अर्धवार्षिक परीक्षाएँ अभी-अभी खत्म हुई हैं। सभी अध्यापकों ने अपने-अपने विषय की कापियों की जाँचकर बच्चों को दिखानी शुरू कर दी हैं।
जैसे ही मिस्टर मेहता ने विज्ञान की कॉपी जाँची, वे एक हाथ मे बंडल उठाए, दूसरे हाथ से अपनी छड़ी टिकाते हुए दसवीं कक्षा में पहुँचे।
बचपन में पोलियो होने के चलते मिस्टर मेहता छड़ी के सहारे चलते हैं। कड़ी मेहनत के बल पर उन्होंने विज्ञान में एम. एससी. किया था। फिर बी.एड. करके अध्यापक नियुक्त हुए थे। पोलियो होने के बावजूद वे हमेशा खड़े होकर पढ़ाते। उनके जज्बे को देखते हुए प्रिंसिपल तो क्या, उनके विभाग के अधिकारी भी उनकी सराहना करते हैं। मेहता जी जब नौंवी, दसवीं कक्षा को पढ़ाते हैं, तो क्लास रूम को ही प्रयोगशाला बना देते हैं। प्रायोगिक ज्ञान देने में तो मानो उन्हें महारत हासिल है।
कक्षा में पहुँचकर उन्होंने रोल नम्बर के साथ कापियाँ बच्चों को देते हुए कहा- “बच्चो! किसी के अंकों का जोड़ गलत हो या कोई प्रश्न जाँचने से छूट गया हो, तो मुझे बता दें, उसके अंक सही करके मैं बंडल परीक्षा-विभाग में जमा करा दूँगा।”
मेहता जी के इतना कहते ही बच्चों ने कॉपी को ध्यान से देखना शुरू कर दिया।
मेहता जी कुर्सी पर बैठ गए। अभी मुश्किल से दस मिनट ही हुए थे, कुछ छात्रों ने कॉपी जमा करानी शुरू कर दी थी। तभी एक छात्रा ने आकर कहा- “सर! मुझे सिर्फ सोलह अंक ही मिले हैं, मैं तो फेल हो जाऊँगी, सर इतने कम अंक कैसे आ सकते हैं?”
“बेटा, क्या जोड़ गलत है या कोई प्रश्न जाँचे बिना रह गया?” -मेहता जी ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा।
“नही सर, जोड़ तो सही है। कोई प्रश्न बिना अंक दिए भी नही छूटा; लेकिन…।”
“बेटा! जितना लिखा उस पर ही तो अंक मिलेंगे न।” -कहते हुए उन्होंने बंडल समेटना शुरू किया। बंडल लेकर वे बाहर निकल ही रहे थे कि उनके कानों में फराह के शब्द पड़े- “इस लँगड़े ने मुझे जानबूझकर फेल किया है। इसे तो सबक सिखाना पड़ेगा।”
आज परीक्षा की कॉपियों का बोझ उठाते हुए उन्हें जितना कष्ट हो रहा था, उससे ज्यादा कष्ट उन्हें फराह के शब्दों से हो रहा था। उन्होंने बंडल बगल में दबा चश्मे के नीचे से नम आँखों को पोंछा और वे स्टाफ रूम की ओर बढ़ गए।
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