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रचनाकार ऑर्ग लघुकथा लेखन पुरस्कार-2019

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1- मार्टिन जॉन

डिजिटल स्लेव

मेट्रो सिटी में जॉब करने वाले बेटे ने मम्मी- पापा के जर्नी प्रोग्राम के मुताबिक ऑनलाइन ई-टिकट बुक कर उसे पापा के मोबाइल में फॉरवर्ड कर दिया।

नियत समय पर मम्मी-पापा मेट्रो सिटी पहुँच गए। उस मेट्रो सिटी के एक अपार्टमेंट की पाँचवी मंज़िल पर बेटे ने फ़्लैट ले रखा था।

फ्रेश होने के बाद पापा को चाय की सख्त तलब महसूस हुई। उन्होंने मम्मी की और देखा। मम्मी समझ गई। फ़ौरन किचन में दाख़िल हो गई। चारों ओर नज़र घुमाकर जब उन्होंने देखा तो पाया कि गैस सिलिंडर , ओवेन और दो चार बर्तनों के अलावा वहाँ कुछ नहीं है।

“क्या खोज रही हो मम्मी?”

“बेटा , पापा को इस वक़्त चाय पीने की आदत है न! लेकिन यहाँ तो कुछ नहीं है।”

बेटे ने तत्काल फ़ोन घुमाया। दस मिनट बाद डोरबेल बजी। तीन कप चाय हाज़िर!

“लंच का क्या करेंगे बेटा? घर में तो राशन-पानी है ही नहीं , बनाउँगी क्या?”

“डोंट वरी मम्मी! अभी ऑर्डर कर देता हूँ।”

घंटे भर के अंदर लंच का पैकेट लेकर डिलीवरी ब्वॉय दरवाजे पर खड़ा हो गया।

अगली सुबह पापा ने बेटे से कहा , ‘बेटा यहाँ कोई आस-पास बुक स्टॉल है क्या?”

“क्यों?”

“अखबार खरीद कर ले आता ……इसी बहाने थोड़ा मॉर्निंग वॉक भी हो जाता।”

“इस अपार्टमेंट की छत बहुत बड़ी है पापा , वहीँ जाकर वॉक कर लीजिएगा। …..और ये लीजिए आज का न्यूज़ पेपर।” बेटे ने अपने लेपटॉप में ई-पेपर निकाल कर पापा के सामने रख दिया।

उसी समय मम्मी ने इच्छा जाहिर की , “बेटा , रेस्टोरेंट का खाना हमारी सेहत के लिए ठीक नहीं रहेगा। चल न हमारे साथ बाज़ार! राशन , सब्जियाँ  और कुछ बर्तन ले आते हैं। मैं रोज़ खाना बनबनाऊँगी।”

“मार्केट जाने की क्या ज़रूरत है मम्मी। मार्केट को यहीं बुला लेते हैं।”

उसने अपने स्मार्ट फ़ोन पर अंगुलियाँ  फिरायी। कुछ देर बाद सब्जियों और राशन के पैकेट लेकर डिलीवरी ब्वॉय सलाम ठोंककर मुस्करा रहा था। एक दूसरा डिलीवरी ब्वॉय किचन एप्लाइंस दे गया।

चार दिन हो गए| ऑनलाइन ज़िन्दगी ने उन्हें फ़्लैट के अन्दर ही बंद पड़े रहने को मजबूर कर दिया था। उन्हें बेहद उकताहट सी महसूस होने लगी थी। ख़रीदारी के बहाने थोड़ा घूमने- फिरने की इच्छा लिए उस शाम मम्मी ने कहा , “बेटा चल न मार्केट! …सोचती हूँ बड़े भईया के बच्चों के लिए कुछ ड्रेसेस लेती आऊँ।“

बेटा फ़ौरन लेपटॉप लेकर मम्मी के पास बैठ गया और गार्मेन्ट का पूरा बाज़ार खोल दिया , “लो मम्मी , देखो और पसंद कर लो। इमीडियट ऑर्डर कर देता हूँ । दो- तीन दिनों के अंदर डिलीवरी हो जायेगी।”

उस रात फ़्लैट के एक कमरे में बेटा अपना मेल बॉक्स खंगालने में मसरूफ़ था। दूसरे कमरे में मम्मी और पापा बिस्तर पर पड़े-पड़े बगैर किसी संवाद के सफ़ेदी पुती छत के उस पार चांद-सितारों भरे खुले आसमान की कल्पना में खोये हुए थे। अचानक उन्हें लगा उनके ढलती उम्र के शरीर में नामालूम –सा कोई डिवाइस समाता जा रहा है। घबडाकर वे दोनों एक दूसरे की बाहों में समा गए।

अगली सुबह ही तय प्रोग्राम के विपरीत वे दोनों रवानगी की तैयारी में लग गए।

-0-martin29john@gmail.com

2-महेश शर्मा

ज़ायका

आज भी ऑफिस में वह देर तक व्यस्त रही थी।

घर लौटते समय, रास्ते में उसने बच्चों को फोन लगाया -‘‘तो आज डिनर में क्या खाना है?’’

