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लघुकथा: सृजन और रचना-कौशल

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.पुस्तक: लघुकथा: सृजन और रचना-कौशल (आलेख-संग्रह) लेखक: सुकेश साहनी, प्रकाशक: अयन प्रकाशन,1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030, संस्करण: 2019, पृष्ठ-140,मूल्य रु.300

                हिन्दी-लघुकथा के विकास में जिनका पूर्ण समर्पण भाव से योगदान रहा है, उनमें सुकेश साहनी पांक्तेय हैं। सुकेश साहनी ने जहाँ लघुकथा-सृजन में उत्कृष्ट लघुकथाएँ लिखकर अपना लोहा मनवाया है, वहीं उन्होंने इसके आलोचना-पक्ष को समृद्ध करते हुए दो दर्जन से अधिक आलेख लिखकर अपने आलोचक-पक्ष को भी पूरी गंभीरता से सिद्ध किया है।

               उनके द्वारा प्रस्तुत आलोचनात्मक लेखों का अवलोकन करने हेतु उनकी  सद्यः प्रकाशित कृति ‘ ‘लघुकथा: सृजन और रचना-कौशल’ का अध्ययन अनिवार्य है। एक सौ पचास पृष्ठों से सुसज्जित इस गंभीर कृति में उनके उन्नीस अनिवार्य लेखों को संगृहीत किया गया है।

               इन उन्नीस लेखों को मेरी दृष्टि से चार खंडों में विभक्त किया जा सकता है। जिनमें क्रमशः प्रथम दो आलेख ‘ लघुकथा:रचना-प्रक्रिया’ एवं ‘कहानी का बीज रूप नहीं है लघुकथा’। ये दोनों लेख शास्त्रीय हैं। लेख संख्या तीन से सात तक क्रमश: अपने द्वारा संपादित कृतियों ‘स्त्री पुरुष सम्बंधों की लघुकथाएँ’, ‘महानगर की लघुकथाएँ’, ‘खलील जिब्रान की लघुकथाएँ, (इसका अनुवाद भी सुकेश साहनी द्वारा किया गया है), ‘देह-व्यापार की लघुकथाएँ’ और ‘बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ’। ये पाँचों आलेख सम्पादकीय रूप में प्रकाशित अवश्य हैं, किन्तु इनके माध्यम से भी इन्होंने लघुकथा के अनसुशासन की बात भी पूरी गंभीरता से की है। आलेख संख्या 6 से 16 तक के आलेख ‘कथादेश’ में प्रकाशित लघुकथा-प्रतियोगिता 2007 से 2019 तक रहे निर्णायक के रूप में दी गई महत्तवपूर्ण टिप्पणियों के रूप में प्रकाशित हैं। आलेख संख्या सत्रह से उन्नीस तक में राजेन्द्र यादव, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ और डॉ. श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ की लघुकथाओं का मूल्यांकन करते प्रशंसनीय आलेख हैं।

               इन आलेखों की बड़ी विशेषता यह हे कि इनका उपयोग जिस रूप में हुआ है, उस रूप के प्रति न्याय तो करते ही हैं, इसी के साथ-साथ इस रूप के बहाने लघुकथा के सही अनुशासन की बात भी पूरी ईमानदारी से करते हैं।

               ‘ईमानदारी’ शब्द मैंने यों ही उपयोग नहीं किया है, इसके सार्थक कारण हैं। राजेन्द्र यादव जैसे ख्यातिलब्ध कथाकार की लघुकथाओं पर विचार करते हुए वे लिखते हैं-‘‘सजा या सम्मान’ में राजेन्द्र यादव तीन काल खंडों को भिन्न-भिन्न स्थितियों का ब्यौरा देकर अपनी बात कहने का प्रयास करते हैं। यह लघुकथा भी पाठक पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल नहीं होती। कारणों की पड़ताल की जाए तो लघुकथा में घटना-स्थल क्या कुछ क्षणों अथवा घंटों का ही होना चाहिए, आदि प्रश्न उठ खड़े हेते हैं।’’ इसी प्रकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जो लघुकथा डॉट कॉम में इनके सहयोगी सम्पादक भी हैं, की लघुकथाओं पर विचार करते हुए तटस्थ भाव से लिखते हैं-‘‘कमीज’ बाल -मनोविज्ञान पर आधारित लघुकथा का समापन अति भावुकता में हुआ है , जिससे बचा जा सकता था।’’ इसी प्रकार इन्होंने श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ पर भी जहाँ असहमति के बिन्दु मिले, वहाँ अपनी सकारात्मक शैली में अति विनम्रता से अपनी बात कहकर आगे बढ़ गए हैं। इसे इस आलेख में वहाँ देखा जा सकता है, जहाँ वह खलील जिब्रान की लघुकथा ‘ऊँचाई’ की चर्चा करते हैं।

