गढ़वाली अनुवादः डॉ. कविता भट्ट
भितर बिटि जोर-जोर करि हैंसणै आवाजै गुंजणि छै, हैंसण कि दगड़ चाय-पकोड़ों क खुसबू बि औणि छै; जब एक घैक, मीनती अर करीब अधेड़ उमरै कि जननि लम्बू इंटरव्यू दीक ए-सी वळा कमरा बिटिक भैर निकळी।
उखिम भैर बैठिं एक ज्वान नौनी न पूछि, ‘ क्य नौं च त्यारू? “
डिग्रि अर किताबियों कु गरू बैग सँभाळदु भैर निकलण वाळि जननी न बोली, ‘सिक्षा।’
भैर बैठिं बणी-ठणी-सी ज्वान नौनी न बोली, ‘मि व्यवस्था छौं; इक्खि नौकरी पाण चाणू छौं। त्वी मु त इतगा कुछ च। मी मु त बस एक फोल्डर म द्वी-चार कागज इ छन। देखदु छौं ये इंटरव्यू तैं दि आन्दु।’
पूरा आत्मविस्वास अर आँखियों म चमक ल्हेक वह भीतर ग्याई।
वा द्वी चार मिनट माँ ई भैर ऐ ग्याई।
द्वी घौरौ थैं निकलण लगी गेन, त व्यवस्था न बोली, ‘ सूँण मि बज़ार म इ रैंदु अर तु? “
सिक्षा बोली, ‘मंदिर क नजीक।’
व्यवस्था अपड़ी मैंगी कार म बैठण लगी, त सिक्षा न तरसी आंख्यों न देखि। आँखौं नचैक व्यवस्था न बोली, ‘औ त्वै थैं बि तेरा घौर छोड़ीक निकली जौलु।’
सिक्षा न बोली, ‘सॉरी भुली, आदत नी च मैंगी कारै की। पैदल इ चली जौलु।’
व्यवस्था सर्र करिक कार माँ निकळि गे। सिक्षा थैं भौत देर बाद ऑटो मिली। भौत हिली डुली क वा घौर पौंछि।
रातू थैं सिक्षा न मुबैल खोलि; पदु पर भर्ती की लिस्ट शिक्षण संस्थानै कि वेबसाइट पर डलै गे छै। व्यवस्था कु नौं सबसे पैलि छौ।
सिक्षा न द्वी तीन बार चेक करी। वीं थैं अपड़ी आँखों पर विश्वास नी होणु छौ; किलैकि पूरू जीवन पढ़दु-लिखदु खपै यालि छौ वीं न, मगर नौकरी की लिस्ट म वीं कु नौं कखि नि छौ। वा चुपचाप पुराणी खाट पर बैठ गे। थोड़ी देर उल्टा पोड़ी गे अर जोर-जोर करिक रूणी रै।
सिक्षा भितर बिटि टूटी गे छै; लेकिन थोड़ी देर म वीं न उठिक ठंडा पाणी न मुक ध्वे अर कॉफी-पेन लीक दुबरा तैयारी कन्न लगी गे।
-0-