दूसरी ओर से बच्चों की फरमाइश शुरू हो गई -‘‘मम्मा आज पनीर बटर मसाला – नहीं नहीं – मेरे लिए तो मेथी मलाई मटर और स्टफ्ड पराँठा – नो मॉम – मुझे स्टिर फ्राई ब्रोक्ली खाना है – मम्मा मन्डे को जो मिक्स वेज खाई थी न, आज भी वही खाने का मन है – और कल वाला डिज़र्ट भी – ’’

उसकी  अँगुलियाँ  अपने फोन पर तेज़ी से चलने लगीं। गाड़ी चला रहे पति ने टोका, ‘‘आज मेरे फोन से फूड ऑर्डर करो। नया ऐप इंस्टाल किया है। पहले ऑर्डर पर फोर्टी पर्सेंट डिस्काउंट है।’’

-‘‘हुँह! नो वे! मेरा वाला ऐप मुझे रोज़ डिस्काउंट दे रहा है। छह ऑर्डर पर दो कॉम्बो मील्स फ्री!’’

-‘‘सुना है, तुम्हारे वाले ऐप के डिलीवरी बॉय, पैकेट में से थोड़ा खाना चुरा कर खा जाते हैं’’, पति मुस्कुराया, ‘‘पता नहीं, हम और हमारे बच्चे रोज़ाना, किस किस की, जूठन खा रहे हैं।’’

वह झल्ला उठी -‘‘व्हाट रबिश यार! यह सब बकवास है। ऐसा कभी नहीं होता।’’

पति  हँस पड़ा। वह फिर से डिनर ऑर्डर करने में मशगूल हो गई।

वे घर पहुँचे तो, डिलीवरी बॉय उनकी बिल्डिंग के बाहर खड़ा मिला। किशोर अवस्था का वह लडका, शायद नया था और उस आलीशान बिल्डिंग में घुसने से झिझक रहा था।

उसने गाड़ी से उतर कर लड़के से खाने के पैकेट लिये और अभी उसे पैसे दे ही रही थी कि एकाएक रुक गई –

-‘‘यह पैकेट, यहाँ  से थोड़ा खुला हुआ क्यों है?’’ -लड़के को घूरते हुए उसने पूछा।

लड़का हड़बड़ा गया -‘‘हमें तो ऐसे ही पैकबंद दिया गया था मैडम।’’

-‘‘तुमने इसमें से कुछ खाया है न?’’ वह कठोर स्वर में गुर्रायी।

– ‘‘नो मैडम! भगवान की कसम!’’- लड़का घबरा गया, ‘‘हम तो छुए तक नहीं !’’

उसने खाने के पैकेट्स वहीं  फेंक दिए और गुस्से में पैर पटकती हुई बिल्डिंग में चली गई ।

पति मुसकुराते हुए, अपने फोन से ख़ाना ऑर्डर करने लगा।

लड़का कुछ देर तक तो सहमा सा खड़ा रहा, फिर हिम्मत जुटाकर बोला -‘‘साब, हम यह सब खाना नहीं खाते हैं – भगवान की कसम सा’ब! हम तो बस अपनी अम्मा के हाथ का बना ही —’’

वह एकाएक चुप हो गया।

फोन पर तेज़ी से चल रही, पति की  अँगुलियाँ  ठिठक गईं।

-0-maheshtheatre@gmail.com

3-पवन जैन

एक टोकरी सब्जी

पति से लड़ -झगड़कर, फिर तर्क- वितर्क से समझा- बुझा का उसने निर्णय कर ही लिया कि सब्जी बेचने वह खुद ही शहर जाएगी ।

शाम को ही सब्जियाँ  तोड़ कर टोकरी तैयार कर ली थी. सुबह जल्दी से घर का काम निपटा कर आठ बजे की पेसेंजर पकड़ ली।

टोकरी से झाँकती ककड़ी को निकालते हुए रेलवे पुलिस के सिपाही ने पूछा “यह किसकी टोकरी है?”

सिर ऊपर कर मरी आवाज में बोली “मेरी है।” नजरों के वार को झेलते हुए गाड़ी की खड़र-बड़र में विचारों के झोंकों संग आगे बढ चली।

फुटपाथ पर टोकरी रखकर बैठने को हुई कि पीछे से आवाज गूँजी:”ऐ बाई!  इधर कहाँ बैठ रही मेरी दुकान के सामने?”

