स्वाध्याय का अभ्यास अथवा व्यसन तो मुझे तबसे रहा है, जब मैने पूरा वाक्य पढ़ना सीख लियाथा , परन्तु लेखन का श्रीगणेश मेरी किशोरावस्था में उपन्यास से हुआ। प्रारंभ में तीन उपन्यास लिखे,तदुपरांत कविता की ओर मुड़ी।विवाह के पश्चात ढेर सारे दायित्वों के निर्वहन हेतु कई वर्ष तक कलम थमी रही। फिर अंतर्जाल के माध्यम से एक सहज सुलभ फ़लक मिला, अपने इस शौक को पुनः जाग्रत करने का।यहीं मैंने लघुकथाएँ पढ़ीं और लेखन की ओर आकृष्ट हुई। लघुकथा वर्तमान परिदृश्य में तेजी से उभरती,पैठ बनाती, पाठकों के दिलो- दिमाग को झिंझोड़ती विधा है। इसके लेखन अथवा पठन में अपेक्षाकृत कम समय लगता है। आज, जब मानव जीवन सैकड़ों तरह की आपाधापी से जूझ रहा है, तो ऐसे में समय का अभाव बहुत ज्यादा हो गया है। इस युग की ज़रूरत है लघुकथा, यही वजह रही कि मैंने लेखन हेतु मुख्य रूप से लघुकथा का चुनाव किया ।
जब बात करूँ अपनी पसंद की लघुकथाओं की तो कई लघुकथाएँ ज़हन में उभरती हैं ,जो मुझे बेहद प्रिय है। युगल जी की पेट का कछुआ, श्याम सुंदर अग्रवाल जी की माँ का कमरा,बलराम अग्रवाल जी की बिन नाल का घोड़ा, चित्रा मुद्गल जी की दूध,काम्बोज जी की नवजन्मा, अशोक भाटिया जी की कपों की कहानी, सुकेश साहनी जी की कई कथाएँ, ईश्वर, बिरादरी,ठंडी रजाई इत्यादि। यहाँ आज मैं जिन दो लघुकथाओं की बात करूँगी उनमें आदरणीय सुकेश साहनी जी की ‘मेंढकों के बीच‘ और नवोदित लघुकथाकार डॉक्टर कुमार सम्भव जोशी जी की ‘शयनेषु रम्भा‘ है।
साहनी जी मेरे सबसे पसंदीदा लघुकथाकार रहे हैं। उन्हें मैं तबसे पढ़ती आ रही हूँ, जब लघुकथा के विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं थी, बस उनका नाम देखकर जो भी रचना सामने होती थी, उसे पढ़ डालती थी। साहनी जी की कथाओं की विशेषता यह है कि वे बहुत गूढ़ होती हैं। उनका अंत आते- आते आप चौंक उठते हैं, चमत्कृत हो जाते हैं। उनकी कथाओं में जो गहराई होती है, वह आसानी से कहीं और नज़र नहीं आती।
प्रस्तुत लघुकथा ‘मेंढकों के बीच‘ किस्सागोई शैली में कही गई है। जैसा की साहित्य का दायित्व है समाज की विद्रुपताओं एवम विडंबनाओं पर प्रहार करना तथा समाज को संस्कार देना । यह लघुकथा उस मापदण्ड को पूरी तरह से पूर्ण करती है। इसमें मेंढकों एवम उनकी कूपमण्डूकता को प्रतीक बनाकर समाज के संकीर्ण सोच वाले उन अकर्मण्य लोगों पर कटाक्ष किया गया है ,जो बोलते बहुत कुछ हैं– ऊँचे आदर्श, विशाल हृदयता, बड़े बड़े सिद्धांत। परन्तु जब बात आती है कुछ करने की तो अपनी निष्क्रियता नहीं तोड़ पाते। वे जाति, धर्म, सम्प्रदाय जैसी निम्न विचारधारा में उलझे रह जाते हैं। सारा दोष दूसरों पर डालकर स्वयं पाक साफ़ बने रहते हैं। सारी अच्छाई अपने लिए और सारे दोष दूसरों के।
