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अनर्थ : आग की लपटों के बीच मानवीय संवेदना

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हरनाम शर्मा

सातवें दशक में प्रकाशित एक लेख में भारत के विद्वान पूर्व शिक्षा मन्त्री डा0 वी.के.आर.वी. राव ने लिखा था – ‘‘हमारे देश की जड़ों को तीन बकरियाँ निरन्तर खाए जा रही हैं जिनके नाम हैं :– साम्प्रदायिकता, प्रान्तीयवाद तथा भाषावाद। (Three goats are eating at the roots of our country. These are communalism, regionalism and linguism)दरअसल सबसे अधिक शक्तिशाली बकरी तो स्वतन्त्रता चर्चा में-Anarth - Copyपूर्व ही सक्रिय थी। अन्य दो बकरियों की कार–गुज़ारी तो आजादी की प्राप्ति के बाद ही सक्रिय रूप से नजर आती है।

गाँधी जी की रहनुमाई में आजादी के लिए छटपटाती भारतीय अस्मिता के सामने अन्य सभी उद्देश्य एवं स्वार्थ गौण थे। उस समय आदर्श इतने उच्च और प्रखर थे कि ‘प्रान्त’ और ‘भाषा’ जैसे शब्दों पर दूषित राजनीति हावी हो जाएगी – ऐसी कल्पना करना ही असम्भव था। किन्तु दु:ख का विषय है कि यह प्रत्यक्ष घटित हुआ और बहुत ही विकृति के साथ प्रकट हुआ। राष्ट्र की ‘अनेकता’ के बहाने या विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बहाने, ‘‘बहुत ही गैर–जि़म्मेदाराना ढंग से साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने की पृष्ठभूमि तैयार की जाती रही है। अत्यन्त तुच्छ स्वार्थ से लेकर सत्ता हथियाने तक, आम आदमी से लेकर सर्वोच्च अधिकार सम्पन्न प्रशासक एवं जन–प्रतिनिधि तक, इसमें अपनी अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिए शामिल हो गये। परिणामस्वरूप दंगों को ‘अनर्थ’ अविरल गतिशील है।

अपने सम्प्रदाय या अपनी जाति या अपने गोत्र की दूसरों के सम्प्रदाय, जाति या गोत्र से तुलना करते हुए अपने ही को सर्वोच्च समझना, दूसरे को हीन बताना और अवसर मिलते ही अन्य धर्म, सम्प्रदाय तथा जाति वालों को सबक सिखाने के लिए धौंसपट्टी तथा हिंसा का सहारा लेना दंगों के ‘अनर्थ’ की ओर पथ अग्रसर करता है। तात्कालिक लाभ के लिए दंगे योजनाबद्ध रूप से प्रायोजित किये जाते हैं। सर्वोच्च जीवन–मूल्यों की शर्मनाक ढंग से बलि चढ़ाई जाती है।

डॉ0 कमल चोपड़ा मानव मूल्यों के हृास, संवेदना शून्य हिंसक भीड़ का व्यवहार, ऊँचे क़द के सामाजिक पदस्थिति पर तैनात तथाकथित सम्माननीय नागरिकों के नीच कर्मों का आम अवाम पर प्रभाव के साक्षी रहे हैं। इन सब बातों ने उन्हें निज अनुभवों को व्यापक रूप से साझा करने की प्रेरणा दी। तब इन लघुकथाओं ने जन्म लिया। दंगई–तत्त्वों एवं कारकों पर डॉ0 चोपड़ा की वस्तुपरक पैनी दृष्टि ही इन लघुकथाओं को मानक स्तर प्रदान करती है। अधिकतर लघुकथाओं में बच्चों का अबोध व्यवहार ही पाठकों को आशान्वित करता है। यहाँ ही पाठकों को समाधान मिलता है। लेखक अपने विचार पाठक तक पहुँचाने के लिए कटिबद्ध है। वह बच्चों के मुँह से बड़ी बात कहलवाता है, बेशक वह अतिशयोक्तिपूर्ण लगे किन्तु कटु यथार्थ पाठकों तक पहुँचे तो ‘आपकी बारी’ में बच्चा खीझते हुए कहता है – अगले दंगे तक रुक जाइये। आप लोगों में से कुछ दावेदार तो कम हो ही जाएँगे। मुआवजा और ज्यादा मिलेगा। मैं भी मारा गया तो मुआवजा और भी ज्यादा मिलेगा। लेकिन अगले दंगे में आप आपके बच्चे चपेट में आ गये तो……’’