“दुकान से इतने दूर सड़क पर तो बैठे है।”

“सामने से थोड़ा एक तरफ हठ जाओ।”

इसमें ही भलाई समझ थोडा  बाजू में खिसक गई।

“क्या लाई हो दिखाओ तो जरा?” नई सूरत और ताजी सब्जी देख दुकानदार नरम पडा़।

सवा किलो ककड़ी को एक किलो तुलवा कर, अभी देते है का आश्वासन देकर वापिस अपनी दुकान जमाने में लग गया।

एक अधेड़ नजरों से उसका जायजा लेने लगे और छोटी ककड़ी उठा कर मुंह में डालते हुए “ककड़ी क्या भाव? ताजी है …,नई आई हो…! ” प्रश्नों को उछाल दिया।

“ये लो बाई बैठकी की रसीद।”

नगरपालिका कर्मचारी ने रसीद बढाते हुए कहा।

“बैठते ही जा रहे भईया, अभी बोहनी  तक नहीं हुई।”

नई बहिन को देखकर उसने भी नरमी दिखाई, “थैली में आधा किलो ककड़ी डाल दे, अभी आते हैं, तब तक फुटकर रखना।”

अपनी टोकरी की सब्जियाँ   सजाते हुए सोच रही सुबह से ढाई किलो ककड़ी निकल गई एक पैसा नहीं मिला।

ग्राहकों के मोल-भाव, जुमले और नसीहते सुनते – सुनते टोकरी खाली होने लगी।

दिनभर की धूप से सब्जी को तो बचाये रही पर शाम होते खुद ही कुम्हलाने लगी लिजलिजी छुअन और टटोलती नजरों की जलन से।

पेट में दो समोसे डाल कर सपनों की डोर पकड़े  वापसी को शाम की गाड़ी में सवार हो गई।

उसके कानों में वह जुमले अभी भी गूँज रहे “किसानों को सीधे खरीदार से जुड़ना चाहिये, किसानों को लागत मूल्य का दो गुना मिलना चाहिये, छोटे किसानों से मोलभाव नहीं करना चाहिए…”

घर पहुँच कर नीची नजरों से, सब्जियों की बिक्री से मिले चंद रुपये पति के हाथ पर रख दिये, पर सब्जियों के साथ और क्या बेमोल बिक गया बता न सकी।

-0- jainpawan9954@gmail.com

4-ज्ञानदेव मुकेश

 1-अपरिचय

शाम का समय था। मैं घर पर था। तभी कॉल बेल बजी। मैंने दरवाजा खोला। सामने एक लड़का हाथ में कार्ड लिए खड़ा था। उसने कार्ड मेरी तरफ बढ़ाया और कहा, ‘‘मैं फ्लैट नंबर 502 से आया हूँ । मेरे साहब के बेटे का कल शाम होटल पनास में बर्थ डे पार्टी है। साहब ने कहा है, जरूर आईएगा।’’

मैंने कार्ड लेकर दरवाजा बंद किया। मैंने पत्नी को कार्ड देते हुए कहा, ‘‘हम उन्हें जानते नहीं है। पहले से कोई परिचय नहीं है। क्या पार्टी में जाना ठीक रहेगा ?’’

हमारे फ्लैट के सामने मि0 शर्मा रहते थे। मेरी पत्नी उनकी पत्नी से परिचित थी। मेरे पत्नी उनके पास गई। उन्होंने कहा, ‘‘इस तरह की पार्टी में हम सभी जाते हैं। आप लोग भी चलिए।’’

पत्नी ने आकर यह बात बतलाई। मैंने कहा, ‘‘ठीक है। चलो चलते हैं पार्टी में।’’

हमलोग अगले दिन गिफ्ट लेकर होटल पनाश पहुँच गए। होटल के एक बड़े हॉल में बर्थ डे पार्टी का आयोजन किया हुआ था। तीन सौ से ज्यादा लोग आए हुए थे। स्टेज को काफी सुरुचिपूर्ण तरीके से सजाया गया था। ढेर सारी लाइटें जगमगा रहीं थीं। स्टेज पर कई बच्चे-बच्चियाँ  हल्के-फुलके तरीके से नाच रहे थे। उन्हीं में एक लड़का काफी सजा-संवरा था। हम समझ गए, यही बर्थ डे ब्वाय है। हम स्टेज पर गए, उसे बर्थ डे विश किया और गिफ्ट देकर वापस अपने स्थान पर आ गए। हम उनके माता-पिता से भी मिलना चाह रहे थे। मगर उन्हें हम पहचान नहीं पा रहे थे। हॉल में हमारे लिए सभी अपरिचित थे। उनसे बच्चे के माता-पिता के बारे में पूछना ठीक नहीं लग रहा था।

तभी स्टेज पर एक बड़ा-सा केक आया। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बीच बर्थ डे ब्वाय ने केक काटा। कई कैमरे चमके और बर्थ डे गीत बजने लगा।

इधर खाने के स्टॉल भी तैयार थे। इससे पहले कि भीड़ बढ़े, हम स्टॉल की तरफ बढ़ गए। खाना बेहद स्वादिष्ट बना था। हमने छककर हर चीज खाई। खाकर बड़ा मजा आया और आत्मा तक तृप्त हो गई। अब हम लौटने की सोचने लगे। लेकिन मन में एक कसक-सी हो रही थी। मैंने पत्नी से कहा, ‘‘बच्चे के माता-पिता से भेंट हो जाती और थोड़ा परिचय हो जाता तो बड़ा सही रहता।’’

