हरभजन सिंह हर साल हरमंदर साहब में मत्था टेकने अवश्य जाता है। अमीर व्यापारी है। खूब दान-पुण्य करता है ।
इस समय हरभजन और उसकी पत्नी अमृतसर रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर ए सी टैक्सी हायर करने जा रहे थे ।
तभी ऑटो वाले जगतार सिंह ने उन्हें आवाज़ लगाई – “बादशाहो! श्री हरमंदर साहब चलना है तुसीं?’’
हरभजन की पत्नी ने पति से कहा – ” आइए जी, आज ऑटो से ही चलते है गुरु के घर।”
हरभजन मुस्कुराया। फिर दोनों ऑटो में बैठ गए ।
जगतार ने ऑटो आगे बढ़ा दिया। हरभजन ने उससे कहा – ‘‘भाई ! तुमने मीटर तो डाउन किया ही नहीं।’‘
‘‘ओ छड्डो जी मीटर नूं …अज्ज दा दिन गुरु दे नाम है।’‘
‘‘क्या मतलब ?’’ हरभजन ने चौंककर पूछा ।
‘‘सन्डे नूं फ्री सेवा है जगतार सिंह दी तरफों… मैं इस दिन श्री हरमंदर साहब जान वाली सवारियां तों कोई पैसा नहीं लेंदा ।”
‘‘लेकिन भाई ! हम तो धार्मिक यात्रा पर आए हैं। तुम्हारे हक़ की कमाई कैसे मार सकते हैं। किराए के पैसे तो तुम्हें लेने ही पड़ेंगे।’‘
जगतार ने मुस्कुराकर कहा –‘‘सरदार जी तुसीं अपनी अरदास तों बाद, मेरे वास्ते वी अरदास कर देना… फिर तां हो जाएगा न हिसाब बराबर!”
अब हरभजन ने बहस कर के उसकी श्रद्धा और सेवा को ठेस पहुचाना उचित नहीं समझा। लेकिन जिज्ञासावश पूछ लिया – ‘‘कितने रुपये का तेल डलवाते हो सन्डे के दिन ऑटो में?’’
जगतार ने पहले तो सवाल को टाल दिया। लेकिन दुबारा पूछने पर बोला – “करीब अद्धे दिन दी कमाई बराबर तेल खर्च हो जाँदा है।”
हरभजन सोचने लगा- “ये ऑटो वाला हफ्ते में एक दिन अपनी कमाई छोड़कर गुरु सेवा के लिए निःशुल्क ऑटो चलाता है। तेल का खर्चा भी खुद उठाता है। क्या मुझ में हर हफ्ते अपनी डेढ़ दिन की कमाई गुरु के नाम पर दान करने की हिम्मत है ?”
और फिर जैसे ही उसने अपनी करोड़ों की सालाना आमदनी में से उतने हिस्से का हिसाब निकाला, तो उसके माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं। उसने तत्काल इस विषय में सोचना बन्द कर दिया ।
अब हरभजन के मन में जगतार के प्रति आदर का भाव उभर आया। जगतार इस सब से बेखबर मस्ती से ऑटो चला रहा था ।
एक जगह पर उसने ऑटो खड़ा किया। और कहा – “बादशाहो ! ऐत्थे तक ही ऑटो चलाने दी इजाजत है। अग्गे थोडा पैदल चलके श्री हरमंदर साहब पहुंच जाओगे तुसीं।”
और उसके बाद जगतार ने अपना ऑटो वापिस रेलवे स्टेशन की ओर मोड़ दिया ।
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हिसाब-किताब
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