‘छोनू’ में बच्चे की अबोधता समाधान प्रस्तुत करती है तो ‘फुहार’ में बालकों का व्यवहार प्राकृतिक है जिससे बड़े भी प्रभावित होते हैं। मैथ की परीक्षा – भय – पीडि़त बच्चा मन्दिर न पाकर मस्जिद के सामने प्रार्थना करके विश्वास अर्जित करता है यानी जिसे मान लो वही भगवान का घर है। (भगवान का घर)। ‘उल्टा आप’ की शाजिया चीखती है – ‘‘काफिर नहीं हैं मास्टर जी। वे सच्चे इन्सान हैं। बेटी की तरह रखा उन्होंने। काफिर तो आप लोग हैं ,जो इस तरह कह रहे हैं ।’’

अपने मृत पिल्ले को जीवित कराने के लिए बच्चे मन्दिर में ले आते हैं ,तो दंगा हो जाता है। बच्चों का निष्कर्ष – ‘वे वहाँ नहीं रहते’। यहाँ यह कहना जरूरी है कि नवीन कथ्यों का चयन तथा वहन सरल नहीं होता। लेखक अनछुए कल्पना–लोक में विचरता हुआ विश्वसनीय दृश्य चुनता है। उनका सार्थक प्रयोग कथ्य में करता है। ‘चोट’ में घटनाओं के तुलनात्मक प्रस्तुतीकरण द्वारा सह–अस्तित्व का सन्देश दिया गया है। ‘असुरक्षित’ में भी नकारात्मक एवं सकारात्मक घटनाओं का तर्कसंगत स्थापन करके कथ्य बुना गया है। अवांछित भय से बच्चे आक्रान्त रहते हैं। पूर्व घटना का स्मरण बच्चों के मन में स्थाई भय भर देता है। (दहशत का नाम) ‘विभिन्नता’ में सेठ धनपतराय द्वारा बाँटे गये पाँच सौ त्रिशूलों को विशु के एक ही प्रयास ने नकार दिया। हथियार के रूप में बेकार किया सो किया विचार के रूप में भी भोथरा करके रख दिया।

बड़े जब एक दूसरे की जान ले रहे हैं तो बच्चे मामूली चींटे की भी जान बचा लेते हैं। ‘‘पापा! एक चींटा नाली में गिर गया था। मैंने पीपल के पत्ते को नाली में डुबोकर चींटे को बाहर निकाल लिया। जान बच गई बेचारे की।’’ मुन्ना बोला। साजिद भी एकाएक चहका – ‘‘अंकल–अंकल, मैंने भी कीड़े को तिनके पर बिठाकर बाहर निकाला। मर जाता तो बेचारे के मम्मी–पापा कितना रोते?’’ यानी जान जाना, रोना धोना, जान बचना, जान बचाना – ये सब बच्चे बड़ों से बेहतर जानते हैं। ‘चमक’ संग्रह की उत्कृष्ट लघुकथाओं में से एक है।

