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लघुकथाएँ

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 दिलीप कुमार

1-सत्तर -तीस

बाढ़ का पानी उतरते ही बाढ़ राहत सामग्री बँटने की बारी आ गई। ग्राम सभा बड़ी थी, जिसमें पाँच मजरे थे। तीन मजरों में बाढ़ का  पानी इतना ज्यादा आया था कि वाही -तबाही जैसे हालात हो गए थे।

उन मजरों की घरों की छत तक डूबने की कगार थी पर थी। हँसता -बसता गाँव का वो हिस्सा किसी बियाबान की तरह हो गया था बाढ़ के कहर से।

गाँव के बाकी दो मजरों में पानी तो था मगर घरों की दहलीज पार नहीं कर पाया था ।

 प्रशासन ने छह सौ पैकेट बाढ़ पीड़ितों के  गाँव में भिजवाए थे। पात्र और पीड़ित  चुनने की ज़िम्मेदारी प्रशासन ने तहसीलदार को दी थी।

तहसीलदार ने यह जिम्मेदारी आगे कानूनगो को बढ़ा दी थी। कानूनगो ने ये ज़िम्मेदारी लेखपाल को सौंपकर इतिश्री कर ली थी।

 लेखपाल ने ये जिम्मेदारी घूँघट में रहने वाली महिला ग्राम प्रधान के पति को दी ।

ग्राम प्रधान के पति ने ज़िम्मेदारी को जागीर समझकर निर्णय लिया। उसने गाँव के जिन दो मजरों में पानी नहीं भरा था, उन्ही दो मजरों के निवासियों के नामों से बाढ़ पीडितों की पूरी लिस्ट भर दी ।

बाढ़ के विकराल प्रकोप से बचे दो मजरों से ही पाँच सौ लाभार्थियों का चयन करने के बाद सौ ऐसे अन्य लाभार्थियों का चयन कर लिया गया, जिन्होंने प्रधान को वोट भी नहीं दिया था, मगर उनकी जाति के ही थे । अपनी जाति को लेकर प्रधानपति के मन में विशेष साफ्ट कार्नर था।  बाढ़ पीड़ितों को बाँटने के लिए आया हुआ सामान स्कूल में रखा गया। स्कूल में भी प्रधान पति का सिक्का चलता था ।

सरकारी स्कूल में ‘मिड डे मील’ योजना में हेडमास्टर के साथ ग्राम प्रधान सह खातेदार होता था। बच्चों के खाना बनवाने को आया हुआ सरकारी पैसा और गल्ला आधा प्रधान ही रख लेता था।  खाए -अघाए, पक्के घरों में रहने वाले  और बाढ़ से बचे हुए  लोगों को कटौती करके बाढ़ राहत सामग्री दे दी गई। बाकी तीन मजरों के लोग रोते -गिड़गिड़ाते रह गए मगर उन्हें बाढ़ राहत का कोई भी सामान नहीं मिला ।

क्योंकि प्रधानपति का मानना था कि उन तीन मजरे के लोगों ने उसे वोट नहीं दिया था और वो लोग उसकी जाति के भी नहीं थे।

वह तो उसने पैसा देकर उन तीन मजरों में अपने दो डमी प्रत्याशी चुनाव में उतार दिए थे जिससे उन तीन मजरों का वोट अपनी ही जाति के डमी प्रत्याशियों के बीच बँट गया और प्रधानी का चुनाव उसने जीत लिया। वह अगर यह दाँव न चलता तो वो चुनाव ही न जीत पाता।

बाढ़ पीड़ितों हेतु आयी हुई सामग्री के वितरण के बाद प्रधानपति  और हेडमास्टर ने गणना की। कटौती किए हुए सामान को देखकर सरकारी स्कूल के हेडमास्टर ने कहा –खाना बनाने लायक बहुत सा सामान बच गया है। इससे  तो महीनों स्कूल का खाना बन सकता है।”

प्रधानपति ने मुस्कराते हुए कहा -“हाँ ,हमें स्कूल के लिये मिले राशन को कोटेदार से लेने की जरूरत नहीं है और न ही खाना बनवाने के लिये तेल,दाल और सोयाबीन   वगैरह  की जरूरत है। इसी से दो -तीन महीने बच्चों का खाना बन जाएगा। अब स्कूल का खाना बनवाने का हमारा पैसा भी बचेगा और गल्ला भी ,समझ गए ना आप।”

