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मेरी पसन्द

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आज जब अधिकतर  लोगों में पठन-पाठन की रुचि का अभाव होता जा रहा है, तब ऐसे में लघुकथाएँ बहुत बड़ी भूमिका निभा रही हैं । आकार में छोटी होने के कारण इन्हें पाठक एक ही बैठक में सहजता से पढ़ ले जाता है और साहित्य के रस को महसूस करते हुए अपने ज्ञान और भावनाओं को समृद्ध करता है । लघुकथाएँ अपने समय की मुखर अभिव्यक्ति करती हुई मानवीय मूल्यों का भी पड़ताल करती हैं । इनकी मुख्य विशेषता है कि ये बिना किसी शाब्दिक ताम-झाम के, बिना किसी दार्शनिक लाग-लपेट के, सरल शब्दों में अपना ध्येय स्पष्ट कर देती हैं, इसलिए इनका सन्देश बहुत देर और दूर तक जाता है । इस दृष्टि से इनकी रचना एक जिम्मेदारी भरा कार्य होता है । ये पढ़ने में जितनी सहज लगती हैं सृजन में उतनी ही कठिन होती हैं, क्योंकि कम शब्दों में इन्हेँ अधिक से अधिक धारदार और प्रेषक बनाना पड़ता है तभी ये अधिक प्रभावी साबित हो सकती हैं ।

एक ओर जहाँ ये अपने संदेशों से पाठक को सचेत और जाग्रत करती हैं वहीं लोगों में पढ़ने की रुचि भी जगाती हैं । लघुकथा पढ़ते-पढ़ते पाठक लंबी कहानियों तथा आलेखों आदि को पढ़ने की ओर भी मुड़ने लगता है । आजकल साहित्य में ये विधा बहुत लोकप्रिय होती जा रही है ।

मेरी पसंद की लघुकथाओं में पहला नाम रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की लघुकथा ‘ ऊँचाई’ का आता है ।

ये कहानी बहू की झुंझलाहट भरी आवाज से शुरू होती है और स्नेह की उस ‘ ऊँचाई’ तक जाती है, जहाँ बेटे के पास पिता से कहने के लिए कुछ नहीं बचता, बस पिता के प्रेम की गर्माहट को महसूस करते हुए नजरें झुका लेता है ।

यह कथा ये साबित करती है कि बच्चे कितने भी बड़े और समझदार हो जाएँ ,किंतु उनकी समझ पिता की सोच और समझ का अतिक्रमण नहीं कर सकती । बेटे बहू माँ – बाप से ठीक से रिश्ता भी नहीं निभा पाते,किंतु बच्चों के प्रति माँ – बाप के प्रेम का ज्वार कभी थमता ही नहीं । माँ-बाप पढ़े लिखे हों या अनपढ़, अपने बच्चों की परेशानी को समझने में उनसे चूक नहीं होती ।

ये कथा माँ-बाप के लिए उत्तरोत्तर प्रतिकूल होती परिस्थितियों तथा बच्चों की मानसिक स्थिति को तो दर्शाती ही है, पिता बच्चों के लिए हमेशा वटवृक्ष की छाँव बन सकता है यह एहसास भी दिला जाती है । लेखक ने इस लघुकथा में रिश्तों की मधुरता को बढ़ाने का प्रयास तो किया ही है साथ ही मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है ।

दूसरी लघुकथा जो मुझे पसंद है वो है, मीनू खरे की लिखी ‘गौरैया का घर’ । सीमेंट कांक्रीट के जंगल बने महानगर में रह रहा नीटू अपनी माँ से गौरैया के बारे में पूछता है । माँ के चिड़िया कहने पर वह कहाँ रहती है ये पूछता है , माँ असमंजस में है । उनके लिए ये आसान नहीं है कि वे नवीं मंजिल की बालकनी से बेटे को गौरैया का घर दिखा सकें । पर उनके पास लैपटाप है, वे बेटे को लेकर अंदर आती हैं और गूगल में  खोज कर गौरैया दिखा देती हैं। अगले दिन क्लास में टीचर जानवरों पक्षियों के घर का नाम बता रही थीं । जैसे ही टीचर के मुँह से निकलता है कि – गौरिया के घर को …  टीचर के वाक्य को बीच में ही काट कर नीटू चिल्लाता है – गौरैया के घर को गूगल कहते हैं ।

