दसवाँ पुरस्कार प्राप्त लघुकथा
विनोद कुमार जैसे ही दुकान में घुसे दुकान के मालिक सत्यनारायण ने उन्हें आदर से बिठाया और उनके मना करने के बावजूद लड़के को चाय लेने के लिए भेज दिया। उसके बाद सत्यनारायण ने पूछा, “कहिए विनोद बाबू क्या सेवा करूँ?” विनोद कुमार ने कहा कि एक ऊनी शॉल या चद्दर दिखलाइए। विनोद कुमार सत्यनारायण की दुकान के पुराने कस्टमर हैं। वो जानते हैं कि विनोद कुमार की पसंद हमेशा ऊँची होती है और पैसे का मुँह देखना वो नहीं जानते। उन्होंने एक से एक बढ़िया ऊनी शॉलों और चद्दरों का ढेर लगा दिया। विनोद कुमार ने शॉलों और चद्दरों की क्वालिटी को देखते हुए कहा, “सत्यनारायण भाई इतनी हैवी नहीं कोई हल्की सी शॉल या चद्दर दिखलाइए।” यह सुनकर सत्यनारायण को विश्वास नहीं हुआ तो उन्होंने कहा, “हल्की और आप? क्यों मज़ाक़ कर रहे हो विनोद बाबू? हल्की शॉल का क्या करेंगे आप?”
विनोद कुमार ने कहा, “ऐसा है सत्यनारायण भाई हमारी बहन उर्मिला है न उसकी सास शांतिदेवी के लिए भिजवानी है। उन्होंने कई बार मुझसे कहा है कि विनोद बेटा मुझे एक अच्छी -सी गरम चद्दर ला के दे। तेरी पसंद बड़ी अच्छी होती है। पहले भी तूने एक शॉल लाकर दी थी जो बहुत गरम थी और कई साल चली थी।” सत्यनारायण ने सामने फैली हुई शॉल और चद्दरों के ढेर को एक तरफ़ सरकाकर कुछ मीडियम क़िस्म की शॉलें खोल दीं। विनोद कुमार ने निषेधात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा कि और दिखलाओ। सत्यनारायण हैरान था पर ग्राहक की मर्ज़ी के सामने लाचार भी। उसने सबसे हल्की शॉलों का बंडल खोला और शॉलें विनोद कुमार के सामने फैला दीं। विनोद कुमार ने साढ़े चार सौ रुपये की एक शॉल चुन ली और उसे पैक करवाकर घर ले आए और उसी दिन शाम को उसने वो शॉल बहन की सास को भिजवा दी।
शॉल पाकर शांतिदेवी बड़ी खुश हुईं। ये बात नहीं थी कि शांतिदेवी के घर में किसी चीज़ की कमी थी या उसके बेटे-बहू उसके लिए कुछ लाकर नहीं देते थे, पर वो अपने रिश्तेदारों पर भी अपना हक समझती व जताती रहती थी। विनोद पर तो वह और भी ज़्यादा हक जताती थी ; क्योंकि विनोद उसे अच्छा लगता था लेकिन विनोद की भेजी हुई शॉल वो पाँच-सात बार ही ओढ़ पाई होंगी कि एक दिन रात के वक्त उसके सीने में तेज़ दर्द हुआ और दो दिन बाद ही रात बारह साढ़े बारह बजे के आसपास वो इस संसार से सदा के लिए विदा हो गईं। उनकी अंत्येष्टि के लिए अगले दिन दोपहर बारह बजे का समय निश्चित किया गया। सुबह-सुबह सत्यनारायण अपनी दुकान खोल ही रहे थे कि विनोद कुमार वहाँ पहुँचे और कहा, “भाई उर्मिला की सास गुज़र गई है एक चद्दर दे दो।”
सत्यनारायण ने बड़े अफ़सोस के साथ कहा, “ओह! अभी कुछ दिन पहले ही तो आप उनके लिए गरम शॉल लेकर गए थे। कितने दिन ओढ़ पाईं बेचारी?” उसके बाद सत्यनारायण ने चद्दरों का एक बंडल उठाकर खोला और उसमें से कुछ चद्दरें निकालीं। विनोद कुमार ने चद्दरें देखीं तो उनका चेहरा बिगड़-सा गया और उन्होंने कहा कि भाई ज़रा ढंग की चद्दरें निकालो। कई बंडल खुलवाने के बाद विनोद कुमार ने जो चद्दर पसंद की उसकी क़ीमत थी पच्चीस सौ रुपए। सत्यनारायण ने कहा, “विनोद बाबू वैसे आपकी मर्ज़ी पर मुर्दे पर इतनी महँगी चद्दर कौन डालता है?” विनोद कुमार ने कहा, “बात महँगी-सस्ती की नहीं, हैसियत की होती है। उर्मिला के ससुराल वालों और उनके दूसरे रिश्तेदारों को पता तो चलना चाहिए कि उर्मिला के भाई की हैसियत क्या है और उसकी पसंद कितनी ऊँची है?”
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