हेडमास्टर ने सहमति से सिर हिलाया।

प्रधानपति ने कहा -“आप कल चेक बना लाना, हम इस पैसे को एडजस्ट कर लेंगे इसी बाढ़ की कटौती किए गए सामान से। इस बार सत्तर परसेंट मेरा और तीस ही परसेंट आपका रहेगा। इस बार सब सेटिंग और मेहनत मेरी है, तो फिफ्टी-फिफ्टी नहीं बंट सकता।”

अपने कमीशन की कटौती की बात सुनने पर हेडमास्टर के चेहरे पर असमंजस के भाव आए। उसकी असमंजस की मनोदशा को ताड़ते हुए प्रधानपति ने कहर भरी नजरों से हेडमास्टर को देखा। हेडमास्टर ने सोचा गाँव में नौकरी करनी है, तो प्रधानपति से पंगा लेना ‘जल में रहकर मगर से बैर लेना’ वाली बात हो जाएगी ।

उसने फँसे हुए स्वर में सहमति दी और बोला-“ठीक है।”

प्रधानपति ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और चलने को हुआ, तो हेडमास्टर ने कहा –“आप कहाँ जा रहे हैं?”

“मैं जाकर कोटेदार से इस महीने का स्कूल का पूरा राशन रिसीव कर लेता हूँ। आप बाढ़ के बचे हुए सामान से खाना बनवाना।”

प्रधानपति ने कहा और मोटरसाइकिल लहराते हुए चला गया ।

उसके जाने के बाद हेडमास्टर सोच रहा था कि कितने का चेक बनाऊँ और कितना एडजस्ट करूँ तो कितना मुझे मिलेगा?

प्रधानपति  कोटेदार से राशन लाते जाते समय सोच रहा था कि काश यह बाढ़ हर साल आए, तो उसकी आमदनी फिफ्टी -फिफ्टी के बजाय सत्तर –तीस के अनुपात में बढ़ती रहे।

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2-राइज ऑफ पिंक

“कल का फीचर किस पर रहेगा?” -नुसरत ने पूछा ?

“ कल का फीचर औरतों के गहरे  साँवले रंग यानी डार्क काम्प्लेक्सन पर रहेगा।”   यh कहकर वो फेयरनेस क्रीम और अपने चेहरे और गर्दन पर मलने लगी। कपड़ों के अलावा गर्दन और चेहरा भी जब उसका दमकने लगा तब उसने मोबाइल के  कैमरे के फ्रेम में खुद को और नुसरत को लेकर देखा।               

वह तसल्लीबख्श साँस लेते हुए बोली –“तुम्हारे जितनी गोरी न सही, लेकिन दमक तो तुम्हारे जैसी आ ही गई है ना नुसरत”  -यह कहते हुए उसने नुसरत की तरफ देखा ।

“जी हीरोइन, वैसे आपका रंग गोरा नहीं है, तो क्या? आप अच्छी दिखती हैं। आपके फीचर्स काफी शार्प हैं  और आपकी रंगत भी साफ है।” -नुसरत ने उसे हौसला देते हुए कहा ।

“रंगत साफ है न, पर गोरी नहीं। इस देश के मर्द बड़े खराब हैं। कितनी भी शार्प फीचर की औरत हो,  लेकिन गोरी औरत को देखते ही लार टपकाने लगते  हैं। अब हम पैदायशी गोरे न  सही,  लेकिन पैसों के जरिये तो गोरे बन ही सकते हैं।” -यह कहते हुए वह कुटिलता से मुस्कराई।

उसे मुस्कराता देख नुसरत ने भी मुस्कराते हुए  सहमति से सिर हिलाया।

योगिता जी ने नुसरत को इशारा किया। नुसरत ने उठकर केबिन का गेट बंद किया। योगिता जी ने अपनी आलमारी से स्लिम बेल्ट निकाली और नुसरत की मदद से साँस अंदर खींचकर पेट पर कसकर बाँध लिया। फिर केबिन में ही लगे दो -तीन  बड़े से शीशों के सामने अपनी पेट -पीठ को आगे –पीछे निहारा ।

खुद को निहारते हुए उसने  नुसरत से पूछा- “मैं मोटी तो नहीं लग रही हूँ नुसरत? आखिर हो  गई न फैट टू फिट।”

“आप मोटी क्यों लगेंगी, जब आप मोटी हैं ही नहीं। आप सिर्फ हेल्दी हैं,  तो शेप बदलने की जरूरत क्या है ?” नुसरत ने हैरानी से पूछा ?

