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Channel: लघुकथा
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बिजूका

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 अरे, चाचाजी आप यहाँ बैठे हैं? मैंने तो पूरा अस्पताल देख लिया। बहुत बढ़िया बनाया है, डॉ. मनीष ने।” गिरिधारीलाल जी को बेसमेंट में बैठे देख अनायास मेरे मुँह से निकल गया।

“हाँ बेटा, उसकी कई साल से इच्छा थी कि अस्पताल की अपनी इमारत होनी चाहिए। वो किराये की इमारत थी। वहाँ अपने मन के लायक कुछ कर नहीं पा रहा था, वह।”

“अब यहाँ वह इनडोर, आईसीयू… सब कुछ आरंभ कर पाएगा। कमरों के द्वार पर लगे बोर्ड देखें मैंने। बहुत अच्छा लगा… मेरे बचपन के दोस्त का एक अस्पताल हो गया शहर में और वह भी इतना शानदार! बहुत खुशी हुई, मुझे।”

“हाँ बेटा… दरअसल उसकी माँ की इच्छा थी कि मनीष का अस्पताल अपनी खुद की इमारत में होना चाहिए। उसके रहते तो न हो पाया; पर अब हो गई उसकी इच्छा पूरी…।”

“जी… चाचीजी बहुत जल्दी चली गईं।”

“हाँ बेटा। उसे लंग्स- कैंसर हो गया था।”

“जी … मुझे पता है। मैं मिला था तब मनीष से।”

“हाँ, एम. डी. होने के बाद मनीष उस कॉरपोरेट अस्पताल से जुड़ गया था। बाद में मौजूदा खण्डेलवाल कॉम्प्लेक्स वाला अपना अलग क्लिनिक भी शुरू किया, उसने।”

“मुझे पता है, चाचा जी। मैं जाता रहा हूँ उसकी क्लिनिक में कभी- कभार। बहुत नाम कमाया है मनीष ने, शहर में। आज एक नंबर का फ़िजिशियन है वह। सदा भीड़ लगी रहती है, क्लिनिक में। मैं तो फोन करके दो-तीन मर्तबा घर गया था उसके ।… पर आपके दर्शन नहीं हो पा!”

“मैं यहाँ नहीं रहता, बेटा। अभी ये अस्पताल का उद्घाटन था ; इसलिए दो-तीन दिन के लिए आ गया। कल चला जाऊँगा।”

“कहाँ…? कहाँ चले जाएँगे आप?”

“उसके फॉर्म-हाउस पर। पाँच साल हो गए, मनीष ने बीस एकड़ जमीन खरीदकर उसमें फॉर्म- हाउस डेवलप किया है। मैं वहाँ रहता हूँ।”

“अच्छा! ये तो मुझे पता ही नहीं था। कहाँ है, फॉर्म हाउस?”

“यहाँ से साठ किलोमीटर दूर है, कौण्डिण्यपुर रोड पर…।”

“वाह, बहुत बढ़िया किया मनीष ने। … ये लोग इतने व्यस्त रहते हैं कि कभी-कभार परिवार के साथ मन बहलाने के लिए ऐसा कुछ चाहिए।”

“हाँ.. दो-सौ संतरे के पेड़ हैं, पचास आम के, आँवला, नीबू, अमरूद आदि भी हैं।… कुछ साग सब्जी उगाते रहते हैं सालभर …।”

“तो आपके साथ और कौन रहता है वहाँ?”

“और कोई नहीं … बस, मैं अकेला। कहने को एक नौकर है। दिन भर रहता है ; लेकिन रात में वह अपने गाँव चला जाता है।”

“मेरा ख्याल है, पचहत्तर-अस्सी के तो होंगे ही आप?”

“चौरासी पूरे हो चुके हैं, इस रामनवमी को।”

“चौरासी…! और अकेले रहते हैं वहाँ, उस खेत में…! इस उम्र में मनीष के साथ रह पाते तो बेहतर होता…। आखिर आप पिता हैं मनीष के।”

“पिता था बेटा… लेकिन फॉर्म हाउस बनाया तबसे ‘बिजूका’ बनकर रह गया हूँ… सिर्फ बिजूका। खेत की रखवाली करनेवाला बिजूका…।”

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