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कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-2015

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पहला  पुरस्कार प्राप्त लघुकथा

 गाली-अरुण  कुमार 

दस बजे बड़े बाबू    ने   कार्यालय में   प्रवेश  किया और कुर्सी   पर बैठने  से पहले उस पर उँगली  फिराकर गुस्से और रौब से  चीखा,  ‘‘अबे  चरणदास … लगता है   तू   आज

भी   देर से  ड्यूटी   पर आया,  जो तूने  मेज–कुर्सी   की   सफाई  नहीं की?’’

‘‘बाबू  जी, मैं    तो पौने   नौ  बजे ही आ  गया था।  आपकी मेज कुर्सी    तो   मैंने इसलिए छोड़    दी  कि आप दस  बजे आकर मुझसे   दोबारा सफाई  करवाते तो  हैं   ही  , तो  क्यों न आपके  आने पर आपके सामने ही सफाई  कर दूँ…’’ चरणदास ने  सहजता से जवाब दिया तो  बड़ा बाबू  बुरी   तरह से  चिढ़ गया।  अपनी  खिसियाहट छुपाते हुए  बोला, ‘‘अच्छा–अच्छा… अब ज्यादा जिरह मत लगा  और फटाफट मेज–कुर्सी  साफ कर दे। दुनियाभर का काम पड़ा है   करने को।  अब तेरी तरह मजे की  नौकरी तो है नहीं    हमारी कि सारा दिन बैन्च  पर बैठे ऊँघते  रहें।’’

चरणदास बडे़ बाबू    की   मेज–कुर्सी झाड़कर  चुपचाप अपनी बैन्च  पर आ बैठा  था। उसका मन कुछ  बुझ–सा  गया था।  अब वह  अपने  हिस्से के सारे काम  तो  करता ही   है, पर बड़ा  बाबू   कभी    उसके  काम से  प्रसन्न   हुआ    हो  ऐसा   कभी प्रकट  में  नहीं    आया। चरणदास जानता है।  वह सब कुछ जानता   है    कि बड़ा  बाबू   उससे  इतनी नफरत क्यों  करता है!   क्यों  वह उसकी हर छोटी – सी बात में  दोष   ढूँढने  बैठ    जाता है।

बड़े बाबू    ने   मेज पर पड़ी  फाइलों   पर नोटिंग  चढ़ाकर एक तरफ रखा  तथा पैन्ट  की अन्दरूनी  जेब से   चाभी निकालकर मेज पर पटकते   हुए  हाँक लगायी,   ‘‘चरणदास… अल्मारी खोलकर  कैश बुक निकाल… सर्टिफिकेट   देना है!’’  चरणदास ने  अल्मारी खोलकर कैशबुक मेज पर रखी  ही थी  कि बड़ा बाबू   कैशबुक  देखते ही तैश में   आ गया। चरणदास की तरफ लाल–पीली  आँखें   करता हुआ  गुर्राया, ‘‘अबे   तुझे  समझ  नहीं    है  क्या…  करंट वाली  कैशबुक  निकालकर ला। चरणदास ने  चुपचाप   वह  कैशबुक उठाकर अल्मारी में रखी  तथा वहाँ से  एक अन्य कैशबुक  उठाकर  ले आया।  उस कैशबुक   को देखते ही  बड़ा बाबू  आपे से बाहर हो  गया।  लगा चिल्लाने, ‘‘अबे  आज क्या तू  अपना  दिमाग घर  छोड़कर आया है  जो ऐसी  हरकतें कर रहा   है! ग्रीन जिल्द  वाली कैशबुक तू  रोज़   निकालकर  लाता है  और  आज देख  कैसे  जानबूझकर मुझे परेशान    कर रहा है   …!