“मोटी हो या न हो, आजकल तो हेल्दी होना भी औरतों के लिए अच्छा नहीं माना जाता। इस देश के मर्द हर औरत को न जाने क्यों दुबली देखना चाहते हैं? उन्हीं के हिसाब से दुबला दिखे, तो बेहतर है ।” उनके तर्कों को सुनकर नुसरत ने सहमति से सिर हिलाया।

योगिता जी ने अपने जूते उतार दिए और टेबल के पीछे से कहीं हाई हील वाली सैंडिल निकाल लाईं।

वह नुसरत की तरफ देखकर हँसते हुए बोली- “नुसरत मैंने पेट में फैट वाला बेल्ट बाँध लिया है। तुम देख ही रही हो। अब मुझसे झुका नहीं जाता। तुम ये सैंडिल मुझे ठीक से पहनवा दो। मुझे झुककर एडजस्ट करने में दिक्कत होती है। आओ तो जरा जल्दी करो।”

नुसरत ने योगिता जी की हाई हील सैंडिल को झुककर दुरुस्त किया।

नुसरत ने फिर सहज जिज्ञासा प्रकट की, “आपका कद तो ठीक -ठाक है। शायद पाँच फीट तीन इंच। फिर हाई हील की आपको  क्या जरूरत है?”

“तू कुछ नहीं समझती नुसरत। अब इस देश मे हाई सोसायटी में औरतों का कद पाँच फीट से कम नहीं दिखना चाहिए। सारे मर्द टाल वूमेन को ही अटेंशन देते  हैं। तुम समझी ना।”

बाईस वर्षीय गोरी -लंबी और छरहरी नुसरत  अड़तालीस वर्षीया योगिता जी का लॉजिक  समझ नहीं सकी ।

योगिता जी ने इशारे से नुसरत को अपने पास बुलाया। नुसरत ने समझा योगिता जी उसे कुछ समझाना चाहती हैं। वह उनके पास जाकर खड़ी हो गई। आफिस के आदमकद शीशों में योगिता जी ने नुसरत को अपनी बगल  में खड़ा करके  ऊपर से नीचे तक खूब निहारा। उन्होंने अपनी पिंक कलर की ड्रेस में खुद को देखा। उससे खुद की तुलना की। सन्तुष्ट होने पर उन्होंने मोबाइल से अपनी  एक सेल्फी ली ।

नुसरत अब समझ गई कि योगिता जी ने उसे अपने पास बुलाकर शीशे में क्या देखा था ?

योगिता जी पूछा –“फीचर तो कल बाद में आएगा, पहले ये बताओ कि आज के सेमिनार की थीम क्या है?  फिर से रिमाइंड कराओ।”

“जी राइज आफ पिंक  आज की थीम है। आज आपको स्त्रियों के साँवलेपन, छोटे कद और मोटी होने पर उनको जो परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं, उन रूढ़ियों और मान्यताओं के खिलाफ बोलना है”- नुसरत ने उनके चेहरे को पढ़ते हुए कहा ।

“हाँ ,इस देश के मर्द ऐसे हैं ही ऐसे। औरतों को लेकर , ये कहते हुए वह केबिन से बाहर चली गई।

योगिता जी एक एक अखबार में सीनियर पद पर कार्यरत थीं और स्त्री सशक्तीकरण संबंधित उनके लेखों ने उन्हें काफी ख्याति दिलायी थी।

नुसरत उनकी इंटर्न थी , जो उनके विचारों से प्रभावित होकर उनसे काम सीखने आई थी और उनके जैसा बनना चाहती थी; लेकिन उनका ये रूप देखकर उसके माथे पर बल पड़ गए थे ।

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3-आपदा में…

वह एक बड़े अखबार में काम करता था। लेकिन रहता छोटे से कस्बेनुमा शहर में था। कहने को पत्रकार था मगर बिल्कुल वन मैन शो था।