‘कई बार कहानियों में मानवेतर जीवों अथवा निर्जीव वस्तुओं की जीवन स्थितियों का चित्रण भी होता है, परन्तु मनवेतर जीव या निर्जीव, अपने आन्तरिक रूप में मनुष्य ही होते हैं। प्रेमचन्द की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ के दो बैल हीरा और मोती, अज्ञेय रचित ‘अमरवल्लरी’ की वल्लरी मानवेतर रूप रखती हुई भी मानवेतन नहीं है। पंचतन्त्र की नीति कथाओं में वर्णित पशु–पक्षी मानवीय भावनाओं से अन्वित है और मनुष्यों की तरह तर्क–वितर्क करते हैं। मनुष्य मानवीय संवेदना को ही ग्रहण कर सकता है और उसी से प्रभावित भी होता है, यही कारण है कि कहानी  देवता–दानव, भूत–प्रेत, चूहा–बिल्ली आदि किसी की हो, मूलतया मनुष्य की ही होती है।’(हिन्दी साहित्य समीक्षा : डॉ0 रामनिवास गुप्त) यहाँ भी पाठक प्रकृति का उपादानों तथा जीव–जन्तुओं का मानवीकरण पाएँगे। “शान्ति–शान्ति’’ में कबूतरों द्वारा कहलाया गया है – ‘‘जब तक धर्म को खतरे में बताने वाले वो कसाई हैं, तुम भी अपने बेटे की कब तक खैर मनाओगी?’’ बच्चे से पशुओं का संवाद (इतने अच्छे) है। ‘‘जर्रे’’ में लोह–कण, पाषाण–कण तथा खनिज कण की उपस्थिति दर्ज कराते हैं। कई लघुकथाओं से पाठकों को दंगों के नए–नए कारणों का पता लगता है जैसे ‘‘कैसी भूख’’ कसाई, गऊमाता, धर्मयुद्ध आदि। ‘फर्क’ में मार–काट से लूटे गए गैर धर्म वालों के सामान के इस्तेमाल में कोई घिन्न नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता। व्यक्ति की नहीं सामान की कीमत है। इसी तरह की लघुकथा ‘फायदा’ है और ‘अधर्म’ में देखिए ‘‘जेहाद में लूटा गया माल तो हलाल होता है …. ये तो धर्मयुद्ध का प्रसाद है। इस टू–इन–वन को बहन को दूँगा। अगले ही क्षण बहनोई का दंगे में शिकार होने तथा बच्चों के भी इन्तकाल की सूचना मिलती है। दूसरों का सर्वनाश करके स्वयं कैसे बच सकते हैं।

‘‘अपना मारेगा तो छाँह में गेरेगा’’ यह ‘अपनेपन’ का वहम भी ‘अनर्थ करवाता है। मरते -मरते,  अपने मजहब के लोग, हथियार आदि ऐसी अन्य भी लघु कथाएँ हैं जो इस कुतर्क का पर्दाफाश करती हैं। सीधे सकारात्मक संदेश ‘एक’ लघुकथा से मिलता है जिसमें डरते हुए ‘अल्लाह’ की जगह ‘राम’ मुँह से निकलना विश्वास दिलाता है कि इस हादसे से ‘राम’ ने बचाया या दोनों ने मिलकर या दोनों एक ही हैं। ‘बिरादरी’ और ‘बुतपरस्त’ भी इसी शैली की लघुकथाएँ हैं। ‘अक्ल पर ताला’’ और ‘‘पहला मामला’’ गुण्डे के हृदय परिवर्तन की कहानी है। इसी तरह इन्सानियत में गहरा विश्वास जमाने का सन्देश देती ‘‘आदमी का धर्म’’, और ‘‘गहरा विश्वास’ हैं।

अनेक लघुकथाओं में पात्र सूत्र वाक्य उच्चारते हैं। ये वाक्य प्रचारित वाक्य नहीं अपितु कथ्य इन्हें तार्किक आधार प्रदान करना है। यथा : मानवता के लिए जो कर्म एक अच्छी ‘मिसाल’ हो, वह धर्म विरूद्ध कैसे हो सकता है। (मिसाल) ‘काश! कोई दंगा ऐसा भी हो जाए, जिसमें असली मुज़रिमों को चुन–चुनकर मारा जाए’ (ऐसा कोई दंगा) प्रशासन की अफरा–तफरी तथा श्मशान घाट में अन्तिम संस्कार करने वाले कर्मचारियों के नशे के कारण शवों में अदला–बदली हो जाती तो सत्य वाक्य उभरता है ‘‘जलाई जाए या दफनाई जाए मिट्टी तो आखिर मिट्टी है।’’ (आखिर मिट्टी) ‘‘इन्सानियत अभी जिन्दा है – ‘‘ऐसी कोई खबर’’ क्यों नहीं देते ये अखबार या टी.वी.’’ आदि।