बार–बार  के अपमान से आहत चरणदास के  भीतर  विरोध के  स्वर   उभर आए   थे।  वह कैशबुक   वहीं मेज पर छोड़कर बोला,   ‘‘मैं तो   अनपढ़ हूँ     बाऊजी! अब मुझे क्या   समझ कि आपको  क्या चाहिए! …  यह आपके  सामने चार कदम पर तो अल्मारी   है   …  आप थोड़ी   सी तकलीफ करो  और आपको   जो चाहिए   स्वयं  ही ले लो! यह कहकर चरणदास वापिस अपनी बैन्च  पर आकर बैठ  गया था।

चरणदास की इस क्रिया से बड़े बाबू    की क्रोघाग्नि  में घी  पड़   गया था,  मानो। वह कुर्सी को  पीछे  धकेलकर खड़ा   होता हुआ  चिल्लाया,    ‘‘अबे  ओ चूहड़े   के  बीज… तू   अपना ये चूहड़ापना घर  पर ही  छोड़कर आया कर … यहाँ हमारे सामने  दफ्तर में   अपनी गंदगी मत खिंडाया  कर…

जातिसूचक गाली सुनकर  चरणदास का खून  खौल  उठा।  दफ्तर और अपने   छोटे   पद  का खयाल कर बमुश्किल अपने गुस्से  को  पीता   हुआ बोला, ‘‘बाऊजी आप उम्र  में   और पद में   मुझसे बडे़   हैं।  आप ऊँची जाति से हैं    पर इसका मतलब यह तो  नहीं  कि आप मुझे जातिसूचक गाली देकर  बात करेंगे।  यह सब आपको शोभा नहीं   देता   है।

‘‘कहूँगा  मैं   तो तुझे  … चूहड़ा। चूहड़े  की औलाद!   तुझे जो  मेरा  बिगाड़ना है,  बिगाड़ले… जा!’’बडे़ बाबू    ने   चरणदास के अपने  प्रति मन में    बसी नफरत को   उल्टी  की तरह से उगला तथा बड़बड़ाता    हुआ    अपने काम में   लग गया।

चरणदास  का बाहर भीतर अपमान की आग में   जलने लगा था।  उसे लगा  कि अगर आज वह चुप बैठा  रह गया ,तो  यह आग तो  उसकी पीढ़यों को  जला देगी।  मन ही  मन कुछ  निश्चय कर वह उठा और  अपने प्रधान  रामआसरे को साथ  ले जाकर चौकी  में  बड़े बाबू  के  खिलाफ   पर्चा दे   दिया।

बड़े बाबू    को   जब पुलिस चौकी से  बुलावा आया तो  उसके सारे तेवर ढीले   पड़ गए। चौकी इंचार्ज उसे  समझाते हुए  बोला, ‘‘बाऊजी सरकारी नौकरी में होते    हुए आपने ऐसी गलती क्यों  की! आपको पता होना चाहिए    कि छुआछूत  अपराध   की  श्रेणी में   आता है।एक दिन का समय दे  रहा हूँ,   अगर अपनी नौकरी  की सलामती  चाहते हो , तो   समझौता कर लो।  कल इसी समय पुन:  हाजिर हो  जाना…।’’

बडे़ बाबू    ने   अपनी पूरी  ताकत लगा  दी कि किसी तरह से चरणदास  अपनी शिकायत वापिस ले  ले।  उसने अपनी यूनियन   के पदा​धिकारियों एवं कार्यालय के अन्य  कर्मचारियों के माध्यम   से भी   चरणदास को मनाने  की  कोशिश  की  किंतु चरणदास टस से मस न हुआ।  वह हाथ  जोड़कर   मात्र  एक ही  बात कहता कि उसे न्याय  चाहिए।