इश्तहार, खबर , वितरण, कम्पोजिंग सब कुछ उसका ही काम था। एक छोटे से शहर तुलसीपुर में वो रहता था।  लगभग साल भर के कोरोना संकट से जयंत की नौकरी बिल्कुल बेरोजगारी के ही बराबर  हो गई थी।

घर में बूढ़े माँ -बाप,  स्कूल जाती दो बच्चियाँ और एक स्थायी बीमार पत्नी थी। वह खबरें बनाकर अपने अखबार को लखनऊ भेज दिया करता था। इस उम्मीद में देर -सबेर शायद हालात सुधरें तब भुगतान शुरू हो।

लेकिन खबरें अब थी ही कहाँ ?

दो ही जगहों से खबरें मिलती थीं या तो अस्पताल में या फिर श्मशान में।

श्मशान और कब्रिस्तान में चार जोड़ी कंधों की जरूरत पड़ती थी, लेकिन बीमारी ने ऐसी हवा चलाई कि कंधा देने वालों के लाले पड़ गए।

हस्पताल से जो भी लाश आती, अंत्येष्टि स्थल के गेट पर छोड़कर लोग भाग जाते थे।

जिनके परिवार में अबोध बच्चे और बूढ़े होते उनका लाश को उठाकर चिता तक ले जाना खासा मुश्किल हो जाता था ।

कभी श्मशान घाट पर चोरों -जुआरियों की भीड़ रहा करती थी, लेकिन बीमारी के संक्रमण के डर से मरघट पर मरघट जैसा सन्नाटा व्याप्त रहता था ।

जयंत किसी खबर की तलाश में हस्पताल गया। वहाँ से गेटमैन ने अंदर नहीं जाने दिया। उसने बताया कि पाँच- छह हिंदुओं का निधन हो गया है और उनकी मृत देह श्मशान भेज दी गई है ।

जयंत को खबर तो जुटानी ही थी; क्योंकि खबर जुटने से ही घर में  रोटियाँ जुटने के आसार थे। सो वह श्मशान घाट पहुँच गया।

  वह श्मशान पहुँच तो गया, मगर वो वहाँ खबर जैसा कुछ नहीं था। जिसके परिवार के सदस्य गुजर गए थे। लाशों के पास वही इक्का- दुक्का लोग थे।

उससे किसी ने पूछा- “बाबूजी आप कितना लेंगे?”

उसे कुछ समझ में नहीं आया। कुछ समझ में न आए तो चुप रहना ही बेहतर होता है ।

जीवन में यह सीख उसे बहुत पहले मिल गई थी ।

सामने वाले वृद्ध ने उसके हाथ में सौ -सौ के नोट थमाते हुए कहा –“मेरे पास सिर्फ चार सौ ही हैं बाबूजी। सौ रुपये छोड़ दीजिए। बड़ी मेहरबानी होगी। बाकी दो लोग भी चार -चार सौ में ही मान गए हैं। वैसे तो मैं अकेले ही खींच ले जाता लाश को,  मगर दुनिया का दस्तूर है बाबूजी सो चार कंधों की रस्म मरने वाले के साथ निभानी पड़ती है। चलिए ना बाबूजी प्लीज।”

जयंत कुछ बोल पाता, तब तक दो और लोग आ गए। उन्होंने उसका हाथ पकड़ा और अपने साथ लेकर चल दिये।

उन सभी ने अर्थी को कंधा दिया। थोड़ी देर बाद शव चिता पर जलने लगा।

चिता जलते ही दोनों आदमियों ने जयंत को अपने पीछे आने का इशारा किया। जयंत जिस तरह पिछली बार उनके पीछे चल पड़ा था,उसी तरह यंत्रवत फिर उनके पीछे चलने लगा। वे लोग सड़क पर आ गए।वहीं एक पत्थर की बेंच पर वे दोनों बैठ गए। उनकी देखा -देखी जयंत भी बैठ गया ।

जयंत को चुपचाप देखते हुए उनमें से एक ने कहा -“कल फिर आना बाबू ,कल भी कुछ ना कुछ जुगाड़ हो ही जाएगा ।”

