एक वृद्ध मजदूर , जो अपनी बूढ़़ी किन्तु चमकती आँखों में आज से नब्बे वर्ष तक का इतिहास समेटे हुए था। भोजनावकाश में एक पेड़ की छाँव के नीचे सत्तू सानकर आनंद के साथ खा रहा था। मैं उसे बड़े ध्यान से देख रहा था। जैसे ही इसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी कहने लगा, ‘‘आओ, बाबू आओ! तुम भी पियो।’’ और उसने अपने साने हुए सत्तू का आध हिस्सा मेरी ओर बढ़़ा दिया।
मैंने कहा,‘‘नहीं! मैं तो भोजन करके आया हूँ।’’
सत्तू खाते-खाते बोला,‘‘तुम बाबू रोज यहाँ आते हो ….क्या करते हो?’’
मैंने कहा,‘‘मैं लेखक हूँ … कहानियाँ लिखता हूँ …. मजदूरों के जीवन पर कुछ लिखना है
…. बस इसलिए रोज उनके जीवन एवं संघर्ष को देखने आता हूँ।’’
‘‘हूँ! संघर्ष मजदूरों का और उन पर कहानी लिखकर पैसा तुम कमाओगे।’’ उसकी आँखों में चमक बढ़ गई और मैं निरुत्तर हो गया। मुझे चुप देखकर वह भी चुप रहा और सत्तू खाकर हाथ धेने लगा।
पानी पीकर पुनः मेरी ओर मुखातिब हुआ,‘‘देखो बाबू! मैं तुम्हारी तरह बहुत पढ़़ा-लिखा तो नहीं, मगर जिन्दगी की किताब खूब गहराई से पढ़़ी है और आठवीं क्लास तक अक्षर-ज्ञान भी लिया है।’’
‘‘उस जमाने की आठवीं तो बहुत है ….।’’ -मैंने उसे प्रसन्न करने हेतु कहा।
मुझे आठवीं पढ़़ने का गर्व नहीं …. जीवन पढ़़ने-समझने का गर्व जरूर है …. आज भी मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे-अच्छे एवं बड़े-बड़े लोगों से है …. किसी के भी पास चला जाऊँ, रहने-खाने की कमी नहीं रहेगी …. मैंने उनके साथ स्वतंत्रता-संग्राम को बराबर झेला है।’’
‘‘तो फिर यह मजदूरी? उन लोगों के पास जाकर आराम का जीवन व्यतीत करना चाहिए …नब्बे वर्ष की उम्र में ……. यह मेहनत।’’
‘‘नहीं जाता हूँ….कहीं उन लोगों ने भी मेरे पुत्रों की तरह नजरें फेर लीं तो ….. आज जो मेरे पास भ्रम की पूँजी शेष है ….. डरता हूँ कहीं वह भी न लुट जाए।’’ इतना कहते हुए वह पुनः अपने काम में जुट गया।
-0-