अगले दिन पुलिस  चौकी  में   चरणदास तथा   बड़ा बाबू  अपने  साथ दो–दो   मौजिज व्यक्तियों  को लेकर   पहुँच गये  थे।  बड़े   बाबू के  होश–हवाश  उड़े   हुए थे।  उसे   काटो तो खून नहीं।  चौकी  इंचार्ज  ने फिर  से कहा,  ‘‘तुम दोनों  सरकारी कर्मचारी हो।  बात बढ़ाने  से क्या फायदा…।  एक–दूसरे   से  हाथ मिलाकर बात खत्म करो।  बड़ा बाबू  तो  मानो   इसी ताक में था। क्षणांश  की भी देरी   किये  बिना उसने चरणदास   के  पैरों को    छू    लिया।  हाथ जोड़कर फफकता हुआ  बोला, ‘‘मेरी नौकरी  तेरे हाथ है  चरणदास … मेरी   दो बेटियाँ अभी अनब्याही  हैं     … भाई मुझे    माफ कर दे।

बडे़ बाबू    की आँखों    में  आँसू  देखकर चरणदास  पिघल गया, बोला,  ‘‘बाऊजी! मैं   तो छोटा  आदमी हूँ    और सदा   छोटा ही   रहूँगा।  आपको सजा दिलवाना   मेरा उद्देश्य नहीं  था। मैं    तो  बस आपको अहसास दिलाना चाहता  था  कि मैं  भी    एक मनुष्य हूँ।  क्या  हुआ गर मैं  छोटी     जाति में   पैदा   हो  गया …!’’

चरणदास ने  समझौता  प्रस्तुत करके   अपनी शिकायत वापिस ले ली  थी।

पुलिस चौकी से  बाहर   आते  हुए  बड़ा  बाबू   पसीने पौंछ  रहा था। वह अपने आप को बेहद अपमानित महसूस कर रहा था।  रही–सही कसर पुलिस वालों  ने  उसकी जेब खाली करा कर पूरी  कर दी  थी।  बाहर आते हुए उसकी  हालत  ऐसी  हो   रही थी , मानो   बस के पहिये   के नीचे उसकी   गर्दन आती–आती  बची  हो  ! चरणदास  की गर्दन  आत्मविश्वास  से तनी हुई  थी   तथा उसका   चेहरा  स्वाभिमान की  आभा से  दमक रहा था।  यह देखकर बड़े बाबू के  मन में   जातीय द्वेष  की भावना  फिर से जाग्रत हो   गयी थी।  बड़ा  बाबू   चरणदास के नजदीक आकर, नफरत से उसकी तरफ देखता  हुआ बुदबुदाया, ‘‘चरणदास … हो  गई तेरे  मन की  पूरी! अब तो  तू खुश   है!  पर एक बात बता चरणदास … अब क्या तू  ब्राह्मण हो   गया है?’’

चरणदास  विस्फारित नेत्रों   से बडे़ बाबू    का चेहरा ताकता ही रह गया। उसे लगा,  मानो बड़े बाबू    ने   उसे फिर  से  गाली देते  हुए उसके  गाल  पर तमाचा जड़ दिया   है।

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स्थायी  पता :    अरुण कुमार, 895/12,आजाद नगर, कुरुक्षेत्र –136119(हरियाणा)

वर्तमान   पता  :   मकान नं।   1460,सेक्टर–13,  हिसार

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दूसरा पुरस्कार   प्राप्त  लघुकथा

तो   क्या…? कुमार    शर्मा अनिल

 

ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। मात्रा तीन  महीने ही गुजरे होंगे  जब उसे अचानक अपनी चालीस बरस की  उम्र में   सोलह बरस की अनन्या  से प्रेम   हो  गया था।  उसने बहुत बार  सोचा था  कि यह वाकई में   प्रेम  है   या मात्रा  शारीरिक आकर्षण अथवा  पत्नी से नीरस बन चुके    सम्बन्धों से उकता जाकर कुछ नया  तलाशने  की  पुरुष की  आदिम   प्रवृत्ति। प्रेम  और  शारीरिक   आकर्षण में    अंतर की  बहुत  ही महीन  सी रेखा  होती  है  और  इन्हें  एकदम से अलग कर नहीं देखा  जा सकता।  अनन्या उसकी बेटी  की  अभी हाल  ही में  बनी सहेली थी   और लगभग   रोज  ही शाम   को पढ़ने उसके   घर  आती   थी।