इस लघुकथा में बिम्ब का इस्तेमाल बहुत खूबसूरती से किया गया है, जो कि साहनी जी की विशेषता है। बरसों पहले लिखी गई यह लघुकथा आज भी प्रासंगिक है और आने वाले पचास वर्षों में भी उतनी ही प्रासंगिक रहेगी। यहाँ सीधे तौर पर कोई उपदेश नहीं दिया गया है। एक बच्चे को कहानी सुनाते हुए पात्र बहुत सरल अंदाज में मेंढ़कों का निरर्थक टरटराना और कुछ भी सार्थक न करना प्रस्तुत करता है। जो कि अक्सर ओछी और निम्न मानसिकता से घिरे लोग करते हैं। जब बालक प्रश्न करता है कि मदद करने वाला व्यक्ति हिन्दू था अथवा मुसलमान, तो वह बस इतना कहता है कि वह जो भी था बस एक अच्छा आदमी था। इस मसले में जो पड़ेगा वह मेंढक में बदल जाएगा, अर्थात मनुष्यता भूलकर सिर्फ निरर्थक बकवाद ही करेगा। इस कथा का प्रस्तुतीकरण बेहद शानदार, संवाद पात्रानुकूल हैं।+
दूसरी कथा नवोदित कथाकार डॉक्टर कुमार सम्भव जोशी जी की ‘ शयनेषु रम्भा ‘ जब मैंने पढ़ी तो हैरान रह गई। एक अलहदा अंदाज में लिखी गई यह नारी विमर्श की एक बहुत बोल्ड और तीखी लघुकथा है। बरसों से अपने दायित्वों की चक्की में पिसती एक नारी को कैसे शोषित किया जाता है, कभी घरेलू हिंसा तो कभी शारीरिक शोषण। हर तरह से उसे दबाया कुचला जाता है। परंतु जब वह सर उठाती है ,तो हंगामा हो जाता है। वह थकी है, बीमार है, अनिच्छा है अथवा कोई और कारण, उसे पुरुष की इच्छा के सम्मुख सर झुकना ही उसका परम् धर्म है।
प्रारंभ में साधरण अंदाज में शुरू हुई यह कथा अंत आते आते झकझोर जाती है। यहाँ नारी पात्र का यह कहना कि कहीं उसे एंग्जाइटी पिल की तरह तो कहीं स्लीपिंग पिल की तरह, कभी जश्न के रूप में तो कभी अपनी कुंठा निकालने के लिए पंचिंग बैग की तरह इस्तेमाल किया गया। उसके सम्वाद पाठक को पल भर के लिए स्तब्ध कर देते हैं। उसकी शारिरिक क्रंदन के प्रति व्यक्त की गई आकांक्षा सबको आश्चर्य में डाल देती है। क्या नारी की भी कोई कामना हो सकती है ! क्या उसे इतनी उच्छृंखलता शोभा देती है ! अरे भई स्त्री है, उसका जन्म तो समर्पण के लिए हुआ है, उसकी कैसी चाह ?
सम्वाद शैली में लिखी गई इस कथा के सम्वाद बहुत तीक्ष्ण एवम मार्मिक हैं। भाषा शैली एवम प्रस्तुतीकरण बेहतरीन एवम भावानुकूल है।
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1-मेंढ़कों के बीच ( सुकेश साहनी )
वर्षो पहले मैंने अपने बेटे को एक कहानी सुनाई थी, जो कुछ इस तरह थीः
एक बार की बात है, रात के अँधेरे में एक गाय फिसलकर नाले में जा गिरी।
सुबह उसके इर्द-गिर्द बहुत से मेंढक जमा हो गए।
‘‘आखिर गाय नाले में गिरी कैसे?’’ उनमें से एक मेंढक टरटराया, ‘‘हमें इस पर गहराई से विचार करना चाहिए।’’
‘‘मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है!’’ दूसरे ने कहा।
‘‘कुछ भी कहो…’’ तीसरा मेंढक बोला, ‘‘अगर पुण्य कमाना है तो इसे बाहर निकालना होगा।’’
‘‘मरने दो!’’ चौथा टर्राया, ‘‘हमारी नाक के नीचे रोज ही सैकड़ों गायें-बछड़े काटे जाते हैं, तब हम क्या कर लेेते हैं?’’
‘‘हमने तो चूड़ियाँ पहन रखी हैं,’’ पांचवें मेंढक की टर्र-टर्र।
‘‘भाइयो!’’ वहाँ खड़े एक बुजुर्ग ने उन सबको शान्त करते हुए कहा, ‘‘अगर ये गाय न होकर कुत्ता-बिल्ली होता तो क्या हमें इसे मर जाने देना था?’’