नेताजी के उकसाने पर गुण्डे का बयान (सिफ‍र् इन्सान), कराए पूंजीपति, नाम किसी और का हो – ‘राम के नाम’ पर विशुद्ध दुष्टता करने वाले, व्यक्तिगत लाभ के लिए दंगा (गुनाह) करवाने वाले – इन सबको नई पीढ़ी समझती है। वह विचारों से ‘अस्वस्थ’ नहीं है। इसी आस–किरण का प्रकाश–स्रोत बनने की उम्मीद है लेखक को। ‘धर्म की रक्षा’ भी ऐसी ही लघुकथा है जिसमें फंसा दंगाई धर्म की दुहाई देकर पासा उलट देता है किन्तु किशोर की समझ आम–अवाम का कर्तव्य–बोध जाग्रत करती है। बदले में जान लेने से ‘प्रायश्चित’ नहीं होता। आम आदमी ऐसे आदेशों/सुझावों को नकारता है। ‘शिनाख्त’ का कर्तव्यपरायण पुलिस आफिसर असली मुज़रिमों का बचाव करने से इन्कार करता है।

धर्म विश्वासों (कानूनों) की आड़ में नारी–शोषण विषय को भी स्थान मिला है ‘मज़हब’ में जहाँ दूसरे विवाह के लिए कानून का सहारा लेकर नारी–अस्तित्व को नकारा गया है। दंगों से बचाने के नाम पर धन्धा करने वालों का वर्णन है ‘बिकाऊ’ में। जीवों के प्रति हिंसक व्यवहार करने के विषय में परस्पर विरोधी पैमाने व्यवहार में लाते हैं धार्मिक प्रतिनिधि। (जीव हिंसा)

‘पूजा–स्थल’ में दंगों के यान्त्रिक फैलाव की प्रक्रिया को लेखक ने अति सूक्ष्म रूप् से अनुभव किया है। यहाँ लेखक की दृष्टि स्थूल नहीं बहुत सूक्ष्म है। पराए दु:ख के प्रति उदासीन लोगों को ‘अपना दर्द’ भीतर तक सालता है। विधर्मी पड़ोसन मातृहीन शिशु को निज दुग्धपान द्वारा बचाती है। पालती–पोसती है। ये दूध के ही नहीं और आगे दूर तक के ‘रिश्ते’ साबित होते हैं जब वह शिशु अपनी धाय माँ का वास्तविक पुत्र से अधिक ख्याल रखता है।

अन्य धर्म वाले एक स्त्री के साथ ज़बरदस्ती करते हैं। स्त्री से पूछते हैं – ‘प्रतिकार क्यों नहीं किया?’ औरत ने लाल लाल लपट आँखों में लेकर कहा – ‘‘यही था तेरा धर्म युद्ध – तेरी मर्दानगी – अभी अभी जो बह गया यही था तेरा धर्म? अपना बीज अपना धर्म यहीं छोड़कर जा रहे हो तुम! लड़का जन्म लेगा तो तुम जैसों से बदला लेगा। लड़की हुई तो हमारी मज़हब वालों के काम आएगी। तुम्हारी बेटी’’ – दंगों में किए गए ‘‘दुराचार’’ का झकझोर देने वाला परिणाम।

जाने कब से सच उद्घाटित करने वालों को सच्चाई की नंगी तलवार की नोक पर गुजरते हुए लहुलुहान तलुवों से पुर–ख़तर राहें तय करनी होती हैं। तब इतना तो क्या बहुत कुछ सहना पड़ता है। (इतना ही सहा) फैन्टसी, यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से तैयार है लघुकथा ‘कैसी भूख’। सामान्य जन का साधारण सा तर्क ‘जिसे कभी देखा नहीं’ उसके लिए कैसे जान दे दें। ये भी एक सूक्त वाक्य है।