‘‘तेरे  पापा  बहुत  ही हैण्डसम  और यंग  लगते   हैं’’-अनन्या   ने उसकी बेटी  से  कहा   तो बेटी  ने  गर्व  महसूस  करते  हुए यह जुमला परिवार  में   सभी को ‘एज़   इट इज़’ बता दिया। अगले  दिन उसने जब अनन्या को  देखा  तो  उसकी दृष्टि  बदली हुई   थी।  अब वह उसकी बेटी  की सहेली नहीं   थी  ;बल्कि  सिर्फ़ ‘अनन्या’ थी।  उसे वह  खूबसूरत गुड़िया – सी लगी। सोलह बरस की  खूबसूरत  लड़कियाँ  जिनके चेहरे की मासूमियत यह चुगली  खा रही  होती है  कि उनका बचपन अभी गया नहीं    है और शरीर  की  बढ़ती मांसलता यह बता रही होती है  कि जवानी ने  अपनी दस्तक दे दी   है, लगती भी गुड़िया – सी ही हैं। वह जब भी गुडि़याओं को  देखता    था तब भी  उसके मन में   यह सवाल हमेशा आता  था  कि बच्चों  के खेलने के लिए बनी गुडि़याएँ   अपनी शारीरिक  बनावट में   इतनी  उत्तेजक क्यों बनाई   जाती हैं।

लापरवाही से भरी और  अल्हड़ता  से छलकती  सी बातबात में  ‘तो    क्या…?’ बोलने वाली अनन्या  की न तो  उम्र  इतनी थी  ,न उसमें इतनी   समझ ही  थी कि वह उसकी आँखों के  भावों   को  जान सके और  चेहरे  को  पढ़  सके…और उसकी उम्र   भी इतनी कहाँ   थी कि वह  अनन्या  जितनी छोटी, मासूम  -सी लड़की  का    हाथ पकड़   जाकर  कह सके कि‘‘तुम   बहुत  सुंदर हो’’   या‘‘तुम मुझे  बहुत अच्छी लगती  हो’’।

बस यही दो   वाक्य थे  जो उसके  मस्तिष्क   में  गूंजते     थे   परंतु उसकी   उन्हें   कहने की हिम्मत नहीं पड़ती  थी।  वह इतनी बातूनी और  चंचल थी  कि बहुत  संभव था  कि वह प्रति उत्तर में   कह देती‘‘सुंदर   तो मैं    हूँ…तो क्या?’’वह   ऐसी  ही थी। चंचल,   बातूनी और अपनी सुंदरता  व परिवार   की  सम्पन्नता  के दंभ   या स्वाभिमान से  भरी…छलकती -सी लड़की।  इसमें उसका  कोई  दोष  भी नहीं   था ; क्योंकि बचपन से ही अपनी सुंदरता  की  बातें सुनते  हुए  ही  वह   बड़ी   हुई  थी।   लेकिन  पहली बार   देखने पर ही अनन्या   का  यह कहना‘‘तेरे   पापा   बहुत   ही हैण्डसम   और यंग  है’’उसे हमेशा  इस अनजानी  राह पर आगे   बढ़ने के  लिए प्रेरित  करता- सा लगता।

तीन  माह तक  प्रेम  और   शारीरिक   आकर्षक के बीच   के अंतर की  जद्दोजहद से गुजरने  के पश्चात कल उसे  मौका मिल ही गया  जब अनन्या को  रात  ज्यादा हो  जाने पर उसे  कार में   घर  छोड़ने   जाना पड़ा।  सब कुछ अप्रत्याशित   था   उसके लिए।

‘‘तुम  मुझे बहुत अच्छी लगती  हो  अनन्या’’ उसने हिम्मत करके  उसे  बोल ही दिया।

‘‘तो  क्या…?।आप भी  मुझे    बहुत  अच्छे लगते  हो…।  पहले  दिन  से ही’’-अनन्या ने अपनी सीट बेल्ट खोली  और   उसके गाल पर एक लम्बा ‘किस’  रसीद कर दिया।