पत्नी ने कहा, ‘‘उन्हें अब भीड़ में कहाँ  खोजोगे ओर कैसे पहचानोगे। मैंने गिफ्ट पर अपना नाम और फ्लैट नंबर लिख ही दिया है। वे गिफ्ट देखकर समझ ही जाएँगे कि फ्लैट नंबर 301 वाले आए थे।’’

इस बात से मुझे थोड़ी तसल्ली हुई। हम हॉल से बाहर निकल आए और कार में बैठकर घर लौट गए।

अगले दिन की घटना है। मैं लिफ्ट से बाहर निकल रहा था। तभी एक सज्जन लिफ्ट तक आते दिखे। वे मेरे निकट आए। बेहद ऑपचारिक तरीके से ‘हेलो-हाय’ हुआ। उन्होंने मुझे गौर से देखा और कहा, ‘‘आपको कल पार्टी में नहीं देखा।’’

मैंने कहा, ‘‘मैं तो कल पार्टी में गया था। खूब इन्जवाय किया। वैसे आप कौन ?’’

वे हंसने लगे। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे नहीं पहचाना ? मैं बर्थ डे ब्वाय का पिता।’’

मैं शर्म से गड़ने लगा। मैंने कहा, ‘‘सॉरी ! मैं आपको पहचान नहीं पाया। पहले कभी परिचय नहीं हुआ था न !’’

उन्होंने हाथ मिलाया और कहा, ‘‘कोई बात नहीं। ग्लैड टू मीट यू।’’

हम दोनों कुछ देर हाथ मिलाते रहे और ओढ़ी हुई मुस्कुराहट छोड़ते रहे। तभी उन्होंने हाथ छुड़ाया और लिफ्ट की तरफ बढ़ गए। मैं भी आगे बढ़ गया।

तभी मुझे खयाल आया, ‘अरे ! मैंने तो उनका नाम पूछा ही नहीं। और यह देखो, उन्होंने भी मेरा नाम नहीं पूछा। यह भला कैसा परिचय हुआ ?’’

मैं रुका और तेजी से पीछे मुड़ा। मगर मैंने देखा वे पल भर में ओझल हो गए थे। लिफ्ट ऊपर जा चुकी थी।

-0-gyandevam@rediffmail.com

5-अर्चना राय

क्वॉलिटी टाइम

अरसे बाद दोनों घर में अकेले थे। मौसम भी सुहाना हो रहा था। घने बादल, ठंडी हवा के साथ रिमझिम बारिश की फुहारें कुछ अलग ही समां बांध रही थी। पति हमेशा की तरह कमरे में आफिस की फाइलों में व्यस्त थे।

” यह लीजिए, चाय के साथ आपके पसंद के प्याज के पकोड़े”- पत्नी ने पकौड़ा उनके मुँह में डाल कर,  मुस्कुराते हुए कहा।

कितने समय बाद आज वे पत्नी को भर नजर देख रहे थे। अचानक उनके मशीनी शरीर में इंसानी स्पंदन महसूस होने लगा। आज पत्नी कुछ ज्यादा ही सुंदर लग रही थी या वे ही थोड़ा रूहानी हो रहे थे, कहना मुश्किल था।

” तुम भी तो मेरे पास आकर बैठो”- पत्नी का हाथ प्यार से पकड़ते हुए कहा।

” अरे आप खाइए, मुझे रसोई में काम है “-पत्नी ने बनावटी आवाज में कहा।

” बैठो न, आज हम कितने दिनों बाद, घर में अकेले हैं, वर्ना सारा दिन घर और बच्चों में व्यस्त होती हो”

” आपके पास भी कहाँ  टाइम रहता है, दिन भर ऑफिस, और घर पर भी फाइलों में ही डूबे रहते हैं”

” क्या करूँ ? इस बार मुझे प्रमोशन चाहिए ही है, तीन साल हो गए एड़ी चोटी का जोर लगाते, अब तो मेरे जूनियर भी मुझ से आगे निकल गए हैं”

” चिंता न कीजिए ,इस बार आपको जरूर तरक्की मिलेगी ,मैंने भगवान से प्रार्थना की है”

“अच्छा यह सब छोड़ो, आओ कुछ अपनी बातें करते हैं”- पति ने शरारत से आंखें चमकाते हुए कहा।

ठंडी हवा के झोंके ने आकर सोंधी खुशबू से कमरे को भर दिया।

” हटिए न आप भी” -पत्नी के गाल शर्म से लाल हो गए।

” सुनो न मुझे तुमसे कुछ कहना है”- पति ने प्यार से कहा।

” अरे हाँ ! याद आया मुझे भी आपसे कुछ बताना है”- अचानक से पत्नी के चेहरे का गुलाबी रंग उड़ गया।