एकबारगी वहाँ चुप्पी छा गई। वे सब उस बुजुर्ग को शक भरी नजरों से घूरने लगे। अगले ही क्षण वे सबके सब उस पर टूट पड़े। उन्होंने उसे लहूलुहान कर नाले में धकेल दिया। इस घटना से मेंढकों में भगदड़ मच गई । वे सब सुरक्षित स्थलों में दुबक गए। घटनास्थल पर सन्नाटा छा गया।
‘‘फिर क्या हुआ?’’ मुझे चुप देखकर बच्चे ने पूछा था।
‘‘फिर?….वहाँ से गुजर रहे एक आदमी ने रस्सी की मदद से गाय को नाले सें बाहर निकाल दिया। अपनी जमात से बाहर वाले का ऐसा करना मेंढकों के गले नहीं उतरा। उनको इसमें भी कोई साजिश दिखाई देने लगी। यह बात कानोंकान पूरी मेंढक बिरादरी में फैल गई। वे समवेत स्वर में जोर-जोर से टर्राने लगे।’’
कहकर मैं चुप हो गया था।
‘‘अब मेंढक क्यों टर्रा रहे थे, पापा?’’
‘‘अब वे इस बहस में उलझे हुए थे कि गाय को बाहर निकालने वाला हिन्दू था कि मुसलमान।’’
‘‘फिर….’’
‘‘फिर क्या? उनका टरटराना आज भी जारी है।’’
बच्चा सोच में पड़ गया था। थोड़ी देर बाद उसने पूछा था, ‘‘पापा, आपको तो पता ही होगा कि वह आदमी कौन था?’’
‘‘बेटा, मुझे इतना ही पता है कि वह एक अच्छा आदमी था,’’ मैंने उसकी भोली आँखों में झांकते हुए कहा था, ‘‘वह हिन्दू था या मुसलमान, यह जानने की कोशिश मैंने नहीं की क्योंकि तुम्हारे दादा जी ने मुझे बचपन में ही सावधान कर दिया था कि जिस दिन मैं इस चक्कर में पड़ूँगा उसी दिन आदमी से मेंढक में बदल जाऊँगा।’’
इसके बाद मेरे बेटे ने मुझसे इस बारे में कोई सवाल नहीं किया था और मुझसे चिपककर सो गया था।
मुझे नहीं मालूम कि यह कहानी मेरे बच्चे के मतलब की थी या नहीं,उसकी समझ में आई थी या नहीं, पर इतना जरूर है कि उस दिन के बाद वह ‘मेंढकों’ से जरा दूर ही रहता है।
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शयनेषु रम्भा (डॉ. कुमार सम्भव जोशी)
“सरला देवी, क्या आप जानती हैं, बिना किसी उचित कारण के पति को शारीरिक सम्बन्धों के लिए इनकार करना मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है।”चश्मे को ऊपर उठाकर जज साहब ने सरला को देखा।
“सिर्फ इसी बिना पर आपके पति की तलाक की माँग स्वीकृत की जा सकती है। आपको कुछ कहना है?” जज ने शब्दों पर जोर दिया।
“योर ऑनर, हमारे निजी सम्बन्धों के आधार में प्रेम कभी था ही नहीं।” सरला ने कहना शुरू किया।
“कभी टेंडर नहीं मिला ,तो तनाव दूर करने के लिए एंटी एंक्ज़ाईटी पिल के तौर पर सम्बन्ध बनाये गये, तो कभी नींद न आने पर मुझे सोते से भी जगाकर स्लीपिंग पिल्स की तरह। कभी शेयर गिर गए तो अफसोस मनाने के लिए, कभी बड़ी डील की जश्न में शैम्पेन की तरह, कभी ऑफिस की भड़ास निकालने के लिए पंचिंग बैग की तरह……..” सरला बेधड़क कहती चली गई।
“मेरी इच्छा हो या न हो, इन्हे कोई परवाह नहीं थी। लेकिन बिस्तर पर स्त्री सदैव ‘शयनेषु रम्भा’ होनी चाहिए।” सरला का दुःख फूट पड़ा।
“बीमार होने पर भी अगर मैने आनाकानी की, तो यह कहकर विवश किया गया कि यही पत्नी का धर्म है-‘शयनेषु रम्भा’।” सरला की आँखें भर आई।
“कुछ पलों के बाद मेरे अंदर की नारी मर चुकी होती थी, अतृप्त तन व मन के अलावा सिर्फ नोंचने खरोंचने के निशान और नसों में बसी शराब की बू लिए मैं शेष रह जाती थी।” पूरी अदालत स्तब्ध- सी सुन रही थी।
“फिर एक दिन मैने भी ‘शयनेषु कामदेव’ माँग लिया, जो मेरे पति कभी बन नहीं पाए। बस, मैने दृढ इनकार करना सीख लिया। अपने भीतर की नारी को जीवित रखने के लिए।”
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