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लघुकथा कभी फ़ैसला नहीं सुनाती

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लघुकथा कभी फ़ैसला नहीं सुनाती और ना ही न्यायोचित सुनवाई करवाती है; बल्कि वह तो किसी उनींदे पुलिसवाले द्वारा लिखी fIR-सी प्रतीत होती है। मैंने कहीं पढ़ा था कि लघुकथा अधखुली कली के मानिंद होती है; लेकिन मैं इतना भर समझा हूँ कि इस विधा की कथावस्तु को सूर्योदय नसीब नहीं होता, यह तो अर्धरात्रि के धुँधलके से भोर का तारा दिखने तक का ही सफ़र है।

योगराज प्रभाकर जी लघुकथा सम्बंधित आलेख में लिखते हैं, ‘आकारगत संक्षिप्तता, संदेशगत सूक्ष्मता और शिल्पगत संयम लघुकथा की तीन प्रमुख शर्तें हैं।’

लघुकथा नापने का इससे बेहतर पैमाना मुझे नहीं मिला। लघुकथा में ‘सार्वभौमिकता’ का होना अगर इसे दीर्घजीवी बनाता है तो ‘वैश्विक प्रभाव’ व्यापकता प्रदान करता है। असगर वजाहत की ‘जन्नत में संवाद’ स्व. रवि प्रभाकर की ‘ककनूस’ हरभगवान चावला की ‘आग’ जैसी ही कुछ और लघुकथाओं में मुझे यह दोनों गुण दिखाई देते हैं। आज चाहे लघुकथा लेखन थोक में हो रहा हो; लेकिन इस विधा के प्रति गंभीर लघुकथाकारों की कतिपय लघुकथाएँ ही पटल पर चमकती दिखाई देती हैं। समान कथ्य-कथानक वाली लघुकथाएँ सपाट प्रस्तुतिकरण के चलते किसी फैक्टरी में बने उत्पाद के मानिंद लगने लगती है; इसलिए मैं चाहता हूँ लघुकथाओं में नवीनता को एक ज़रूरी शर्त की भाँति लिया जाना चाहिए, फिर चाहे वह नवीनता कथ्य-कथानक, प्रस्तुतिकरण में हो अथवा शैली में, कहने का अभिप्राय यह है कि लघु औजार को धार लगाने के लिए ही हमें सबसे अधिक एकाग्र व कुशल होना पड़ता है।

8 जुलाई 1979 पंजाबी पत्रिका ‘रणजीत’ में प्रकाशित (‘लघुकथा-कलश पंजाबी लघुकथा महाविशेषांक’ में हिन्दी अनुवाद प्रकाशित) योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘वो भारत’ एवं 1 दिसम्बर 2023 को लघुकथा . कॉम पर प्रेषित सुकेश साहनी की ‘अच्छा आदमी’ मुझे प्रभावित करती हैं।

‘वो भारत’ लघुकथा इतिहास व वर्तमान के अंतर को बालसुलभ जिज्ञासा के जवाब रूप में प्रस्तुत करती है। बेटी द्वारा पूछे गए प्रश्न का पिता द्वारा दिया गया उत्तर किसी तीर के भाँति पाठक मन को चुभता है। काबिले- ग़ौर है कि  इस लघुकथा की प्रथम पंक्ति ‘आज वह… उदास था।’ लघुकथा के अंतिम संवाद, पिता के जवाब या लघुकथा की पंचलाइन ‘मेरी बेटी… नहीं है।’ का औचित्य साध रही है।

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वो भारत/ योगराज प्रभाकर

आज वह अख़बार पढ़ते हुए न जाने क्यों इतना उदास था। इसी बीच उसकी नन्हीं बेटी ग्लोब लेकर उसके पास आई और कहने लगी, “पापा, आज क्लास में बता रहे थे कि भारत ऋषि-मुनियों और पीरों-फकीरों की धरती है और उसको सोने की चिड़िया भी कहा जाता है! आप ग्लोब देखकर बताइए कि भारत कहाँ है?”

उसकी नज़र सहसा अख़बार के उस पन्ने पर जा टिकी जो कि हत्या, लूटपाट, आगज़नी, दंगा-फसाद, आतंकवाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, भूख से होने वाली मौतों, धार्मिक झगड़ों और मंदिर-मस्जिद विवादों से भरा पड़ा था। उसकी बेटी ने एक बार फिर उसका कंधा झिंझोड़कर पूछा, “बताइए न पापा भारत कहाँ हैं?”