“कह…”

बिट्टू के स्कूल से फीस भरने का नोटिस आया है ,पूरे पांच हजार भरने हैं”- पत्नी ने चिंतित होते हुए कहा।

कमरे में फैली खुशबू कुछ कम सी होने लगी। पति के चेहरे पर भी चिंता की लहर दौड़ गई।

” सब इंतजाम हो जाएगा”- अपने आप को संभाल कर पुनः पत्नी को बैठाते हुए बोला।

“और हाँ , गाँव से भी माँ जी का फोन आया है, इस बार फसल खराब हो गई है, तो साल भर का अनाज नहीं भेज पाएंगी, उसका इंतजार हमें ही करना पड़ेग॥”

” अच्छा” पति का चेहरा अब तनाव ग्रस्त हो गया।

” कल मकान मालिक भी धमका रहा था ,पिछले महीने, चाचा की बेटी की शादी ने घर का सारा बजट ही बिगाड़ दिया है”- पत्नी अपनी धुन में कहे जा रही थी।

” हाँ  हाँ  देखता हूँ  “-अचानक से पति ने पत्नी का हाथ छोड़कर, फाइल उठा कर पन्ने पलटने लगा।

” अरे! आप भी तो कुछ कह रहे थे न”- पत्नी ने कुछ सोचते हुए कहा।

ऊँ.. हाँ  कल से ऑफिस के डब्बे में दो रोटियाँ  और ज्यादा रख देना, सोचता हूँ  ओवरटाइम शुरू कर लूँ।”

अब कमरे से खुशबू पूरी तरह उड़ चुकी थी। और धीरे-धीरे उसका इंसानी शरीर मशीन में तब्दील होने लगा।

-0-archana.rai1977@gmail.com

6- भगवान वैद्य ‘प्रखर’

 हर बार

अभी-अभी सुनहरी धूप खिली थी। सड़क पर आवागमन तेजी पकड़ने लगा था। सड़क किनारे के मैदान में उगी झुग्गियों में दिन भर की योजनाओं पर विमर्श चल रहा था। ऐसी ही एक योजना सुनाई दी:

“कल वो सुबह वाले खेल में तो तुमने कमाल कर दिया, बिन्नी…। रस्सा टूट गया ,तो तुमने कब उसका सिरा थाम लिया और कब उस पर झूल कर आखिरी छोर पर पहुँच गई, पता ही नहीं चला। दर्शकों को लगा, वह तुम्हारे खेल का ही हिस्सा है। कितनी तालियाँ  बजी, बाप रे…! सब से ज्यादा रकम मिली उस शो में ।”

“नीचे गिरती तो मैं मर ही जाती मम्मी…। बाबा और भैया ने रस्सा खूब ऊँचाई पर बाँधा था। नीचे देखो तो चक्कर आता था।”

“अरे तो बाँस की कैंची का एक बाँस ऐन समय पर टूट गया था बिटिया, इस कारण बाबा ने दूसरा छोर पेड़ पर लटका दिया था। …पर आज ऐसा नहीं होगा। बाबा दूसरे नए बाँस खरीद लाए हैं। आज रविवार है। मार्केट में चार-पाँच जगह रस्सी लगाएँगे। बाबा ने ढोल भी खूब सेंक लिये हैं। भैया और बाबा जम के ढोल बजाएँगे। तुम छड़ी पकड़कर नाचते-नाचते आराम से रस्सी पार करना। जल्दी मत करियो। लोग-बाग साँस रोककर देखते रहते हैं। जितना अधिक समय लगाओगी रस्सी पार करने में, उतना अधिक असर होता है लोगों पर और उतनी ही उनकी जेब ढीली होती जाती है। और हाँ , कित्ती भी ऊँचाई हो, जमीन की ओर मति देखियो। वाही से आँखों के आगे अँधेरा छाने लगता है और तोल बिगड़ जाता है।” कहते-कहते मम्मी ने दो चाकलेट और बढ़ा दिये, बिन्नी की ओर।

बिन्नी का मन नहीं हुआ चाकलेट उठाने का। उसने एक बार ऊपर उठते सूरज की ओर देखा मानों उससे कुछ ऊर्जा बटोर रही हो। फिर कहा, “मम्मी, आप लोग हर बार मुझे ही क्यों चढ़ाते हों, रस्सी पर ? कभी भैया को क्यों नहीं चढ़ाते?”

