‘रण कौशल के बावजूद’ लघुकथा का पाठ कुलदीप जैऩ द्वारा बरेली गोष्ठी 89 में किया गया था। पढ़ी गई लघुकथाओं पर उपस्थित लघुकथा लेखकों द्वारा तत्काल समीक्षा की गई थी। पूरे कार्यक्रम की रिकार्डिग कर उसे ‘आयोजन’ (पुस्तक)के रूप में प्रकाशित किया गया था।लगभग 28 वर्ष बाद लघुकथा और उसपर विद्वान साथियों के विचार अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं.
रण कौशल के बावजूद
कुलदीप जैन
जैसे किसी युद्ध में पराजित हो गया-इस अंदाज से वह स्टेशन के बाहर आया और भाड़ा तय किए बिना रिक्शे पर बैठ गया।
‘‘कहाँ जाना है बाबूजी’’ उस युवकनुमा रिक्शवाले ने पूछा।
‘‘अरे चल तो!’’ उसका मूड उखड़ गया।
‘‘जगह तो बताओ बाबूजी।’’
‘‘अबे तुझे चलना है या नहीं।’’ यह कहते हुए वह रिक्शे से उतर पड़ा ओर मन ही मन बड़बड़ाया, ‘‘सालों के हराम मुँह लग गया है। देखो क्या ठाठ की बुशर्ट और पैण्ट, बाल कढ़े हुए,अबे बाबू बनने का शौक है तो किसी दफ्तर में बैठ-हमसे पूछता है, किधर जाना है, हूँ।’’
‘‘आइए बाबू जी मेरे रिक्शे में-चल बे मंगू उधर कर अपनी गाड़ी को-आइए-बाबूजी…बैठिए।’’
रिक्शे में बैठते ही उसकी आँखों के आगे सारा दृश्य घूम गया। टी.टी. बोला था,‘‘जल्दी रसीद कटवाइए, मुझे आगे भी काम है।’’
‘‘एक बार और देख लूँ जरा।’’ वह निहायत गिड़ड़िाए अंदाज में बोला था।
‘‘भई कितनी बार देखोगे, आपने टिकट लिया भी था?’’
‘‘मैं सच कहता हूँ, मैंने टिकट लिया था, पता नहीं….’’ ऐसा कहते ही उसने आठवीं बार फिर कोट-पैण्ट पर पूरा हाथ फिराया, जेबें टटोलीं,पर सब बेकार।
‘‘अब ज्यादा नाटक न करो और बाइस रुपए की रसीद कटवाइए।’’
उसने देखा आसपास बैठे लोगों की उससे सहानुभूति तो जरूर है पर वे जिस अन्दाज में इस दृश्य के भागीदार बन रहे थे, उससे वह घबरा रहा था। रसीद कटवाकर वह अपमानित अवस्था में चुपचाप सीट पर बैठ गया था।
तभी उसे झटका लगा वह रिक्शे से गिरते-गिरते बचा।
‘‘अबे तुझे तमीज नहीं है रिक्शा चलाने की।’’
‘‘बाबूजी किधर चलोगे?’’ रिक्शे वाले ने उसकी बात को नजरअंदाज करते हुए पूछा।
‘‘राम नगर’’
‘‘छः रुपए लगेंगे बाबूजी’’
‘‘छःरुपए! अबे दिमाग खराब हो गया है क्या, तीन रुपए लगते हैं।’’
‘‘तीन रुपए! कोई और रिक्शा पकड़ो साहब! यहाँ तक का जो देना हो दे दो।’’ उसे लगा रिक्शे वाला उसकी बेइज्जती पर उतर आया है।
‘‘अबे कैसे नहीं चलेगा तू! बोल तेरा नम्बर क्या है, सालों के दिमाग खराब हो गए हैं। नम्बर लिखने हेतु उसने कोट को जेब में हाथ डाला तो उसके हाथ में पैन की जगह कुछ और आ गया। यह गाड़ी का टिकट था।
‘‘ये साला कहाँ से आ गया जेब में?’’ वह आश्चर्य मिश्रित अन्दाज में बड़बड़ाया।
‘‘साहब छह रुपये देने हैं या नहीं!’’ रिक्शेवाला बोर सा हो गया था।
