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कुछ भीगा, तो समझो कुछ रचा गया

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लघुकथा.काम का मार्च 24 अन्य अंकों के समान महत्त्वपूर्ण है।

देश के अंतर्गत चयनित सभी रचनाकारों की कथाएँ प्रभावी हैं।

मेरी पसंद के अंतर्गत डॉ . रत्ना वर्मा जी ने डॉ . सुधा गुप्ता की ‘कन्फेशन’ एवं सुभाष नीरव की कथा ‘कबाड़’ प्रस्तुत की है। दोनों कथाएँ मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती है। इन कथाओं पर उनकी टिप्पणी प्रभावशाली है।

अंजु खरबन्दा जी ने लघुकथा के विविध आयाम कथ्य एवं शिल्प पुस्तक पर अपनी त्वरित,टिप्पणी की है। यह पुस्तक न सिर्फ पठनीय है लघुकथा लेखकों को लघुकथा सीखने, समझने के लिए पथ प्रदर्शक है।

दस्तावेज के अंतर्गत सुभाष नीरव जी की महत्वपूर्ण टिप्पणी है।

ऑडियो के अंतर्गत हरभगवान चावला जी की कथा ‘थाप’ जीवन के कठोर धरातल पर यथार्थ को उकेरती उद्देश्यपूर्ण रचना है।

संचयन के अंतर्गत सविता पांडे जी की ‘छवियाँ ऐसे भी बनती हैं…’ विचारणीय, ‘लाख टाकार झूली’ संवेदनशील एवं ‘विस्थापन के स्वर’ अंतस् से निकली कथाएँ हैं।

अध्ययन कक्ष के अंतर्गत आदरणीय रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी का लेख “लघुकथा लेखन और रचनात्मकता” लघुकथा लेखन हेतु मार्गदर्शक है। कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

सीखना और निरन्तर परिमार्जन करना, एक दिन का काम नही; बल्कि निरन्तर स्वाध्याय की परिणति है।

‘सुना, देखा, लिख दिया- रचना की नियति नहीं। क्या जो देखा वही सच है या उससे परे भी कुछ है, क्या लिखा? क्यों लिखा? किसके लिए लिखा? यह सुनिश्चित हो सका या नहीं? रचना में प्राणों का संचार हुआ या नहीं? लिखने के बाद यदि लगा कि अन्तस् को विश्रान्ति मिली, भीतर कुछ अंकुरित हुआ, कुछ भीगा, तो समझो कुछ रचा गया। यह परिणति ही रचना है।’

एक और महत्त्वपूर्ण बात लिखी है- ‘कुछ लेखक बरसों से लिखते चले आ रहे हैं। अज्ञात मठाधीशों पर बूमरैंग चला रहे हैं; लेकिन आज भी वे कक्षा 5 की हिन्दी से पूरा परिचय नहीं कर सके।’

इतने सुंदर एवं उपयोगी संकलन हेतु संपादक द्वय का हार्दिक आभार।

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