कुछ लघुकथाएँ विशेष ध्यानाकर्षण करती है जैसे ‘बाँह–बेली’ में रामचंद असलम के लिए खून देता है। पुजारी ही निहित स्वार्थों द्वारा दंगा करवाने के षड्यन्त्र को व्यर्थ कर देता है (पवित्र स्थान)। शकीला दाई कहती है – ‘‘हिन्दू का नहीं इन्सान का जन्म हुआ है (इन्सान का जन्म)। ‘‘शिनाख्त’’ का उल्लेख पहले भी हो चुका है। धार्मिक प्रतीकों को अति महत्त्व देकर दंगा भड़काना। फिर वही धार्मिक प्रतीक स्वयं के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं तो क्या प्रतिक्रिया होती है। एक नितान्त अशिक्षित व्यक्ति की सोच कैसे सामाजिक संदर्भ पा जाती है – यह पूर्ण कहानी का विषय है। (अनर्थ)

‘‘मारा किसने’’ का खूबसूरत नाट्य रूपान्तर करके प्रस्तुति की जा सकती है। गरीब रिक्शे वाले का व्यवहार हजार आयतों और श्लोकों के उच्चारण पर भारी पड़ता है। मज़हब द्वारा बताया गया रास्ता कितने शान्त कदमों से शान्ति पथ की तरफ ‘लीड’ करता है। (बताया गया रास्ता)

सांझा दु:ख, सांझी संवेदना, सांझा साहस, सांझे प्रयासों को रेखांकित करने वाली ‘सांझा’ उत्कृष्ट लघुकथा है।

उपर्युक्त लघुकथाएँ इस संग्रह की चुनींदा कथाएँ हैं जो ‘साम्प्रदायिक दंगों’ विषय पर मानक सिद्ध होंगीं। ये सभी लघुकथा यथार्थ का जस–का–तस प्रतिबिम्बन नहीं है। ये प्रेरणादायक अंग पर समाप्त होती हैं।

कथावस्तु के प्रतिबिम्बन में रचनाकार ग्रहण और त्याग में अनुपात–बोध से पूर्ण रूप से परिचित है। वर्ण्य कथ्य के किस अंश को कितने प्रभावशाली ढंग से प्रकाशित किया जाए और किस को छोड़ दिया जाए – इसके प्रति वह सचेत है।

भाषा पर परिवेश का प्रभाव है। पंजाबी, हरियाणवी तथा देशज शब्दों का प्रयोग हुआ है। यथा – रोना–कुरलाना (पंजाबी), अड़ोस–पड़ोस (हरियाणवी) आदि।

उन लघुकथाओं में पात्रों के माध्यम से ऐसी संवेदना व्यक्त की गई है जो परिवेश विशेष तथा परिस्थिति विशेष में मानवीय व्यवहार से संश्लिष्ट होकर मानव मात्र से सम्बन्ध रखती हैं। यहाँ पात्र  गौण, संवेदना प्रमुख है। रचनाकार अपने परिवेश से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। कल्पना के साथ–साथ उसे अपने क्षेत्र से पात्र और परिस्थितियाँ चुनने का सुलभ अवसर प्राप्त है। इसका भरपूर लाभ उठाने में वह नहीं चूका है। ये लघुकथाएँ मानवविरोधी स्थितियों की ओर संकेत करती हैं जिन्हें तुरन्त बदलना चाहिए। लेखक की लेखन–शैली में उसके भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है।

अनर्थ (लघुकथा संग्रह)कमल चोपड़ा,प्रकाशक अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, दिल्ली – 110030,पृष्ठ सं0 – 160,मूल्य – 350.00 रुपये

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हरनाम शर्मा,एजी–1/54सी, एमआईजी फ्लैट्स,विकासपुरी, नई दिल्ली – 110018

 

 


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