सब कुछ इतनी  जल्दी घट  जाएगा  और इतना  अप्रत्याशित,   इसकी उसने कल्पना  भी नहीं की   थी।  उसे लगा  वह  खुशी  से पागल  हो   जाएगा।

‘‘पहली नजर  में   ही  मुझे तुमसे प्यार  हो  गया था’’उसने  प्यार  से अनन्या का हाथ पकड़ लिया-‘‘ पर तुम मुझसे इतनी  छोटी  हो  कि मेरी हिम्मत   ही  नहीं  पड़ती   थी कि तुम्हें कह सकूँ  कि मैं   तुम्हें     प्यार करता हूँ।’’

‘‘छोटी  हूँ  तो  क्या?  हमारे मैथ्स के टीचर राकेश सर तो  आपसे भी   बड़े  हैं। सुरभि और राकेश  सर भी  तो   आपस  में   बहुत प्यार करते हैं।  वो  तो   आपस  में …’

उसने एक झटके से अनन्या  का हाथ  छोड़   दिया।  ‘‘सुरभि’’…शब्द उसके  दिमाग में फँस _सा गया।

‘‘प्यार    ही  तो करते हैं    तो  क्या…?  ’’अनन्या  उसी  मासूमियत   से  उसका  चेहरा देखने  लगी।

सुरभि  उसकी अपनी बेटी  थी।

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कुमार   शर्मा अनिल’,संपर्क   :       म नं 46,  रमन एनक्लेव, छज्जू  माजरा, खरड़ सेक्टर–117,    ग्रेटर मोहाली–140301  (पंजाब)

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तीसरा पुरस्कार  प्राप्त  लघुकथा

दाँत कुचरनी-राकेश माहेश्वरी काल्पनिक

कई    वर्षों   से  विदेश में   रह रहे   बेटे को   अपनी माँ से  मिलने    का   मन हुआ  और  वह हिन्दुस्तान आ   गया। अपने बेटे  को    अनायास अपने सामने  देखकर  माँ   भाव-विभोर   हो  गई।  उसने उसे अपने  गले से लगा लिया  और उसके  सिर पर हाथ फेरने  लगी। तभी   बेटे ने  अपनी जेब से एक डिब्बी  निकाली  और अपनी माँ को  देते हुए   बोला,  ‘‘रख लो  माँ , सोने  की है,    मैं  तुम्हारे  लिए ही लेकर  आया  हूँ।’’ माँ ने  डिब्बी  खोलकर देखी और जोर से हँस पड़ी। हँसते समय उसका खुली हुई  डिब्बी -सा पोपला खुला  हुआ  मुँह दिख रहा था।  उसके हाथों  में   सोने की  दाँत कुचरनी   दबी  हुई   थी।

 -0- संपर्क  :    राकेश माहेश्वरी काल्पनिक’, गली–07,  घनारे   कॉलोनी नरसिंहपुर (म.प्र.)

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चौथा   पुरस्कार  प्राप्त  लघुकथा

एकलव्य  की   विडम्बना-राम  कुमार   आत्रेय

एकलव्य ने  गहन आत्मविश्वास के   साथ    गुरु   द्रोणाचार्य के कक्ष  में   अनुमति  माँगकर प्रवेश  किया। प्रवेश  करते ही  उसने   गुरु  द्रोणचार्य के   चरणों  को  स्पर्श   करते हुए नमस्कार किया।  द्रोणाचार्य  का हाथ आशीर्वाद  के  लिए अभ्यासवश जरा सा- ही ऊपर उठा था  ;लेकिन एकलव्य के तन पर फटे–पुराने वस्त्रों  पर दृष्टि पड़ते ही  वह किसी मुर्दे  की तरह अपने पूर्व   के  स्थान पर गिरकर स्थिर    हो गया।

द्रोणाचार्य के   होठों   के बीच  से  एक अनचाहा–सा स्वर  निकला,  ‘‘कहिए   कैसे आना हुआ?’’