जयंत चुप ही रहा।

दूसरा बोला – “हम जानते हैं इस काम में आपकी तौहीन है। हम ये भी जानते हैं कि आप पत्रकार हैं। हम दोनों आपसे हाथ जोड़ते हैं कि ये खबर अपने अखबार में मत छापिएगा। नहीं तो हमारी ये आमदनी भी जाती रहेगी। माना ये बात बहुत बुरी है,  मगर इस वक्त यही हमारी आखिरी रोजी है। यह भी बंद हो गई, तो हमारे परिवार भूख से मरकर इसी श्मशान में आ जाएँगे। श्मशान कोई नहीं आना चाहता बाबूजी। सब जीना चाहते हैं, पर सबको जीना बदा हो तब ना। ”

जयंत चुप ही रहा। वह कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या उसने कर दिया ? उसके साथ क्या हो गया ?

दूसरा व्यक्ति धीरे से बोला -“हम पर रहम  कीजिएगा बाबूजी। खबर मत छापिएगा। आप अपना वादा निभाइए। हम अपना वादा निभाएँगे। जो भी मिलेगा, उसमें से सौ रुपये देते रहेंगे आपको फी आदमी के हिसाब से ।”

जयंत ने नजर उठाई। उन दोनों का जयंत से नजरें मिलाने का  साहस न हुआ ।

नजरें नीची किए हुए ही उन दोनों ने कहा -“अब आज कोई नहीं आएगा। पता है हमको। चलते हैं साहब। राम -राम।”

ये कहकर वो दोनों चले गए। थोड़ी देर तक घाट पर मतिशून्य बैठे रहने के बाद,  जयंत भी शहर की ओर चल पड़ा।

शहर की दीवारों पर जगह -जगह इश्तिहार झिलमिला रहे थे और उन इश्तहारों को देखकर उसे कानों में एक ही बात गूँज रही थी -‘आपदा में…’।

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4-ब्रांड न्यू

उसने दिहाड़ी के मजदूर रखे थे। कुल जमा तीन थे। एक रेकी करता था और दो काम करते थे। इसके एवज में शाम को तीनों को दिहाड़ी मिला करती थी। शाम को कलेक्शन जमा होता था। नग गिने जाते थे। साबुत पीस आगे भेजे जाते थे। उन्हें धुलकर,प्रेस करके फिर उन पर नई मोहर लगती थी और फिर आगे भेजे जाते थे ।

पहले ने उसे फोन किया –“साहब, दो नग साबुत हैं ।किसी को भेजकर  निकलवा लो। एक दम कड़क है। किसी की नजर नहीं पड़ी।”

“ठीक है ,तुम वहीं रहो, जिस तरह बीमारी फैली है ,दो -तीन तो और वहाँ पहुँच ही जाएँगे। दूसरे को भेज रहा हूँ ”  उसने आश्वासन दिया।

“दूसरे को मत भेजो, साहब। उसे यहाँ सब पहचान गए हैं कुछ- कुछ। बवाल हो सकता है। हम सब पकड़े भी जा सकते हैं। तीसरे वाले को भेज दीजिए ”-उधर से आवाज आई।

“तीसरा, दूसरी साइट पर गया है। वहाँ चार -पाँच आने की उम्मीद है”-यह बताते हुए पूछने वाले की शंका का निवारण किया गया।

“तो मैं अब क्या करूँ”- पहले वाले ने पूछा?

“तुम निकलो वहाँ से ,दूसरी जगह जाकर रेकी करो और फिर शाम को लॉन्ड्री  चले जाना। सारे साबुत पीस ले आना देखभालकर और हाँ कुछ पीस पर मोहर लगी रह जाती है। उसे लौटा देना और कहना कि ठीक से पेट्रोल से धोकर दें” -साहब ने हुक्म दिया।

“तो  वहाँ वाला काम कैसे होगा? कौन करेगा? और… मुझे और कोई काम तो नहीं है?” -पहले वाले ने पूछा।

“वहाँ का काम मैं करूँगा। वैसे भी मुझे कोई पहचानता नहीं है उस जगह। सो काम आसानी से हो जाने की उम्मीद है और एक बात याद रखना-लौटते वक्त नेशनल वाले की दुकान से नई  मोहर ले आना। जब माल बुर्राक हो, तो मोहर भी तो उस पर एकदम नई लगनी चाहिए। कल सुबह जितने पीस मोहर लगकर बिक्री लायक रेडी हो जाएँ उन्हें लाल साहब की दुकान पर पहुँचा देना” – नए निर्देश जारी करते हुए वह बोला।