“पूरे टोले में देखा है क्या कभी किसी लड़के को रस्सी पर खेल दिखाते? बड़ी स्यानी बनती है…! चल झट नहा ले। मैं गरम पानी निकाल देती हूँ ।” मम्मी ने कहा और उठकर बाहर खुले में जल रहे चूल्हे के नीचे की आंच तेज कर दी।।”

-0-vaidyabhagwan23@gmail.com

7-सुधा शर्मा

चश्मा मिल गया

रेलगाड़ी ने रेंगते- रेंगते धीरे- धीरे स्टेशन छोड़ दिया था। और अपने स्वभावानुसार छुक- छुक करते हुए स्पीड पकड़ ली थी। लेकिन सुषमा अब भी दूर होते हुए मुम्बई के स्टेशन को देख रही थी। भावुकता में उन्होंने चश्मा हटाया और आँखों में छलक आए मोतियों को रूमाल में समेट लिया। पास ही बैठे पति ने बड़े प्यार से व्यंग्यात्मक शब्दों में कहा-” मन भारी क्यों करती हो, एक- दो महीने बाद फिर आ जाना बहू से सेवा कराने।

पति के शब्द थोड़े तीखे थे लेकिन सत्य थे। बहू तो उन्हें पसन्द ही नहीं करती थी, यदि दस-पन्द्रह दिन के लिए किसी मजबूरी में बहू उनके पास आ जाती या वो उनके पास जाती तो सुषमा को अपने हाथों से ही काम करना पड़ता । उसके बाद भी बहू का व्यवहार ठीक नहीं था। कहते है कि प्यार से सबको जीता जा सकता है -इसी कहावत को चरितार्थ करने में सुषमा और मि. शर्मा लगे थे। बेटे ने भी सारे उपाय करके देख लिये थे। सुषमा अपना कर्तव्य निभाने में कमी न छोड़ती । दोनों पोतों की बार व अन्य बीमारियों के अवसर पर सुषमा ने माँ की तरह बहू की देखभाल की । विदेश में तो बहू स्वयं काम करती थी ,लेकिन यहाँ हर काम के लिए मेड लगी हुई थी। सुबह- शाम का खाना बनाने के लिए अलग- अलग मेड आती थी। झाडू-पोंछे के लिए अलग। यदि किसी दिन कोई मेड छुट्टी पर होती ,तो वह अपनी किसी सहेली की मेड को बुलाकर पैसे देकर काम करा लेती। केवल उसे भोजन परोसने का काम रहता। जिस दिन सुषमा या पति-पत्नी जाते, बस उसी दिन उन्हें भोजन परोसकर देती अगले दिन से उन्हें स्वयं ही नाश्ता करना पड़ता, अन्यथा बारह बजे तक भी कोई नाश्ते के लिए नहीं पूछता था। बहू साढ़े सात बजे पोते को टिफिन देकर भेज देती। और सो जाती। बेटा अपना टिफिन स्वयं पैक करके ले जाता। भोजन तो मेड बनाकर रख जाती लेकिन नाश्ता स्वयं बनाना पड़ता था। नाश्ता बनाने में सुषमा को कोई परेशानी नहीं थी ;क्योंकि अपने घर तो वह स्वयं ही काम करती थी। लेकिन हर व्यक्ति थोड़ा सा मान- सम्मान तो चाहता ही है और दूसरे की रसोई में व्यक्ति थोड़ा-सा आशंकित रहता है। क्या बनाए ? चलो काम की कोई बात नहीं लेकिन उसके व्यवहार में भी उपेक्षा झलकती। लेकिन माँ का लाचार दिल उन्हें बार- बार यहाँ आने के लिए बाध्य कर देता। करें भी तो क्या करें, एक ही बेटा था, बेटी अपने घर की थी। मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। अब पोता दस वर्ष का हो चुका था,वैसे भी पोते का प्यार ही दो पीढियों के बीच कड़ी का काम कर रहा था। कहते है न; मूल से प्यारा ब्याज होता है।

सुषमा इन्हीं विचारों में उलझी थी,  कि पति अपनी बात का कोई उत्तर ना पाकर फिर बोल उठे -“अरे! इतना भावुक क्यों होती हो,जो अब तक आँख में आँसू लिए बैठी हो, बहू की कोई बात अधिक चुभ गई हे तो भूल जाओ। उसे कोई नहीं बदल सकता।

नहीं मैं बहू के कारण नहीं रो रहीं हूँ। पता है रात देवांश चुपचाप मेरे पास आकर सो गया, कहने लगा-” दादी! आप हमारे साथ क्यों नहीं रह सकती? आप मुझे पढाया करना, दादू मेरे साथ खेला करेंगे। जब आप चली जाती हो मेरा मन नहीं लगता । जब मम्मी डाँटती है तो आप गोद में बैठाकर प्यार कर लेती हो। पीछे तो मुझे कोई प्यार नीं करता। मम्मी डाँटती हैं, तो मैं रोता ही रहता हूँ। अब की बार मैं आपके नहीं जाने दूँगा। मैं आपका चश्मा छुपाकर रख दूँगा और ऐसी जगह छुपाकर रखूँगा कि आपको मिलेगा ही नहीं।”

और पता है जब सुबह उठी तो चश्मा गायब था ।सारे में ढूँढा नहीं मिला। वो तो अचानक मैंने उसका स्कैटिंग बैग देख लिया। गाडी शाम चार बजे की थी तो काम चल गया, नहीं तो गाड़ी ही छूट जाती। कहकर सुषमा फिर भावुक हो गई।

