दिन की शुरुआत ही अटपटी हुई थी।
ऑफिस के लिए निकल रहे थे कि बिल्ली ने रास्ता काट दिया।रुकना मुमकिन नहीं था। मन किसी अपशकुन की आशंका से खटक गया।
बस में चढ़े तो एक खाली होती सीट को कब्जियाने के चक्कर में सहयात्री से तू तू मैं मैं हो। आधे घंटे का सफ़र गरमागरम बहस में ही गुजरा। भागते – दौड़ते ऑफिस पहुंचते पंद्रह मिनट की देर हो ही गयी। एस.ओ.की व्यंग्यात्मक टिपण्णी ने भीतर के फनफनाते आक्रोश में घी का काम किया।
रात में लोडशेडिंग की वजह से नींद पूरी नहीं हो सकी थी। काम में छिटपुट गलतियाँ होती रहीं और बॉस की डाँट झेलनी पड़ी।
शाम को ऑफिस से निकल कर बस स्टॉप की ओर बढ़ रहे थे कि बायाँ पाँव न जाने कैसे लड़खड़ाया और ओंधे मुँह जमीन पर गिर पड़े। हाथ का ब्रीफकेश दूर छिटक गया। घुटने और कोहनियाँ छिले सो अलग।
मन गहरे आक्रोश से धुआँने लगा। आँखें क्रोध से सुलग उठीं। शिराएँ तनतना गईं। दाँत किटकिटाते हुए तेज तेज साँसें लेने लगे।
घर वाली गली में प्रवेश करते ही क़दमों में तेजी आ गयी। माँ दरवाजे पर ही खड़ी थी। लंबी फुफकार छोड़ते भीतर की ओर बढ़ गए। सामने जवान बहन दिखी। वे और आगे बढे। आँगन में टिंकू खेल रहा था। उसके आगे कमरे की दहलीज पर पत्नी मुस्कुराती खड़ी थी। पत्नी पर नजर जाते ही आँखों के आगे झपाका हुआ और पत्नी ‘पन्चिंग बैग’ में रूपांतरित होती चली गई। वे फनफनाते हुए आगे बढे, पंचिंग बैग को ‘पोनी टेल’ से पकड़ा और आठ-दस करारे हाथ कंधे और पीठ पर जमा दिए।
मन रुई की तरह हल्का हो गया। धौंकनी सी तिलमिलाती साँसें सम पर आ गईं। चेहरे पर विजेता के से भाव खिल आये। लुंज- पुंज बैग पर नया आदेश उछालते हुए पलंग पर ढह गए – “अब चाय वाय भी लाओगी या यूँ ही पड़ी रहोगी..।”
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