“साहब, अगर आज हिसाब हो जाता, तो चार पैसे मिल जाते। कई दिनों की मजदूरी बकाया है। घर चलाना मुश्किल हो रहा है। हम दिहाड़ी मजदूर हैं साहब। हमको हिसाब टाइम से दे दिया करें ” -पहला वाला गिड़गिड़ाया ।

“सबको हिसाब टाइम से चाहिए ,लेकिन मुझे भी आगे से हिसाब मिलना चाहिए ना। आज मैं खुद लाल साहब की दुकान पर जाऊँगा। हिसाब हो जाएगा तो तुम तीनों की मजदूरी दे दूँगा और लॉन्ड्री का भी हिसाब कर दूँगा”- एक और आश्वासन दिया गया।

 “जी साहब, जैसा हुक्म आपका” फोन पर यह जवाब देने के बाद पहला वाला दूसरी साइट पर चल पड़ा। उधर साहब  मोबाइल रखने के बाद पहले वाले की साइट पर चल पड़े।

साहब  के तीनों मजदूर अंत्येष्टि स्थल से कफ़न चुराते थे। साहब उन्हें लॉन्ड्री में धुलवाकर, पुरानी मोहर मिटवा देते थे। फिर उसी कफ़न पर नई मोहर लगाकर उसी दुकानदार को बेच देते थे। दुकानदार पुराने कफ़न को एकदम  ‘ब्रांड न्यू’ बताकर किसी नए शव के लिए बेच देता था। ये खरीद -फरोख्त ज़िंदगी के साथ भी थी और ज़िंदगी के बाद भी।

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5-वाचमैन

 उस बहुमंजिला इमारत में बहुत सी कम्पनियों के ऑफिस थे। मंदी आयी तो धीरे -धीरे करीब सारी कम्पनियों के ऑफिस बंद हो गए।  एक्स और वाई  दोनों अलग -अलग ऑफिसों में काम किया करते थे।

उनकी पुरानी दोस्ती थी और यह भी इत्तफाक  ही था कि एक ही बिल्डिंग में उनका ऑफिस भी था। दोनों नौकरीयाफ्ता थे। मंदी में उनकी नौकरी चली गई थी। वो दोनों जिस  बिल्डिंग के ऑफिस में नौकरी करते थे , उसी  बिल्डिंग के  आफिस में एक डिपार्टमेंटल स्टोर भी था, जिसमें रोजमर्रा की  जरूरतों के अलावा खाने -पीने का भी सामान मिलता  था।

उसी बिल्डिंग में जेड वाचमैन था,जो विगत कई वर्षों से उन्हें सलाम किया करता था। अपने अच्छे दिनों में एक्स और वाई उसे चाय,सिगरेट आदि भी पूछ लिया करते थे।

लेकिन मंदी ने सारे खेल बदल दिए और किसी को भी कहीं का नहीं छोड़ा। घर चलाने में जब एक्स और वाई के पसीने छूट गए तो उन दोनों ने चोरी का फैसला किया ।

उन्होंने पहले रेकी की, फिर तजबीज की और जब मुतमईन हो गए कि जेड  इस वक्त अफीम वाली सिगरेट पीकर  नशे में करीब -करीब नीम बेहोशी की हालत में होगा। तो उन्होंने खुद के हालात पर  शर्मिंदा होने के बावजूद चोरी को अंजाम दिया।

चोरी करके वो बिल्डिंग के सबसे महफ़ूज दरवाजे से निकलने ही वाले थे, जिसे उस बिल्डिंग का गालिबन ‘चोर दरवाजा’ दरवाजा भी कहा जाता था।

वो दोनों चोरी किए हुए सामानों से लदे -फदे थे, तभी अचानक उनके सामने जेड अचानक आ खड़ा हुआ ।

सभी ने एक -दूसरे को हैरत से देखा। सबको अपने -अपने किरदार याद आए और अब सबकी कहानी एक दूसरे के सामने थी।

