[आकारगत लघुता, लघुकथा की पहचान है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि लघु होने के कारण लेखकों ने इसे आसान विधा समझ लिया। इस आपाधापी में एक ऐसा वर्ग शामिल हो गया, जिसके पास न भाव-विचार-कथ्य है, न कामचलाऊ भाषा। इस भीड़ में पीछे रह जाने के डर से वे रचनाकार भी शामिल हो गए, जिन्हें नए रचनाकारों का मार्गदर्शन करना था। इसका दुष्परिणाम देखने में आ रहा है-कुछ घिसे-पिटे संवाद लिखकर उसे लघुकथा मनवाने में लगे हैं, कुछ घटना को ही लघुकथा सिद्ध करने में लगे हैं, कुछ व्यवसाय का रूप देकर लघुकथा का पर्याय समझने के अहंकार को पोषित करने में लगे हैं। इनके पीछे मौन समर्थन देकर वे भी भीड़ का हिस्सा बन गए हैं, जिनके लेखन पर कभी भरोसा किया जाता था। जानबूझकर स्वयं को अप्रासंगिक करना, चिन्तित करता है। इन विषम परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ‘लघुकथा की सृजन -प्रक्रिया’ स्तम्भ शुरू किया जा रहा है, ताकि सही सोच वाले लोग अच्छी रचनाएँ साहित्य-जगत् को दे सकें।-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ]
किसी लघुकथा के सर्जन में बरसों भी लग सकते हैं। चुटकियों में लघुकथा लिख लेने वालों को इस पर हैरानी हो सकती है। यहाँ अपना अनुभव साझा करने से पूर्व स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं यहाँ किसी उत्कृष्ट या कालजयी रचना का जिक्र नहीं करने वाला हूँ। फोकस इस बात पर है कि किस तरह एक लघुकथा लिखने में वर्षों लग सकते हैं और इसके लिए रचनाकार को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वर्ष 1989 की बात है। मैं मेरठ में पदस्थापित था। सुबह सोकर उठता, तो रोज ही एक तोता मेन गेट पर आकर बोलता, ‘‘जल्दी उठो…गेट खोलो!’’ लखनऊ जाना हुआ, तो मैंने वैसे ही बात–बात में माँ को उस तोते के बारे में बताया। माँ ने हँसते हुए कहा, ‘‘तोते तो तोते, जो पढ़ाओ, पढ़ जाते हैं।’’
उन्होंने आगे बताया, ‘‘मैं दूध लेने जाती हूँ, अब्दुल ग्वाले का तोता ‘अल्लाह हो अकबर’ बोलता है।’’
बात आई–गई हो गई. मेरा तबादला बरेली हो गया। उन दिनों अयोध्या विवाद चर्चा में था। भगवा ब्रिगेड और उनके कार सेवकों ने नमस्कार की जगह ‘जय श्री राम!’ बोलना शुरू कर दिया था। उनके जय श्री राम के पीछे जो बल काम कर रहे थे, उसके चलते मुझसे कभी भी प्रत्युत्तर में ‘जय श्री राम’ कहते नहीं बना। मुलायम सिंह के कार्यकाल में अयोध्या कूच करने वाले बहुत से कार सेवक मारे गए। दूर दराज से कारसेवक के रूप में आए उन युवकों के बारे में जानकर मन बहुत दुखी हुआ। पहली बार मुझे तोतों का ध्यान आया; लेकिन इस पर कभी लघुकथा लिखूँगा, तब नहीं सोचा था।
6 दिसम्बर 1992 की बात है। बाबरी ढाँचा ढहाया जा रहा था। अखबारों ने अपने विशेष बुलेटिन निकाले थे। टीवी पर लाइव टेलीकास्ट हो रहा था। बाज़ार बंद हो गए थे। दहशत में लोगों ने खुद को अपने घरों में कैद कर लिया था। हर जगह अफरा–तफरी का माहौल था। मैं पेपर लेने बाहर निकला, तो भगवा चोला पहने मेरे पड़ोसी उत्तेजना में चिल्लाए, ‘जय श्री राम!’ मैं खिन्न था और गहरी सोच में डूबा हुआ था; पर न जाने किस शक्ति के पराभूत मेरे मुँह से निकल पड़ा, ‘‘जय श्री राम।’’