               ‘ लघुकथा: रचना-प्रक्रिया’ यह शास्त्रीय पक्ष को उजागर करता लेख है, जिसे लेखक अपने लघुकथा-संग्रह ‘ठंडी रजाई’ में लेखकीय के रूप में प्रस्तुत किया ,है जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-‘‘आज लिखी जा रही बहुत-सी लघुकथाओं में सिर्फ विषय-वस्तु, घटना, एहसास का ब्योरा मात्रा होता है।लघुकथा का भाग बनने के लिए जरूरी है कि इस घटना,एहसास या विचार को दिशा और दृष्टि मिले, लेखक उस पर मनन करे, उससे संबंधित विचार भी उसमें जन्म ले। इसी प्रकार इनका एक अन्य लेख ‘कहानी का बीज रूप नहीं है लघुकथा’ जिसे इन्होंने कोटकपुरा लघुकथा सम्मेलन के अवसर पर पढ़ा था। इस लेख में इन पंक्तियों से लेखक का उद्देश्य स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है- “लघुकथा भी साहित्य की दूसरी विधाओं की भाँति किसी भी विषय पर लिखी जा सकती है। भ्रम की स्थिति वहाँ उत्पन्न होती है जहाँ विषय को लघुकथा के कथ्य के साथ गड्ड-मड्ड करके देखा जाता है। लघुकथा भी अन्य विधाओं की भाँति किसी विषय विशेष को रेशे-रेशे की पड़ताल करने में सक्षम है।’’

इनके अन्य प्रकार के आलेखों जिनमें इन्होंने संकलनों के सम्पादकीयों अथवा निर्णायकों की टिप्पणी के रूप में लिखा उसमें भी इन्होंने अनेक-अनेक लघुकथा के अनुशासनों पर स्पष्ट विचार रखे हैं-‘ लघुकथा को सुगठित होना चाहिए, उसमें दोहों जैसा बारीक ख्याल होना चाहिए, लघुकथा को सांकेतिक प्रतीकात्मक या अभिव्यंजनात्मक होना चाहिए,कथ्य का प्रकटीकरण या समायोजन सशक्त होना चाहिए,लघुकथा  को चरमोत्कर्ष पर समाप्त होना चाहिए।’’ (सशक्त लघुकथाओं की तलाश, पृष्ठ 70)

इसी प्रकार इस पुस्तक का सम्पूर्ण अध्ययन करने के पश्चात् हम पाते हैं कि सुकेश साहनी ने सभी आलेखों को मिलाकर निष्कर्ष निकालें तो उन्होंने संक्षेप में लघुकथा के शास्त्र एवं अनुशासन पर अपनी बात बहुत ही करीने एवं सम्प्रेषणीय ढंग से रखी है। उन्होंने अगर उचित समझा तो लघुकथाओं का उदाहरण स्वरूप सुन्दर ढंग से उल्लेख किया है।

विषय, अनुशासन एवं शास्त्र के अनुसार लेखक ने अपनी बात कहने हेतु जिस कथात्मक भाषा-शैली का सटीक उपयोग किया है, वह इस पुस्तक की अतिरिक्त विशेषता बन गई है।

कुल मिलाकर मेरी दृष्टि में यह पुस्तक आलोचनात्मक पक्ष को सबल करती एक उत्कृष्ट एवं उपयोगी पुस्तक है जिससे कोई भी लघुकथा-लेखक बहुत कुछ सीख-समझकर श्रेष्ठ लघुकथाओं का सृजन कर सकता है।

(परिषद-पत्रिका(शोध-त्रैमासिक) से साभार!)


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