जेड की हैरानी देखकर एक्स ने कहा -“हम मजबूर थे  और कोई रास्ता नहीं बचा था ।”

वाई ने कहा -“हमें यह सामान ले जाने दो, हमें पता है तुम्हारी भी हालत बहुत टाइट है। कई महीनों से तुमको भी सेलरी नहीं मिली है और आगे सेलरी मिलेगी भी नहीं। तुम्हें नौकरी से  जवाब इसलिए नहीं दिया गया, क्योंकि तुम सेलरी माँग ही नहीं रहे हो। या फिर ये भी बात हो सकती है कि तुम्हे कहीं और नौकरी मिल न रही हो। इसलिए यहाँ टाइम काट रहे हो। हमें भी तुम्हारी परेशानियों के बारे में मालूम है ।”

जेड ने अनिश्चितता के स्वर में कहा –“ तो उससे क्या ?”

एक्स ने कहा -“तो उससे यह कि ये चोरी हमारी मजबूरी है और तुम भी हमारी तरह मजबूर ही हुए। अब हम तीनों मजबूर ही हुए। हम ये घरेलू जरूरत का सामान तीन हिस्सों में बाँटेंगे। दो हिस्सा हम दो लोगों के घर जाएगा और तीसरा हिस्सा तुम्हारे घर पहुँचा देंगे। हमें पता है तुम हमसे ज्यादा जरूरतमंद हो; इसलिए हमें जाने दो। यह कहकर एक्स ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं।”

बड़ी देर तक एक्स और वाई जेड के चेहरे को देखते रहे। वो उसके मनोभावों को ताड़ने की कोशिश करते रहे ।

उन तीनों के चेहरे पर कई भाव आए -गए; लेकिन कोई किसी के मन की बात पढ़ न सका।

अंत में एक्स और वाई समझ गए कि वैसा नहीं होगा, जैसा होने की  वो उम्मीद कर रहे हैं। हालाँकि जेड ने न तो कुछ कहा था और न ही करने की कोशिश की थी।

हारकर एक्स ने कहा –“ठीक है। हम सामान रख देते हैं। जब तुम हमारी बातें नहीं मान रहे हो, तो अब वही होगा  जो तुम चाहोगे ।” 

वाई ने कहा –“तुमने हमारी बात नहीं मानी। हमने चोरी की और पकड़े गए। अब हम सामान छोड़ कर जा रहे हैं। अब तुम जो चाहो, वह करो। हम जा रहे हैं खाली हाथ; लेकिन चोरी तो हमने की ही और पकड़े भी गए, अब तुम चाहो तो पब्लिक को बुला सकते हो और फिर हमें पुलिस के हवाले कर सकते हो।”

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा कोई कुछ न बोला। तीनों एक दूसरे के मनोभावों को जानने की कोशिश करने लगे ।

जेड ने जब कुछ नहीं किया तो एक्स और वाई  ने उस चोर दरवाजे की तरफ चलने को कदम बढ़ाया, तो जेड बोल पड़ा-“रुकिये साहब, मेरे रहते आपने चोरी की है। भले ही आपने सामान छोड़ दिया; लेकिन यूँ चोरी करके आप मेरे सामने से चले गए, तो जन्म भर मेरी आत्मा मुझे फटकारेगी। अपनी ही नजरों में गिर जाऊँगा। ऐसे नहीं जा सकते आप लोग मेरे सामने से ।”

“तो अब क्या” एक साथ एक्स और वाई ने पूछा ?

जेड ने लम्बी साँस लेते हुए कहा –

“मैं  आप लोगों से मुँह फेर लेता हूँ। मानों मैंने कभी आप लोगों को देखा ही नहीं। आप चले जाएँगे, तो सामान मैं उठा कर स्टोर में वापिस रख दूँगा। समझ लीजिए कि आज यहाँ कुछ हुआ ही नहीं और हम लोगों ने एक -दूसरे को मानो देखा ही नहीं ”यह कहते हुए जेड ने नजरें फिरा लीं।

एक्स और वाई चोर दरवाजे से बाहर निकल आए। उन्होंने पलटकर नहीं देखा,  लेकिन वो जानते थे कि जो आज उन्होंने देखा है वो जीवन भर नहीं भूलेंगे।