उसने एक लंबी-सी ठंडी आह भरी और बेटी के सिर पर हाथ रखकर जवाब दिया, “मेरी बेटी, जिस भारत की बात तुम कर रही हो, वह भारत इस ग्लोब में नहीं है।”

सुकेश साहनी की लघुकथा ‘अच्छा आदमी’ इंसान के वैचारिक द्वंद्व की कथा है। यह वही द्वंद्व है, जिसे कुछ लोग मन के भीतर चलती अच्छाई व बुराई की लड़ाई के तौर पर रेखांकित करते हैं; मगर मैं इस लघुकथा को अरबी किवदंती ‘हमज़ाद’ या छाया पुरुष से जोड़कर पढ़ना पसंद करता हूँ। हम-ज़ाद एक विशेषण है, जिसका मतलब है साथ पैदा  होना या सहजात, हम-ज़ाद एक संज्ञा भी है जिसका मतलब है कोई जिन्न या फ़रिश्ता ,जो हर इंसान के साथ पैदा होता है और हमेशा उसके साथ रहता है।

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अच्छा आदमी/ सुकेश साहनी

    मेरा और उसका जन्म एक साथ, एक ही दिन हुआ था। नहीं, हमें जुड़वाँ तो नहीं कहा जाएगा; क्योंकि माँ ने एक जिस्म के रूप में हमें जन्म दिया था। वह अलग बात है कि मैं जन्मजात मिले गुण-धर्म के अनुसार अपने रास्ते चलता रहा, जबकि उसने जन्म के कुछ दिनों के बाद ही अपना रास्ता बदल लिया था। वह होशियारी यह बरतता था कि अपने रास्ते के पीछे वह कोई पदचिह्न नहीं छोड़ता था। दुनिया को बस मेरे ही पदचिह्न दिखाई देते थे।

रास्ता बदलने को लेकर मैंने उसे सचेत भी किया था–पहली बार मैंने उसे तब रँगे हाथों पकड़ा था, जब वह पापा के लॉकर से दस हज़ार रुपये चुरा रहा था। जब मैंने उससे इस बारे में पूछा था, तो उसने तर्क दिया था, “सबकुछ मेरा ही तो है, इसे चोरी थोड़ी कहेंगे, माँगने पर बच्चा समझकर कोई देता नहीं; इसलिए मैंने ले लिए। वैसे भीतुम्हें तो पता ही है मम्मी और डैडी की निगाह में मैं मेधावी, ईमानदार और आज्ञाकारी बेटा हूँ।”

दूसरी बार मैंने उसे वाशरूम में झाँकते हुए रंगे हाथों पकड़ा था, जिसमें हमारी कज़िन नहा रही थी। मेरे सवाल खड़ा करने पर वह मेरा मखौल उड़ाता हुआ बोलाथा, “इस खेल का मज़ा तुम क्या जानो, रही बात सिस्टरको न्यूड देखने की, तो मैंने उसके चेहरे को ‘कट’ कर उसकी जगह अपनी पसंदीदा लड़की का चेहरा ‘पेस्ट’ कर दिया है। बाक़ी तुम ही देख लो, रिश्तेदारों में मुझे कितना पसंद किया जाता है।”

तीसरी बार जब मैंने उसे पड़ोस की मैडम के बच्चे को गोद लेने के बहाने उनके अंग विशेष को ‘बैडटच’ करते देखा, तो उसने मुँह बिचकाकर कहा, “बच्चों को प्यार से बहलाकर उनकी मदद ही करता हूँ, हाथ इधर-उधर लग भी जाए तो क्या! देखा नहीं, वे सब मुझे कितना ‘लाइक’ करती हैं।”

कहना न होगा, मैंने न जाने कितनी बार इस प्रकार के कार्य-कलाप में लिप्त देखा, पर अब सफ़ाई देना तो दूर, वह मेरी ओर देखता तक नहीं था। उसे अपनी बढ़ती लोकप्रियता पर बहुत गुरूर होने लगा था। थक हारकर मैंने भी उसे टोकना छोड़ दिया था और इसी उम्मीद पर जिए जाता था कि कभी तो उसे सद्बुद्धि आएगी और वहवास्तव में मेरे पदचिह्नों पर चलने लगेगा।

अंततः वह दिन आ ही गया, जब हमें भी दूसरों कि तरह इस दुनिया को छोड़कर जाना था। अंत्येष्टि स्थल पर भारी भीड़ थी, यहाँ भी किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं गया, सब उसकी तारीफ कर रहे थे l

शीघ्र ही हमारा शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो जाएगा। मैं बहुत दुखी हूँ, मुझे इस बात की भारी पीड़ा है कि वह अंतिम समय तक अपनी पहचान छुपाने में कामयाब रहा और लोग उसे सदैव मेरे नाम से ही बुलाते रहे।

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