पति बडे प्यार से बोल उठे -“अब क्यों रोती हो, अब तो असली चश्मा मिल गया। पोते के प्यार की बैसाखी मिल गई है जीवन संध्या काटने के लिए, और क्या चाहिए।

-0- sudha12march@gmail.com

8-दीपा पाण्डेय

मुआवज़ा

कार्बेट नेशनलपार्क से जुड़े हुए गाँव में सुबह से हलचल शुरू हो गई ।

“आज जानवर न खोलना, एक बाघ इधर आ गया है, खेतों में छुपा है ”हरकारा आवाज लगाता घूम रहा था ।

“छोटू आज कोई भी गाय न खोलना ,दुधारू जानवर हैं .बाघ ने शिकार कर लिया ,तो ये लोग मुआवजा देकर परे हट जाएँगे । नुकसान तो हमारा ही होगा न” मनोहर अपने बेटे को समझाकर बोला ।

“कहाँ हो मनोहर ? मुनादी सुनी क्या ?” रामलाल ने झोपड़ी के अहाते में प्रवेश कर हाँक लगाई ।

“आओ बैठो ,रामलाल ,ये बाघ भी बड़ी आफत हैं, अब जानवरों को  बाँधकर चारा डालो। एक काम और बढ़ गया इनकी देखभाल का!”

“अरे तेरा दूध का कारोबार कितना बढ़िया चल रहा हैं । थोड़ा देखभाल तो बनता हैं न !”

“वो सब तो ठीक हैं ;पर एक गाय बाँझ निकल गई । बड़ा नुकसान हो गया मेरा ”

“अब व्यापार में तो नफा ,नुकसान लगा ही रहता हैं।” -रामलाल इधर उधर की कह सुन कर चला गया ।

“मुनादी सुनी क्या?”,अब की रमा काकी थी दरवाज़े पर ।

“ हाँ काकी सुन ली ,तुम बैठो ,छोटू चाय चढ़ा दे ,काकी तुम्हारी बहू हाट गई हैं। आती होगी ”

“छोटू की शादी कब कर रहें हो मनोहर? कहो तो रिश्ते ढूँढना शुरू करूँ ।”

“तुम्हारी पतोहू के क्या हाल हैं काकी ?”

“अरे बाँझ निकल गई । पाँच साल हो गए चूहे का बच्चा तक न जना उसने,अब उसका भी कुछ उपाय करना पड़ेगा।”

“क्या मतलब ?”

“अरे यही कि दूसरा बियाह रचाऊँगी अपने पोते का,इसे रहना है ,तो चाकर बनकर पड़ी रहें, नहीं तो अपने मायके चली जाए।”

“ हाँ sss काकी ,बाँझ बहू का तो उपाय हैं छुटकारा पाने का ,मगर बाँझ गाय का क्या करूँ?”-मनोहर ने निःस्वास भरी ।

काकी चली गई। मनोहर देर तक सोचता रहा .फिर मुस्कुरा उठा।

“छोटू सारे जानवर अंदर कर कुंडा मार दे और श्यामा को खेतों की तरफ हाँक दे।”

-0- ppandey1960@googlemail.com

9-गिरिजा कुलश्रेष्ठ

एक आसमान

“ए विमलाsssss!!”

मैंने देखा ,देहरी पर बैठी पुजारिन अम्मा अपनी आँखों पर हथेली की छतरी सी ताने आतुरता से मुझे ही पुकार रही थी। मैं लौट पड़ी।

“इधर क्या चाची के घर गई थी?”

अम्मा के सवाल का उद्देश्य मुझे मालूम था। मेरी चाची के पडोस में ही अम्मा के बडे बेटे विनोद का मकान है। महीना भर पहले वे पत्नी बच्चों सहित अपने मकान में रहने चले गए। और अम्मा छोटे बेटे रूप के साथ इसी किराए के पुराने मकान में रह गई। विनोद भैया ने अम्मा से भी साथ चलने को कहा तो जरूर होगा पर शायद उस तरह नहीं कहा होगा कि अम्मा उठ कर चल देती या कि कई दशकों से रह रहे इस घर की इतनी सारी यादों को लेकर जाना संभव नहीं हुआ होगा। वैसे भी कुसमा भाभी की अम्मा से चख-चख होती ही रहती थी। जो भी हो …।

अब जैसा कि होता है, विनोद भैया को अम्मा के पास आने की ,उनकी सुधि लेने की जरा भी फुरसत नहीं है। पर अम्मा के पास उनकी सुधि के लिये फुरसत ही फुरसत है। जो भी उधर से आता है ,अम्मा बुला कर बिठा लेतीं हैं ।

“विनोद के घर भी गई होगी ?”

