आठवाँ पुरस्कार

रात ड्यूटी से लौटा। पड़ोस में भागवत कथा चल रही थी।
“खाना लगाएँ ।” पत्नी आहिस्ते से बोली।
“हाँ हाँ लगा दो।” खीजकर मैंने कहा, “पता नहीं यह भागवत कब बंद होगी।”
“सात दिन की है, आज तो तीसरा ही दिन है।”
“अरे यार! यह भी कोई समय है। रात नौ बजे शुरू करते हैं। रात एक-दो बजे तक खटर-पटर करते-करते हुए बंद करते हैं। यहाँ रोज तड़के निकलना पड़ता है। ऊपर से रात में यह बिना सुर-ताल वाली अनचाही भागवत झेलो इनकी। पता नहीं कौन-कौन से फिल्मी गाने पर भागवत हो रही है। इन लोगों ने भी धर्म को बिलकुल धंधा बना दिया। सोना हराम है। जीना मुश्किल।अभी आता हूँ।” मैं गुस्से से उठा, तो पत्नी बोली-“कहाँ जा रहे हो जी।”
“बस अभी आता हूँ।”
जहाँ भागवत हो रही थी,वहाँ लम्बे- लम्बे डग भरते हुए पहुँच गया। अचानक भागवत कथा के मुख्य आयोजक यजमान टकरा गए। नमस्कार किया, विनम्रता से बोला- “अरे! भाई साहब भागवत् थोड़ा धीमी करा दीजिए, सुबह जल्दी निकलना पड़ता है, ड्यूटी के लिए। अब आप से और क्या कहें।” इतना कह के मैं लौट पड़ा, तभी पीछे से कुछ कर्कश आवाजें सुनाईं पड़ीं-“आजकल कुछ पापी ज्यादा ही बढ़ गए हैं।..कलयुग है भाई पापी तो बढ़ेंगे ही।….आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। हर ओर पापाचार-दुराचार बढ़ रहा है, पापी बढ़ रहें हैं।”
मेरा माथा भन्ना गया। मैं ठिठका। मेरी दोनों मुठ्ठियाँ भिंच गईं। अब दिमाग की नसें चरचरा उठीं। अंदर का ज्वार-भाटा जब्त करते हुए तेज कदमों से घर पहुँचा। गुस्से से मेरे नथुने फूलने-पिचकने लगे, छाती को लंबी-लंबी सांसें भरते देख, पत्नी हैरत से बोली” अरे!क्या हुआ।”
“दुनिया में पापी बहुत बढ़ गए हैं, हर ओर दुराचार बढ़ रहा है, मोहल्ले की बात थी, पड़ोस की बात थी, और कहीं होता तो बताता कि मैं कितना बड़ा पापी हूँ।” मैं चिंघाड़ा।
“अरे! शुक्र मनाओ आपको पापी ही कहा, कहीं और किसी धर्म के होते तो पाकिस्तानी-खालिस्तानी भी कह देते…चुपचाप खाना खाओ और लेट जाओ! कान में रूई ठूंसकर।”
अब मैं ऊंघते हुए खिन्न मन से खाना खा रहा था।
बुढ़वा से जवनवा हो गये सैंया हमार.. किसी फिल्मी तर्ज़ पर पंडित जी का बेसुरा राग बज रहा था, हारमोनियम, ढोलक ,मंजीरे चिमटे में जैसे जंग छिड़ी हो। लाउडस्पीकर मेरे कानों को बेध रहा था,मन में अनेक हलचलें उठ रहीं थीं, जिससे हृदय की धड़कनें डांवाडोल रही थीं। -0- sureshsaurabhlmp@gmail.com