‘‘आपकी अकादमी  में    मैं   शस्त्र  विद्या  का ज्ञान प्राप्त करना  चाहता हूँ,    गुरुजी।  मुझे अकादमी में  प्रवेश दिलाकर कृतार्थ  करें।’’ एकलव्य के स्वर  में  निहित  विनम्रता गिड़गिड़ाहट में   परिवर्तित  होकर रह गई  थी।

‘‘तुम्हें   यहाँ  प्रवेश  नहीं दिया जा सकता बच्चे!’’  टका  –सा  उत्तर दिया था गुरु   द्रोण ने।

‘‘इस  प्रकार  इनकार मत कीजिए गुरु जी। पिछले जन्म  में तो   आपने मुझे भील  बालक होने  के कारण  प्रवेश  नहीं दिया था।  बाद में   आपको  गुरु मानकर मैंने  शस्त्र  विद्या में   स्वयं ही पारंगतता  हासिल   कर ली । इस पर आपने गुरु–दक्षिणा के  रूप में   मेरा   अंगूठा ही  माँग लिया था।  परन्तु मैंने  बाद में  घोर   तपस्या  की ताकि मैं   क्षत्रिय जाति में   जन्म लेकर आपसे शस्त्रा विद्या सीख सकूँ।  मुझे क्षत्रिय  जाति में तो   जन्म नहीं मिला,   परन्तु   प्रभु ने   ब्राह्मण  के घर अवश्य जन्म दे  दिया।  ब्राह्मण तो सभी  जातियों   से  श्रेष्ठ  होता है   न गुरु जी। आप भी तो ब्राह्मण   ही  हैं।  इस बार मुझे  प्रवेश    दे  ही   दीजिए प्रभु।’’ एकलव्य द्रोणाचार्य  के  चरणों में   गिरकर गिड़गिड़ाने  लगा था।

‘‘सुनो बच्चे,   यदि तुम इस बार भील  बालक  के रूप  में   भी   यहाँ  प्रवेश लेने आते  तो भी   तुम्हें   मैं  प्रवेश   देने से इनकार नहीं  करता। मेरी विवशता   है   कि इस बार ब्राह्मण बालक होने  पर भी  यहाँ  प्रवेश  नहीं दे  पाऊँगा। कारण तुम्हारे  फटे  –पुराने वस्त्र।  बता  रहे हैं    कि तुम निर्धन  हो।  इसलिए।’’

एकलव्य भूल   गया था  कि गुरुजनों  की बात  काटना अशिष्टता  समझी जाती है।  वह स्वयं पर नियंत्रण   नहीं रख पाया।  बोल  पड़ा‘‘निर्धन  होना भी  पाप हो  गया,  गुरु जी?’’

‘‘बात यह है   एकलव्य अब इस अकादमी में   पढ़ने  वाले  छात्रा यु​धिष्ठिर,    अजु‍र्न,   भीम,तथा    दुर्योधन बनकर नहीं  बल्कि आईएएस,  आईपीएस, इन्जीनियर  तथा  डाक्टर बनकर राष्ट्र  की  सेवा करते हैं,   देश को चलाते   हैं।  इसके लिए वे  प्रति वर्ष  एक लाख दस हजार रुपये  छात्रावास शुल्क भी   चुकाते हैं।  प्रतिमास  पाँच हजार रुपये  शिक्षण  शुल्क तथा पाँच हजार रूपये   छात्रावास शुल्क भी   उन्हें   चुकाना   होता है।  क्या तुम ऐसा  कर सकते हो?’’