“हाँss…गई तो थी।” मैंने हिचकिचाते हुए कहा।

“विनोद मिला होगा।”—अम्मा ने और भी उत्सुक होकर पूछा फिर कुछ बुझे स्वर में बोलीं—” विनोद की ‘जनी’ तो खूब मजे में होगी कि चलो पीछा छूटा ‘डुकरिया’ से ..। आदमी उसकी मुट्ठी में है। सास गिरे ‘ढाह’ से….।”

अम्मा की आवाज पीड़ा थी मलाल था। लगा जैसे शून्य में अकेली ही असहाय-सी छटपटाती हुई मेरी प्रतिक्रिया का सम्बल तलाश रही हों।

“लेकिन अम्मा-“–मैंने कुछ सोचकर कहा– “मैं तो जब भी जाती हूँ ,भाभी बडे आदर से तुम्हारी ही बातें करती रहतीं हैं। आज ही तुम्हारे हाथ के बने मिर्च के अचार की बडी तारीफ़ कर रहीं थीं।”

“सच्ची !! खा मेरी सौगन्ध।” — अम्मा की आँखों में सितारे से झिलमिलाए।

“हाँ सच्ची अम्मा ! विनोद भैया भी कहते रहते हैं कि हमारी अम्मा ने जैसे बच्चों को पाला है कौन औरत पाल सकती है !”

“विनोद तो मेरा विनोद ही है “—अम्मा गद्गद् हो गईं —-“और कुसमा भी …जुबान की भले ही जैसी हो पर दिल में खोट नहीं है उसके।”

मैंने देखा ,सारी धुन्ध हट गई थी। अम्मा के चेहरे पर सुबह की धूप खिल उठी थी।

झूठ बोलकर ही सही ,उस पल मैंने अम्मा को एक आसमान तो दे ही दिया था।

-0- girija.kulshreshth@gmail.com

10-प्रियंका

समोसा

विश्वविद्यालय परिसर की देर शाम तक खुली रहने वाली चाय-नाश्ते की उस इकलौती दुकान पर शाम होते ही लोग जुटने लगते थे। विद्यार्थियों के अलावा शिक्षकों, कर्मचारियों और उनके परिजनों की लगातार आवाजाही उस जगह को जीवंत बना देती थी। वहाँ कुर्सी-टेबल नहीं लगे थे, लेकिन इस कमी को प्रकृति की बिछाई हुई सैकड़ों चट्टाने पूरा करती थीं। बहस-मुहाबिसों और हँसी-ठहाकों का वह गुलज़ार अड्डा हुआ करता था।

अपने शोध कार्य के अंतिम दिनों में मेरा अधिकांश वक्त लाइब्रेरी में ही बीता करता था। उन दिनों लगभग हर शाम मैं लाइब्रेरी से निकलकर सीधे वहाँ पहुँच जाया करती थी। चाय नाश्ते के साथ मन भी बहल जाया करता। दोस्त साथ में होते तो मैं भी बातचीत में ही उलझी रहती, लेकिन जब अकेली होती तो चुपचाप कहीं बैठकर वहाँ  के परिवेश को पढ़ना-गुनना मुझे अच्छा लगता।

ऐसी ही एक शाम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, वहाँ मैं अकेली बैठी हुई थी। मुझसे थोड़ी ही दूर एक कार आकर रुकी और उसमें से एक दंपती अपने  पाँच-छह साल के बच्चे के साथ कार से निकले। बच्चे की माँ ऑर्डर देने के लिए काउंटर की तरफ बढ़ गई, और मेरे पास की ही एक चट्टान पर बच्चा और उसके पिता आकर बैठ गए। बच्चा अपने पिता से कह रहा था-‘‘पापा मैं दो समोसे खा लूँगा, पिछली बार मम्मी ने मुझे सिर्फ एक ही दिलवाया था।” खाने पीने को लेकर वह और भी कई बाल सुलभ बातें करता रहा। पिता अपने मोबाइल की स्क्रीन पर चेहरा गड़ाए हुए ही “हूँ-हँ-हूँ” किए जा रहे थे। इसी बीच माँ भी उनके पास लौट आई और बच्चे को टोकते हुए बोली- “अंकुर, टॉक इन इंग्लिश, अदरवाइज यू विल गेट नथिंग।”

माँ के इस कड़क लहज़े से बच्चे की सहजता जाती रही। वह बिल्कुल चुप हो गया। कुछ देर बाद माँ फिर से काउंटर पर गई और समोसे लेकर लौट आई। बच्चा समोसा खाने के लिए तत्पर था। उसने समोसे देखते ही कहा । “वॉव, इट लुक्स सो यम्मी”! समोसे की प्लेट हाथ में आते ही बच्चे ने अपने पिता की ओर देखा और पूछा- “पापा व्ह़ॉट इज़ द इंग्लिश मीनिंग ऑफ़ ‘समोसा’?” यह सुनते ही कुछ देर तक माता-पिता एक दूसरे का मुँह  ताकते रह गए, फिर माँ ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा- ‘समोसा’!

-0- priyankatangri@gmail.com


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