उनका उत्साह दूना हो गया, ‘‘जय श्री राम, हो गया काम।’’ मैं हैरान था कि मेरे मुँह से वह उद्घोष कैसे निकला। इस घटना ने फिर मुझे तोतों की याद दिला दी। माँ के शब्द भी याद आए, ‘‘तोते तो तोते, जो पढ़ाओ पढ़ जाते हैं।’’
उस दिन मुझे लगा थोड़ी देर पहले मैं आदमी से तोता हो गया था, न चाहते हुए भी तोतों की जमात में शामिल हो गया था। विचार जन्मा–दंगों के दौरान एक आम आदमी कब कैसे तोते में तब्दील हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। मुझे इस विषय पर लघुकथा लिखनी है, उसी क्षण तय हो गया था। पर रचना को मुकम्मल करने में मुझे दो वर्ष और लगे। रचना का समापन कैसे करूँ, यह नहीं सूझ रहा था। कुछ समय बाद एक घटना और जुड़ी मुहल्ले के बच्चे एक अध्यापक को तोता–तोता कहकर चिढ़ा रहे थे। बस यहीं लघुकथा का समापन सूझ गया। इस तरह इस लघुकथा की सर्जन प्रक्रिया में 6 वर्ष लगे। प्रस्तुत है लघुकथा–
भंडारे का समय था। मंदिर में बहुत लोग इकट्ठे थे। तभी कहीं से एक तोता उड़ता हुआ आया और मंदिर की दीवार पर बैठकर बोला, ‘‘अल्लाह–हो अकबर…अल्लाह–हो–अकबर…”
ऐसा लगा जैसे वहाँ भूचाल आ गया हो। लोग उोजित होकर चिल्लाने लगे। साधु–संतों ने अपने त्रिशूल तान लिये। यह खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई, शहर में भगदड़ मच गई, दुकानें बंद होने लगीं, देखते ही देखते शहर की सड़कों पर वीरानी–सी छा गई।
उधर मंदिर–समर्थकों ने आव देखा न ताव, जय श्री राम बोलने वाले तोते को जवाबी हमले के लिए छोड़ दिया।
शहर रात भर बंदूक की गोलियों से गनगनाता रहा। बीच–बीच में ‘अल्लाह–हो–अकबर’ और ‘जय–श्री–राम’ के उद्घोष सुनाई दे जाते थे।
सुबह शहर के विभिन्न धर्मस्थलों के आस–पास तोतों के शव बिखरे पड़े थे। किसी की पीठ में छुरा घोंपा गया था और किसी को गोली मारी गई थी। जिला प्रशासन के हाथ–पैर फूले हुए थे। तोतों के शवों को देखकर यह बता पाना मुश्किल था कि कौन हिंदू है और कौन मुसलमान, जबकि हर तरफ से एक ही सवाल दागा जा रहा था–कितने हिंदू मरे, कितने मुसलमान? जिलाधिकारी ने युद्ध–स्तर पर तोतों का पोस्टमार्टम कराया, जिससे यह तो पता चल गया कि मृत्यु कैसे हुई है, परंतु तोतों की हिंदू या मुसलमान के रूप में पहचान नहीं हो पाई।
हर कहीं अटकलों का बाज़ार गर्म था। किसी का कहना था कि तोते पड़ोसी दुश्मन देश के एजेंट थे, देश में अस्थिरता फैलाने के लिए भेजे गए थे। कुछ लोगों की हमदर्दी तोतों के साथ थी, उनके अनुसार तोतों को ‘टूल’ बनाया गया था। कुछ का मानना था कि तोते तंत्र–मंत्र, गंडा–ताबीज से सिद्ध ऐयार थे, यानी जितने मुँह उतनी बातें।
प्रिय पाठक! पिछले कुछ दिनों से जब भी मैं घर के बाहर निकलता हूँ, गली मुहल्ले के कुछ बच्चे मुझे ‘तोता! तोता!’ – कहकर चिढ़ाने लगते हैं, जबकि मैं आप–हम जैसा ही एक नागरिक हूँ (हंस, मई, 1995)
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