‘‘नहीं गुरुदेव। मेरे माता–पिता तो दो वक्त का भोजन ही मुश्किल से जुटा पाते  हैं।’’ ऐसा कहते  हुए एकलव्य की  गर्दन झुक  गई  थी।

‘‘यदि मैं   तुम   जैसे  निर्धन छात्र को  उनके   साथ   कक्षा   में   बिठाऊँगा    ,तो वे सब तुम्हारे साथ   बैठने से  इनकार कर देंगे।  छात्रों   के माता–पिता   भी   किसी अन्य अकादमी में   उन्हें प्रवेश दिलवाना   पसन्द करेंगे,  न कि मेरी  अकादमी में।  यह प्रश्न जाति का नहीं,  धन का है    बच्चे।  जाओ  किसी सरकारी विद्यालय में    प्रवेश लेकर   जो भी   सीखने   को मिले सीख लेना।  और   नहीं  तो  वे तुम्हें वे  तुम्हें  अँगूठा    लगाना   तो सिखा   ही देंगे। हाँ,  इस बार  तुम्हारा अँगूठा  नहीं  माँगूँगा।’’ द्रोण  ने   एकलव्य के समक्ष  स्थिति   पूरी तरह स्पष्ट  कर दी।

गत जीवन में अँगूठा    कटवाकर सहानुभूति अर्जित कर लेने वाला  एकलव्य समझ नहीं पा रहा था  कि अपने दाएँ   हाथ के अँगूठे  को स्वयं  काटकर फेंक   दे  अथवा  आयु  पर्यन्त व्यर्थ    में  ही उसका   बोझ  ढोता रहे।

-0- सम्पर्क   :  राम  कुमार आत्रेय      864–ए/12,आजाद   नगर,कुरुक्षेत्र  136119 हरियाणा।

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पाँचवां पुरस्कार    प्राप्त   लघुकथा

अपना अपना ईमान-हरीश  कुमार  अमित

 

छह दिनों  से मैं    काफ़ी  परेशान था।  पाँच  सौ रुपए का नकली  नोट  न जाने  कहाँ से मुझे   मिल गया था।  नया–नकोर।  वह नोट दिखने    में  तो  बिल्कुल    असली जैसा लगता था,  पर था  नकली।यह बात मुझे तब पता चली थी  जब मैं   बैंक  में कुछ रुपए जमा करवाने गया था।

उसके बाद मैंने   दो–तीन  बड़ी–बड़ी  भीड़–भरी दुकानों    पर वह नोट  चलाने की  कोशिश की, पर सफल न हो   पाया।  बहुत व्यस्त होने  पर भी दुकानदारों    की तेज़   निगाहें नोट के नकली होने  की बात जान लेती  थीं।

मैं   असमंजस में  था   कि नोट को  कहाँ   और  कैसे  चलाया जाए।  फिर अचानक मुझे  एक तरीक़ा  सूझ  ही  गया।

रात  के समय मैंने  पटरी पर सब्ज़ी बेचने वाले से  डेढ़   सौ  रुपए की सब्ज़ी   खरीदी और वही   पाँच   सौ का   नकली नोट उसे   पकड़ा   दिया।  मुझे   उम्मीद     थी  कि लैम्पपोस्ट   की मद्धम–सी रोशनी  में   वह  सब्ज़ीवाला यह जान ही  नहीं पाएगा कि नोट  नकली है।

वह नोट लेने  के बाद उस  दुकानदार   ने बाकी   के नोट  मुझे  लौटाने के लिए रुपए गिनने शुरू किए, मगर रुपए गिनने में   वह काफ़ी  समय लगा रहा था।  मुझे  लगा कि कहीं उसे नोट के  नकली होने  की   भनक   तो नहीं लग गई।

मैंने  उससे पूछ ही  लिया, ‘‘भइया,   साढ़े तीन सौ  रुपये ही  तो वापिस करने हैं  न मुझे।

इतने रुपए गिनने में   इतना   वक़्त लगता है   क्या?’’

