मुहल्ले की कुतिया ने दो पिल्लों को जनम दिया। उन पिल्लांे की परवरिश माँ के दूध से होती या फिर मुहल्ले की गलियों में कुछ गिरे-बिखरे मिल जाते तो उनसे होती। पिल्ले खुश थे। वे हमेशा खुशी से कूदते-फाँदते रहते। कभी मां के ईर्द-गिर्द तो कभी मुहल्ले की गलियों में।
एक दिन मुहल्ले के एक भले मानस को उन मासूम पिल्लों पर दिल उमड़ आया। उन्होंने उन पिल्लों को अपने पास रखकर उनकी अच्छी परवरिश करने की ठानी। उन्होंने एक दिन मौका ताड़कर पिल्लों को उनकी मां से चुरा लिया। पिल्लों की आवारागर्दी खत्म हो, इसके लिए उनके गलों में रेशमी पट्टे लपेट दिए गए। वे पिल्ले भले मानस के घर में स्थिर हो गए। उनके खाने का विशिष्ट इंतजाम हुआ। पिल्ले भूखे होते तो दिए गए भोजन को चाव से खा लेते।
भले मानस को बड़ा संतोष रहता कि उन्होंने इन पिल्लों के साथ जानवर-प्रेम का धर्म निभाया है। उनके घर आए अतिथि भी पिल्लों की दशा पर खुशी और राहत प्रकट करना नहीं भूलते। वे कहते, ‘‘देखो, इन पिल्लों के साथ कितना अच्छा हुआ। ये कितने प्रसन्न और आनन्दित हैं।’’
मगर वे पिल्लों की उन आँखों को नहीं देख पाते जहां घनीभूत उदासी पसर गई थी और जिनके किनारों में आँसू की बूँदें हमेशा छलछलाती रहतीं।
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आजा़दी
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