न तो मैं कोई समीक्षक हूँ न ही टिप्पणीकार बस एक सहज भाव-युक्त पाठक हूँ ।इस लिहाज से मैंने महसूस किया है कि साहित्य की हर विधा की तरह लघुकथा भी अपने मन की बात कहने की एक सशक्त विधा है। जिसमें लेखक सीमित शब्दों में अपनी गहन अनुभूतियों और संवेदनाओं से जुड़कर मन पर उभरी टीस को व्यक्त करने की कोशिश करता है।
यूँ देखा जाए तो हमारे जीवन में लगभग हर क्षण हर पल की घटना एक लघुकथा में सिमटी होती है, और उन्हीं अनेक घटनाओं के मध्य जब किसी क्षण विशेष की बात लेखक के अंदर गहरी संवेदना जगा जाती है और वह स्वयं अंदर तक उस घटना को घटते हुए महसूस करता है ,तो अपने मनोभावों को समाज के सामने अपनी लेखनी के माध्यम से लाने का प्रयास करता है;किन्तु लिख देने मात्र से ही लघुकथा जीवंत नही होती ;अपितु भावों का एक सार्थक प्रवाह भी होता है ,जो पाठकों को अपने साथ बाँधता है और पाठन खुद उसमें उससे जुड़कर लेखक के कहे- अनकहे सभी मनोभाव को अपने आस-पास होने की अनुभूति कराता है।
आज स्वतंत्र अभिव्यक्ति के दौर में लघुकथा एक सशक्त माध्यम बनकर उभरी है । आज के दौर में लोगों के पास वक्त की कमी है, केवल यही एक कारण नहीं ; बल्कि साथ ही वह हर पहलू को यथार्थ और तर्क की कसौटी पर तौलना चाहते हैं। ऐसे में लघुकथा लोगों की मानसिक क्षुधा को शान्त करती हैं । लघुकथा एक सशक्त शीर्षक के साथ शुरू होकर भूमिका विहीनता के साथ आगे बढ़ती है और अपने बेहतरीन कथ्य , शिल्प तथा प्रभाव के कारण यादगार यात्रा बन जाती है। सार्थक लघुकथा वह होती है, जो अपने माध्मय से परोक्ष रूप से सकारात्मक दिशा और निर्देश देती है।
लघुकथा की एक खूबसूरती यह भी होती है कि उसमें बहुत कुछ अनकहा- सा होता है जो पाठक के अतर्मन को छूता है और उनके मनोभावों को झकझोरता है तथा सोचने लिए बाध्य करता है कि हमारे समाज में भी ऐसा कुछ है ,जो अनदेखा से रह गया था ।
यथार्थ लघुकथा वह बीज है ,जो एक सार्थक विचार और संवेदनशील हृदय में जन्म लेता है और अपनी गहरी सोच और अभिव्यक्ति के माध्यम से पाठक के मन में जिज्ञासा के रूप में जन्म लेकर वहाँ अंकुरित और पल्लवित होता है।
ऐसी ही कई लघुकथाएँ हैं, जो अपनी उत्कृष्ट लेखन शैली , बेहतरीन विषयवस्तु और और सार्थक संदेश के कारण कालजयी बन गई हैं ,जिन्हें बार- बार पढ़ने पर वे एक नया संदेश देते हुए प्रतीत होती है।कई लघुकथाकार ऐसे हैं, जिन की रचनाएँ पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिलता है। ऐसे में किन्हीं दो रचनाओं पर चर्चा करने का चुनाव करना सचमुच ही कठिन कार्य है है सबसे पहले मैं रामेश्वर हिमांशु की लघुकथा ‘गंगा स्नान’ पर चर्चा करती हूँ । किस तरह कम से कम शब्दों और प्रतीकों के माध्यम से अपनी बातों को कहना है ,यह वे भली-भाँति जानते हैं । उनकी सभी लघुकथाओं में भाषा की यह मितव्य का यह रूप देखने को मिलता है।
हिमांशु जी की लघुकथा ‘गंगा स्नान’ में स्त्री के सबल पक्ष और उसकी सुदृढ इच्छा शक्ति तथा आत्मविश्वास को दर्शाया गया है। कथा की पात्रा 70 वर्षीय पारो है,जिसने अपने पति और पुत्र दोनों को खो दिया है फिर भी कभी अपने व्यवहार में निराशा और असहाय होने की अनुभूति नहीं करवाती है । 70 वर्ष की उम्र में भी कर्मरत रहने के कारण वह बिल्कुल युवा है । उसके झुर्रियों भरे चेहरे और झुकी कमर में भी आत्मबल की चमक और धमक है ,जो किसी के आगे हाथ नहीं फैलाती , जो स्त्रीत्व की आभा से आलोकित है ।