भाग-दौड़ कर, खचाखच भरी बस में रीना ने अपने आपको ढकेल-सा दिया और करीब साँस रोके खड़ी हो गई। साँस लेने और छोड़ने से शरीर में जो हलचल होती है, आगे-पीछे खड़े लोग उसका इंतज़ार कर रहे थे।
‘आज भी जाने के बाद, सारे दिन एक ही मानसिक तनाव में दिन बीतेगा।’।अपने नए अधिकारी से परेशान रीना ने मन में सोचा। अकारण अपने कक्ष में बुलाना, गिद्ध दृष्टि से घूरना और कभी-कभी तो जान-बूझकर हाथ छूकर पेपर पकड़ाना।
बस में ही एक बार सिहरकर अपना हाथ झटकने लगी रीना।
“अब खुद हाथ टकरा दिए तो सही है मैडम, हमसे लगता, तो हो-हल्ला मचा देती हो आप लोग।” पीछे के एक जवान लड़के ने कहा और रीना ने उससे माफी माँग ली।
कितने मानसिक तनाव से गुज़र रही है वो, नौकरी भी करनी है और ऐसे बॉस से अपने आपको सुरक्षित भी रखना है।
कंडक्टर को टिकट के पैसे दिए और उसका ध्यान सामने सीट पर बैठी बारह-तेरह वर्षीया बच्ची की तेज़ आवाज़ से आकर्षित हुआ।
“कंडक्टर अंकल, यह जो मेरे बाजू में बैठे हैं ना, इनकी टिकट मैं देती हूँ।” बच्ची तिलमिलाए स्वर में बोली।
“क्यों, तुम्हारा तो बस का पास है? ये तुम्हारे साथ हैं क्या?” रोज़ की पहचान के कारण कंडक्टर ने उससे पूछा।
“नहीं, मैं तो इनको नहीं पहचानती, पर ये जब से मेरे बाजू में बैठे हैं, मेरे शरीर से पहचान बना रहे हैं।” उस व्यक्ति की आँखों में अपनी तेज़ दृष्टि डालकर बोली, “कभी मेरी जाँघों पर हाथ, कभी हाथ-पर-हाथ रखकर पहचान ही तो बना रहे हैं।”
रीना ने उस गौरैया को बाज से लड़ते देखा, बला की हिम्मत थी उसमें। लोगों ने उस ‘सज्जन’ को बाहर का रास्ता दिखाया और सबने बच्ची की हिम्मत के लिए तालियाँ बजाईं।
अपने नियत स्टॉप पर रीना भी बस से उतरकर, ऑफिस की ओर दृढ़ संकल्प से कदम बढ़ाने लगी।
दूर-दूर तक कोई धुँध नहीं थी सब कुछ साफ नज़र आ रहा था।
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