महानगर के बच्चों से बहुत कुछ छूट रहा है । विकास की यही विडम्बना है जब हम उसकी ओर आगे बढ़ते हैं तो भौतिक सुख साधनों में तो वृद्धि होती है, किंतु हमारे पास से बहुत कुछ लुप्त हो जाता है । ये कथा हमें आगाह करती है कि समय रहते हमें सचेत हो जाना चाहिए, नहीं तो हम आने वाली पीढ़ी को विरासत में संपत्ति के सिवा कुछ नहीं दे पाएँगे और हमारे जीवन में बस एक सत्य, एक अनिवार्यता रह जाएगी और वह है गूगल की ।

1-ऊँचाई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी– “लगता है, बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आनेवाला था! अपने पेट का गड्ढ़ा भरता नहीं, घरवालों का कहाँ से भरोगे?” मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफ़र की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हा्थ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाते वक्त रोज भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबूजी को भी अभी आना था।

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आये होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र। “सुनो” कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं सांस रोकर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर भी फुर्सत नहीं मिलती। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।” उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए, “रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। धान की फसल अच्छी हो गई थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमजोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फंसकर रह गये हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डांटा, “ले लो। बहुत बड़े हो गये हो क्या?”

“नहीं तो।” मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर अठन्नी टिका देते थे, पर तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

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 -गौरैया का घर /मीनू खरे

 सृष्टि अपर्टमेंट्स की 9वीं मंज़िल की बाल्कनी में खड़े नन्हे नीटू ने मानसी से पूछा- “माँ गौरैया कैसी होती है?”

मानसी ने बताया “गौरैया एक चिड़िया होती है।”

“माँ गौरैया कहाँ रहती है?”

“गौरैया पेड़ों पर रहती है और फुदक-फुदक कर चूँ- चूँ बोलती है।”

“पेड़ तो हमारे अपर्टमेंट्स में नही है माँ ,फिर गौरैया कहाँ रहती होगी ? कहाँ चूँ-चूँ बोलती होगी? नीटू ने परेशान हो कर पूछा।

“आँगन में चूँ-चूँ बोलती है गौरैया” मानसी ने बात टालते हुए कहा।

“आँगन क्या होता है माँ?” नीटू ने अगला प्रश्न बिना देरी किए दागा।

ऑफ़िस से थककर चूर हो लौटी मानसी में नीटू के प्रश्नों की रेलगाड़ी को हरी झंडी दिखाने की की ताब नहीथी।उसने अपने चारों ओर उगे कंक्रीट के जंगल पर एक चुभती निगाह डाली और नीटू को लेकर कमरे में आ गई।नीटू अब भी मचल रहा था -“माँ मुझे गौरैया देखनी ही है।”

“अभी दिखाती हूँ बेटे।” कहकर मानसी  ने तुरंत लैपटॉप आन किया।गूगल खोलते ही गौरैया सामने थी।फुदकती गौरैया देख नीटू ताली बजाने लगा।

अगले दिन क्लास में टीचर पढ़ा रही थीं।

“शेर के घर को माँद कहते हैं।”

“चूहे के घर को बिल कहते हैं।”

“मधुमक्खी के घर को छत्ता कहते हैं।”

“गौरैया के घर को …”-टीचर के वाक्य को बीच में ही काट कर नीटू चिल्लाया -“गौरैया के घर को गूगल कहते हैं।”

   –०-मीनू खरे,स्टेशनहेड, आकाशवाणी,बरेली


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