और यही है स्त्री की सच्ची तस्वीर ; क्योंकि अकसर स्त्री आर्थिक कारणों से ही दबी रहती है ,वरना वह इतनी सक्षम होती है कि अकेले दम पर सुबह से शाम तक घर की एवं घर के सदस्यों की सारी जिम्मेदारियाँ उठाती हैं, नया सृजन करती है वह भी बिना किसी स्वार्थ के । साथ ही लेखक अपने कथा के माध्यम से यह भी कहने की कोशिश करते हैं कि अगर स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, तो बगैर किसी पर बोझ बने जीवन गुजार सकती हैं एवं अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर सकती हैं । और यही बात परों भी जानती है कि सम्मान तथा आर्थिक स्वतंत्रता के लिए शिक्षा से बड़ी कोई पूंजी नहीं है शिक्षित स्त्री पूरे समाज को नई दिशा दे सकती है अतः पारो जो स्वयं शिक्षित नहीं है ,वह चाहती है कि आने वाली पीढ़ी शिक्षा के गहने से जड़ी हो। क्योंकि शिक्षा किसी भी कर्म और धर्म से ज्यादा पवित्र तथा पुण्य का काम है ,जिसे वह गंगा स्नान से भी ज्यादा पवित्र समझती है।
मेरी पसन्द की दूसरी लघुकथा है महेश शर्मा जी की नेटवर्क । यह लघुकथा वर्तमान परिवेश पर एक सटीक कटाक्ष है। अपने कथा के पात्र के माध्यम से लेखक ने आज के दौर की सबसे बड़ी समस्या को पाठकों के सामने लाने की चेष्टा की है। वर्तमान दौर में सोशल साइट एक लाइलाज बीमारी के रुप में भी फैलती जा रही है वैसे तो सोशल साइट की बहुत सारी खूबियाँ हैं तो उसकी बहुत सारी बुराइयाँ भी है । आज हमारा युवा वर्ग उसकी गिरफ्त में समाता जा रहा है। हमने अपने आसपास के सुख-दुख बाँटने वालों को खो दिया है । उनसे दूर हो गए हैं। इस विडम्बना को ही महेश शर्मा ने पात्र के माध्यम से दिखाया है।
कई दिनों से लाइक कमेंट नहीं आने के कारण पात्र बेचैन है ।वह अपने तथाकथित दोस्तों की उपेक्षा से अवसाद की अनुभूति कर रहा है। वह लोगों के द्वारा की जाने वाले अनदेखी को झेल नहीं पा रहा है तथा मानसिक कुंठा से ग्रसित होकर लोगों का ध्यान आकर्षित करने हेतु अपने अस्वस्थ होने की झूठी खबर डालता है।
फिर जब उसके स्वास्थ्य की चिन्ता हेतु लोगों के लाइक कमेंट आने शुरू हो जाते हैं ,तो वह ‘रिलैक्स’ महसूस करता है और अपने दैनिक कार्यों में लग जाता है। उसे आत्म तृप्ति की अनुभूति होती है वह प्रसन्न हो जाता है। वह बार-बार मुग्ध-भाव से अपनी पोस्ट देखता है और उसमें उसके ‘लाइक’ की गिनती शुरू करता है । जितने जितने लाइक्स मिलते जाते हैं ,वह उतना ही आनंदित होता है।
लेखक अपने इस पात्र के माध्यम से ही आज के समय की सबसे दूसरी सबसे बड़ी समस्या को उभारते हैं। जब बगल में रहने वाले अधेड़ उम्र के अजनबी ने संकोच भरे स्वर में कहा, ‘‘वो तुम सुबह से अपने कमरे से बाहर नहीं निकले ,तो सोचा कि पूछ लूँ, मैं सामने वाले वन रूम सेट में ही तो रहता हूँ।’’ तब वह अपने पड़ोसी को पहचान नहीं पाता।
कितने विरोधाभास की स्थिति है कि आज विकासवाद और तरक्की के नाम पर हम इतने व्यस्त हो गए हैं कि अपने आस-पास ,अपने पड़ोसी , अपनों के लिए , अपने घर के लिए हमारे पास कोई वक्त नहीं है ।पूरे दिन हम चैटिंग और गूगल पर सर्च तो कर लेते हैं ,किंतु अपने बगल में रहने वाले ,अपने घर में होने वाली घटनाओं को जान नहीं पाते । अपने पड़ोसी को तो हम पहचान नहीं पाते ;किन्तु अनजान लोगों द्वारा नजरअंदाज करने को नहीं झेल नहीं पाते । क्या सचमुच समाज तरक्की कर रहे हैं ? क्या सचमुच ये विकासवाद का नया दौर है ?
