाबी)में  प्रेम की ताज़गी को बेहतर  ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

रोटी का तुकड़ा( भूपिन्दर सिंह-पंजाबी) छुआछूत की  संकीर्ण भावना पर व्यंग्य है। विवशता में प्रेम के गहन मन्थन की व्याकुलता चित्रित है। अभागन ( कीर्ति कुमार पण्ड्या-गुजराती) में निर्झरी देवी के  अभिशप्त एवं  एकाकी  जीवन की करुण कथा  समाविष्ट है।

पहचान( चित्रा मुद्गल)  में बेईमान समझे जाने की व्यथा मन को मथ देती है। टिकट और पर्स चोरी हो जाने पर टिकट चेकर  विश्वास नहीं करता, न ही आसपास जुटे लोग। अपमान और क्षोभ  गहराई से चित्रित किए  गए हैं। वैष्णव ( राजकमल चौधरी-मैथिली) में श्रीमन्त बाबू की युवा पुत्रवधू कमल पुर वाली  का विद्रोह उन्हें नंगा कर देता है। जुम्मन कसाई गाय को पल -दो पल दु:ख देता है। ससुर श्रीमन्त तो पिछले चार साल से उसकी अन्तरात्मा  के गले पर छुरी  फेर रहे हैं। यह लघुकथा यौन शोषण के विरुद्ध दबी-कुचली युवती की आवाज़ बुलन्द करती है। देववाणी( पुनत्तिल कुंजब्दुल्ला-मलयालम) में जड़ों से उखड़ी युवा पीढ़ी के भटकाव को रेखांकित किया है, जो अधिक सभ्य बनने के चक्कर में अपने वास्तविक जीवन से कहीं दूर  भटककर जा गिरी है।

सुधार (गुरजाड अप्पाराव-तेलुगु)  लघुकथा पति-पत्नी के कोमल सम्बन्धों को भटकाव से रोकने की सफल प्रस्तुति है। जेबकतरा (ज्ञानप्रकाशन विवेक) में जेबकतरे की मानवीयता का आदर्श प्रस्तुत किया गया है, तो खबर जो छप न सकी में हमिदा और निर्मला एक दूसरे के भाइयों की खैर -कुशलता के लिए अधिक चिन्तित हैं। यही एक ऐसा सूत्र है, जो साम्प्रदायिकता के विषदन्ती से बचा सकता है यही सद्भाव बनाए रखने का कारण है।

ऐलान -ए-बग़ावत( मधुदीप) में दम्पती का भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए निम्न स्तर पर किया गया एक छोटा-सा प्रयास है। बबूल ( जगदीश कश्यप) मँजी हुई लघुकथा है। बिम्मो के श्रद्धापूर्वक जुड़े हुए हाथ, छोटे बाबू के टूटते विश्वास को बचा लेते हैं। शकुन्तला किरण की लघुकथाएँ हमारे तथाकथित सफ़ेदपोश समाज का पर्दाफ़ाश करती हैं। रूपरेखा में प्रोफ़ेसर की वासना-दृष्टि पर तीव्र प्रहार किया गया है। कैरियर में भी प्रोफ़ेसर की क्लुषित  मानसिकता का पर्दाफ़ाश किया गया है। तार लघुकथा में प्रेम-सम्बन्धों की गहराई का कारुणिक महाकाव्य है।

दिल की बात (शोक भाटिया) की एक सफल मनोवैज्ञानिक लघुकथा है। मानवीय संवेदना के बिखरे सूत्रों को मानसिक स्तर पर प्रभावशाली ढंग से जोड़ा है। लेखक के चिन्तन का सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टिगोचर होता है। व्यथा कथा निम्नवर्गीय,अभावग्रस्त समाज के जीवन्की व्यथा को तीखेपन से उजागर करती है। विश्वास ( डॉ सतीशराज पुष्करणा)  पति-पत्नी के आधारभूत जीवन -सत्य विश्वास का महत्त्व प्रतिपादित करती है।

हमारी मानसिकता इस  कदर स्वार्थलिप्त  एवं पंगु हो चुकी है कि निःस्वार्थ जैसी स्थिति दम तोड़ चुकी है। काम ( महेश दर्पण) एक बालक की ग़लत सोच के माध्यम से पूरे समाज के स्वार्थपूर्ण भटकाव की ओर इंगित करती है।

प्रतिमा श्रीवास्तव की लघुकथाएँ विषय एवं प्रस्तुति , दोनों ही दृष्टि से  आश्वस्त करती हैं। पराया दर्द में सुप्रीता जब अपनी विवशता को नौकरानी धन्नो की  विवशता से जोड़कर देखती है, तो बहुत हल्कापन महसूस करती है। इस तरह की सकारात्मकता से युक्त लघुकथाएँ निर्विवाद रूप से अपना महत्त्व स्थापित करने के साथ-साथ लघुकथा की गरिमा भी बढ़ाएँगी। कंगन में नैन्सी और बीना का दायित्वबोध पारिवारिक आवश्यकताओं को प्राथमिकता देकर सन्तुष्ट हैं। मिथ्या ( नरेन्द्रनाथ लाहा) पर्तों में दबी मजबूरी को उकेरने में सक्षम है।

भारतीय लघुकथा कोश का वह ऐतिहासिक कार्य विभिन्न भाषाओं के बीच हिन्दी लघुकथा के विकासक्रम और उसकी तेजस्विता को रेखांकित करता है। साहित्यिक बखेड़ों से दूर हटकर भी कितना बड़ा सकारात्मक कार्य किया जा सकता है। लघुकथाकार बलराम से प्रेरणा लेकर कार्य करें, तो इस विधा का बड़ा हित होगा।

भारतीय लघुकथा कोश(1): पृष्ठ:352; मूल्य: 150 रुपये, संस्करण:1990  

भारतीय लघुकथा कोश(2): पृष्ठ:368; मूल्य: 150 रुपये, संस्करण:1990; दोनों के प्रकाशक: दिनमान प्रकाशन,3014, बल्लीमारान, दिल्ली-110006

बरेली  कैण्ट (12-04-1990)


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