‘‘अबे कैसे नहीं चलेगा तू, क्या लूट मची है, छः रुपए लेगा।’’
इस चख-चख में आसपास लोग जमा हो गए। तभी उसे सुनाई दिया, अबे ये तो वो ही है, जो बिना टिकट था और जुर्माना भरा था। कहाँ तो बाईस रुपए भर दिए अब तीन रुपए पर जान दे रहा है।
यह सुनते ही उसे लगा कि वह एक बार फिर बिना बात नंगा हो गया है, और रिक्शेवाले से बोला, ‘‘अच्छा, छह रुपये ही दूँगा पर रिक्शा जल्दी आगे बढ़ा।’’
1-डॉ भगवानशरण भारद्वाज
‘रण कौशल के बावजूद’ में पूर्वदीप्ति के सहारे प्रयासों की विफलता और झल्लाहट की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति की गई है, जिसमें कुलदीप जैन शिल्प के स्तर पर अच्छी निपुणता exhibit करते हैं।
2-डॉ. स्वर्ण किरण
कुलदीप जैन की लघुकथा ‘रण कौशल के बावजूद’ लापरवाह युवक के लोगों के बीच नंगा होने की बात कहती है। युवक रेल में बाइस रुपये जुर्माना देता है, रिक्शेवाले को छह के बदले तीन रुपये देने के लिए ‘चिकचिक’ करता है,पर जेब में हाथ डालने पर रेल का टिकट निकल आता है ,तो उसे अजीब-सा महसूस होता है।
3-डॉ.सतीशराज पुष्करणा
सातवें दशक में लघुकथा को यदि पुनर्जीवन मिला तो आठवें दशक में उसकी अपनी एक पहचान बनी और नवें दशक में आकर उसका परिष्कार हुआ और नवीन कथ्यों के साथ-साथ उसके शिल्प विधान में भी परिवर्तन हुए। इसके अतिरिक्त इसमें नये-नये प्रयोग भी हुए। लघुकथा व्यंग्य की अनिवार्यता को तजकर संवेदनात्मक तथा मनोवैज्ञानिक रूप धारण करके कला के क्षेत्र में भी विस्तार पाने लगी। यह लघुकथा की उपलब्धि है किन्तु अति सदैव खतरनाक हुआ करती है। यह बात कुलदीप जैन की लघुकथा ‘रण कौशल के बावजूद’ में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। यह एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें नायक के अन्तर्द्वन्द्व को कलात्मक ढंग से, अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है किन्तु इसमें कलात्मक दांवपेंच इतने अधिक हो गए है कि लघुकथा अपने मूल उद्देश्य से हट जाती है, हट चुकी है। यह इस लघुकथा की सबसे बड़ी कमजोरी है।
4-रामयतन यादव
कुलदीप जैन की लघुकथा ‘रण कौशल के बावजूद’ एक अच्छी लघुकथा है। सभी तरह के पाठाकों को यह प्रभावित कर पाएगी।
5-जगदीश कश्यप
‘रण कौशल के बावजूद’ लघुकथा में कुलदीप जैन ने एक ऐसे पात्र की लघुकथा प्रस्तुत की है जो पास में टिकट होते हुए भी बिना बात 22 रुपए भरता है और फिर रिक्शावाले से उलझता है। एक आदमी का मनोवैज्ञानिक चित्रण।
6-डॉ. शंकर पुणतांबेकर
‘रण कौशल के बावजूद’ में कुलदीप जैन ने एक ऐसे मध्यम वर्ग युवा की कथा प्रस्तुत की है जो प्रतिष्ठा भी बचाना चाहता है और पैसा भी जबकि वह स्थितियों से जुझते हुए दोनों से हाथ धो बैठता है। अच्छी लघुकथा है।