यह आज की आज की अन्तर्मुखी जीवन-शैली का यक्षप्रश्न है।अनुत्तरित यक्ष -प्रश्न
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1-गंगा-स्नान- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
दो जवान बेटे मर गए। दस साल पहले पति भी चल बसे । दौलत के नाम पर बची एक सिलाई मशीन । सत्तर साला बूढी पारो गाँव भर के कपड़े सिलती रहती । बदले में कोई चावल दे जाता , तो कोई गेहूँ या बाजरा । सिलाई करते समय उसकी कमजोर गर्दन डमरू की तरह हिलती रहती । दरवाजे के सामने से जो भी निकलता वह उसे ‘ राम – राम ‘ कहना न भूलती ।
दया दिखाने वालों से उसे हमेशा चिढ रहती । छोटे – छोटे बच्चे दरवाजे पर आकर ऊधम मचाते , लेकिन पारो उनको कभी बुरा – भला न कहकर उल्टे खुश होती ।
प्रधान जी कन्या पाठशाला के लिए चन्दा इकट्ठा करने निकले ,तो पारो के घर की हालत देखकर पिघल गए — ” क्यों दादी , तुम हाँ कह दो, तो तुम्हे बुढ़ापा पेंशन दिलवाने की कोशिश करूँ।”
पारो घायल – सी होकर बोली_ “भगवान ने दो हाथ दिए हैं । मेरी मशीन आधा पेट रोटी दे ही देती है । मैं किसी के आगे हाथ क्यों फैलाऊँगी ।क्या तुम यही कहने आये थे ?”
” मैं तो कन्या पाठशाला बनवाने के लिए चन्दा लेने आया था । पर तेरी हालत देखकर ….।”
” तू कन्या पाठशाला बनवाएगा ?” पारों के झुर्रियों भरे चेहरे पर सुबह की धूप -सी खिल गई ।
” हाँ , एक दिन जरूर बनवाऊँगा दादी।बस तेरा आशीष चाहिए ।”
पारों घुटनों पर हाथ देकर टेककर उठी । ताक पर रखी जंगखाई संदूकची उठा लाई । काफी देर उलट -पुलट करने पर बटुआ निकला । उसमें से तीन सौ रुपये निकालकर प्रधान जी की हथेली पर रख दिए” _बेटे , सोचा था मरने से पहले गंगा नहाने जाऊँगी । उसी के लिए जोड़कर ये पैसे रखे थे।”
” तब ये रुपये मुझे क्यों दे रही हो ? गंगा नहाने नहीं जाओगी ?”
“बेटे , तुम पाठशाला बनवाओ । इससे बड़ा गंगा – स्नान और क्या होगा”-कह कर पारो फिर कपड़े सीने में जुट गई ।
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2-नेटवर्क महेश शर्मा
कई दिनों से सोशल नेटवर्क पर न ज़्यादा लाइक्स मिल रहे थे, न कमेंट्स, हर पोस्ट औंधे मुँह गिर रही थी। सो, आज इस छुट्टी के दिन ब्रहमास्त्र चलाया स्टेटस अपडेट किया, ‘‘डाउन विद हाई फीवर’’
पहले नाश्ता, फिर किराए के इस वन रूम सेट की सफाई, कुछ कपड़ों की धुलाई उसके बाद लंच तैयार किया और फिर जमकर स्नान।
इस बीच लाइक्स और कमेंट्स की रिसीविंग टोन बार-बार बजती रही। तीर निशाने पर लग चुका था।
लंच के बाद, अपना फोन लेकर वो इत्मीनान से बिस्तर में लेट गया। …गेट वेल सून’’,…‘‘ओ बेबी ख्याल रखो अपना’’.‘‘अबे, क्या हो गया कमीने’’,वगैरह-वगैरह!!
एक-एक कमेंट्स को सौ-सौ बार पढ़ते, तमाम लाइक्स को बार-बार गिनते और इस बीच टीवी देखते-देखते कब झपकी आ गई, पता ही नहीं चला।
चौंककर उठा तो देखा शाम गहरा गई है, और कोई कमरे का दरवाजा खटखटा रहा है।
‘‘जी कहिए,?’’ उसने उलझन भरे स्वर में पूछा।
‘‘न-नहीं कुछ बात नहीं,’’ दरवाजे पर खड़े, उस अधेड़ उम्र के अजनबी ने संकोच भरे स्वर में कहा, ‘‘वो तुम सुबह से अपने कमरे से बाहर नहीं निकले तो सोचा कि पूछ लूँ, मैं सामने वाले वन रूम सेट में ही तो रहता हूँ।’’
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