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Channel: लघुकथा
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उमस

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प्रियवर नायक !
अब तथाकथित घर` से लौटते हुए गहरी उद्विग्नता कैसी? अपने लिए पुनर्नवा मार्ग खोजने गए थे, भले ही बरसों बाद वहाँ — जहाँ पग-पग पर तोपें रखी हैं!क्योंकर मान बैठे थे कि असहमतियों और अ-सम्बन्धों के तमाम काले सुराख पट गए हैं? फोन पर उनके स्वर में जरा-सी खनखनाहट क्या महसूस हुई कि गृहस्थाश्रम की अनिंद्य सुंदरता की इमारत पर कुल-देवताओं के आशीर्वाद झंडों की तरह लहराते दीखने लगे तुम्हें, अज्ञानी!!
साफ़ बता दें तुमसे — हम पहले से ही जानते थे कि विलगाव का खून मुँह लग चुका है उनकी बत्तीसी को। तुम्हारी यारबाशी की कोशिशों पर सदा मूता ही है उन्होंने. सम्बन्धों में हाड़ कँपा देनेवाली घातक ठण्ड ने इतने लंबे वर्षों तक चहलकदमी की है तुम्हारे इर्दगिर्द। रिश्तों के बारीक कण कब के राख बन उड़ चुके हैं। प्रलय घटित हो चुकी है कब की। सम्बन्धियों ।के यहाँ जाते हो तो मानो शरणार्थियों का-सा व्यवहार पाते हो। मोर्चे पर तो कब के हार चुके हो ! दिखावटी शालीनता और परस्पर प्रेमातुरता के सातों समंदर सूख कर पीड़ा के पर्वत कब के बन गए, और तुम्हें ख़बर ही न हुई। हर पल सूर्यास्त होता रहा मगर तुम्हारे मामले में वह कतई ग़ैरक़ानूनी नहीं था। अकेले होने, रहने और मरने का प्रशिक्षण लेना था तुम्हें। मगर नहीं, तुम तो ब्याहता जीवन में वफ़ादारी की कला और प्रेम- कविता की तलाश में ग़र्क़ रहे। और आज भी इस नंगी, निर्लज्ज उमस की दमघोंटू स्थितियों में डांय – डांय !
एक औपचारिक-सी फोनवार्ता और उसमें की गयी आमंत्रण की घायल पेशकश को अपनी तगड़ी जीत और कामयाबी मानकर तुम उस पारिवारिक गुफा में स्वयं को क़ैद होने देने के लिए निकल पड़े थे। अब तुम्हारे प्लेब्वॉय होने के चमत्कार पर तो मात्र हँसा ही जा सकता है। मगर शायद `घर` की आड़ी -तिरछी छवि थी जो तुम्हारे संस्कारी मन में जीवित हो उठी होगी।
उमस सचमुच ग़ज़ब की थी। दो बूँद पानी मिल जाए तो हाँफती साँसों को माँ का पहला दूध ही मिल जाए। तुमने निकट भविष्य की उपलब्धि की ओर अँधेरे में झाँका और डूर-बेल पुश की। उमस ने तुम्हारे परिधान को घृणाजनक तरीक़े से भिगो दिया था। बेल की हिचक भरी अनूगूँज … और कुछ देर बाद कुचली हुई इच्छा से खुला दरवाज़ा. शरीर में विस्तृत प्यास भरी थी तुम्हारे. व्यक्तित्व पासपोर्ट साइज़ की तस्वीर से भी सूक्ष्मतर हो आया तुम्हारा। बाहरी और भीतरी उमस ने मिलकर तुम्हारी देह और आत्मा से सारे फलफूल चुरा लिये थे। एक गिलास पानी के लिए तुम पूरी पृथ्वी का सौदा कर सकते थे। `बोधा सिंह, पानी पिला दे– उसने कहा था।` एक प्रसिद्ध कहानी का संवाद, खुट्टल हथियार की तरह घर की दरकती ज़मीन को वधस्थल बना रहा था। तभी तुम्हें सुनाई पड़ा, “बाहर बारिश हो रही है क्या?” उमस और पसीने की नज़रअंदाज़ी तो नहीं हुई थी।
” नहीं, उमस है।”
और फिर तुम धारावाहिक शैली में इंतज़ार करते रहे, एक गिलास पानी मिल जाने का. घड़ी की घूमती सूईं तुम्हारे साथ हास – परिहास करती रहीं। सब्र की तमाम सरहदें पार हुईं तो तुम उठे और `घर` में छूटे अपने पुराने कागज़ात से एक कागज़ तलाशकर निकालने का नाटक किया। मन ही मन बुदबुदाये थे तुम, `वही की वही। न दिन के काम की, न रात के।` स्वयं को तुमने मानो एक ताबूत में पटका और बाहर निकलने के लिए मुख्यद्वार खोला।
“चाहो, तो रुक जाओ। मैं तुम्हें कुछ नहीं कहती!”
पीठ-पीछे तुम्हें रेडियोधर्मिता के फैलने की आशंका हुई।
बताता हूँ नायक, समझौतों के आडंबर में जीवन ऐसा ही होता जाता है।
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