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6-अब क्या होगा

 राजधानी में बरस भर से ज्यादा चला खेती -किसानी के नाम वाला आंदोलन खत्म हुआ तो तंबू -कनात उखड़ने लगे। सड़क खुल गई तो आस-पास  गाँव वालों ने चैन की साँस ली। मगर कुछ लोगों की सांस उखड़ने भी लगी थी।  नौ बरस का छोटू और चालीस बरस का लल्लन खासे गमजदा थे ।

कैमरा हर जगह था। माइक को सवाल सबसे पूछने थे। हर बार कहानी नई होनी चाहिये ।ओके हुआ तो माइक ने पूछा -“क्या नाम है तुम्हारा , तुम कहाँ से आये हो ?”

उसने कैमरे और माइक साल भर से बहुत देखे थे। उसे कैमरे से न तो झिझक होती थी और न ही वह  माइक से भयाक्रांत होता था। लेकिन चेहरे की मायूसी को छिपाना बड़े नेताओं की वह  सीख नहीं पाया था ।

उसने आत्मविश्वास से मगर दुखी स्वर में कहा-“छोटू नाम है। पीछे की बस्ती में रहता हूँ।”

माइक ने पूछा -“इस आंदोलन के खत्म हो जाने पर आप कुछ कहना चाहते हैं ?”

“मैं साल भर से यहीं  दिन और रात का खाना खाता था और अपने घर के लिए खाना ले भी जाता था। घर में बाप नहीं है। माँ बीमार पड़ी है  और छोटी बहनें भी हैं। यहीं से ले जाया हुआ  खाना सब खाते थे।  इन लोगों के जाने के बाद अब हम सब कैसे खाएँगे? अब या तो हम भीख माँगेंगे या  हम भूख से मरेंगे”  यह कहकर छोटू फफक -फफककर रोने लगा।

“ओके, नेक्स्ट वन” – कहीं से आवाज आई।

माइक ने किसी और को स्पॉट किया। वह चेहरा भी खासा गमजदा और हताश नजर आ रहा था।

माइक ने उससे पूछा- “क्या नाम है आपका , क्या करते हैं आप ? और इस आंदोलन के ख़त्म होने पर क्या आप भी कुछ कहना चाहते हैं ?”

उस व्यक्ति के चेहरे पर उदासी स्यापा थी मगर फिर भी वह  फँसे स्वर में बोला –“जी लल्लन नाम है हमारा। यूपी  से आए हैं। फेरी का काम करते हैं। साबुन, बुरुश,कंघी और मंजन वगैरह घूम -घूम कर बेचते हैं। दो साल से कोरोना के कारण धंधा नहीं हो पा रहा था। पहले एक वक्त का खाना मुश्किल से खाकर फुटपाथ पर सोते थे ।जब से यह आंदोलन शुरू हुआ हमें दोनों वक्त का नाश्ता -खाना यहीं मिल जाता था  और हम फुटपाथ पर नहीं बल्कि टेंट के अंदर गद्दे पर सोते थे। अब फिर हमको शायद एक ही वक्त का खाना मिले और फुटपाथ पर सोना पड़ेगा इस ठंडी में ” यह कहते -कहते उसकी भी अँखे भर आईं ।

“ओके, नेक्स्ट वन प्लीज़ ” कहीं से आवाज आई।

“नो इट्स इनफ़” -पलटकर जवाब दिया गया ।

“ओके -ओके ” कैमरे ने माइक से कहा ।

“ओके, लेटस गो” माइक ने कैमरे को इशारा किया।

फिर दोनों अपना सामान समेटकर अगले टारगेट के लिए आगे बढ़ गए।

कहीं दूर से किसी ने हाथ हिलाया। छोटू और लल्लन उत्साह  दौड़ते हुए  उधर गए।

जब वो दोनों टेंट से बाहर निकले, तो उनके हाथों में खाने -पीने के ढेर सारे सामान के अलावा पाँच सौ के एक -एक नोट भी थे।

उनके चेहरे पर उल्लास और उत्साह था। उन्होंने एक दूसरे को देखा और अचानक दोनों के चेहरे से उत्साह गायब हो गया। उनकी आँखें मानों एक दूसरे से सवाल कर रही हों कि इसके बाद “अब क्या होगा ?”

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