इस पर वह  दुकानदार बाकी  के रुपए मेरी तरफ बढ़ाते हुए  बोला, ‘‘बाबूजी,  आपका नोट  बिल्कुल नया  था,  अब ऐसे नए नोट  के बदले  आपको  पुराने–पुराने  नोट कैसे   दे देता इसलिए  नए–नए नोट  छाँट  रहा था   आपको देने के   लिए।’’

-0-म्पर्क   :   हरीश  कुमार अमित  , 304,  एम एस–4,  केन्द्रीय विहार,    सेक्टर–56  गुड़गाँव–122011(हरियाणा)

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छठा   पुरस्कार  प्राप्त  लघुकथा

सहारा-रणजीत टाडा

अन्दर से आती  आवाज़ सुनकर कुलबीर अँगन में  ही ठिठक गया  कि माँ  किससे बातें कर रही है  क्योंकि बाहर माँ के  सिवाय किसी के  जूते नहीं थे।  वह  सुनने के लिए चुपचाप  बरामदे में  खड़ा    हो   गया। माँ  अकेली ही  बोले जा रही थी।  थोड़ी–थोड़ी   देर बाद मींआऊं  की आवाज  आती थी।  वह समझा माँ  सठिया गई  है।

कहने को  पोते–पोतियों वाली    माँ  का भरापूरा  परिवार।  अगल–बगल में   बेटों    के  घर। छूटना  बेटा  कुलबीर शहर में   परिवार  के साथ।  यहाँ  माँ अकेली–तन्हा   जिंदा  लाश   के साथ। बापू के  मरते ही  बहुओं ने  अपनी–अपनी स्मृतियों  की  डायरियाँ  निकाल लीं -बुढि़या,तूने  तब ये कहा  था,  वो  कहा था।  बेटे तो   पहले   ही जानवरों को मात दे रहे   थे।  अब पूरी तरह मदारी  के बन्दर  थे    और  औलाद   को  संस्कारों की विरासत हस्तांतरित कर रहे  थे। वह अपने होने    में  लौटा।  कमरे में   प्रवेश  किया। बिल्ली  डर के मारे बाहर   भागी।  बेटे को  देख  माँ  खिल   उठी! तपते रेगिस्तान में   ठण्डी  फुहार।

‘‘माँ  तूँ    किससे बतळा  रही थी?’’ उसने   बात शुरू करने  की गरज़  से पूछा।

‘‘मेरा यहाँ  कौन है   बेटा…  बस यही एक मिनकी है।  उसे  हुंकारा भरा रही थी…  इसके साथ दिन  कटी हो  जाती है… बेटे–बहुएँ , पोते–पोतियाँ     कोई नहीं  बोलता   मेरे से … ।  मैं   उनसे क्या  पैसे मांगती हूँ…  दो   घड़ी  बोल–बतळा  लें  तो    जी सोहरा  हो   जाय…  बोलणे के  लिए तरसती  रहती हूँ… बहुओं  की  क्या कहूँ वे  तो  पराई    जाई   हैं। अपणी औलाद  में    ही  तंत कोनी  बेटा।’’ अन्दर  उबल  रहे मवाद  को   माँ  ने  बाहर  फेंका।

‘‘जब   तेरा यहाँ कोई नहीं…  तू  मेरे   साथ शहर  क्यों  नही चल पड़ती?’’ उसने  अपनी पुरानी  बात फिर दोहराई।

‘‘बेटा तेरी   पत्नी  ।के  साथ   थोड़ा   बहुत  बोला है।  कहीं उसने  भी  कोई   पिटारी  खोल ली और अबोला  हो  गई? फिर  तो मेरा  वापस आणा मरण हो  जावेगा रे…  तूँ  भी     लाठी–भींत बीचाले आ  जावेगा…अब तो  बस तेरे  बापू  की तरयाँ   चलते–फिरते ही  उठा ले  परमात्मा… पराये बस ना  होना पड़े…।’ कहते–कहते माँ के  आँखों  से आँसुओं  का अविरल सैलाब बह निकला।  वह अन्दर तक भीग  गया। उसने माँ के  आँसुओं का  समुद्र रूमाल में   सहेजा  और उसे  अपनी जेब में   सुरक्षित रख लिया।

-0 सम्पर्करणजीत टाडा, द्वारा दूरदर्शन  केन्द्र, सेक्टर–13,हिसार–125005   (हरियाणा)

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सातवाँ  पुरस्कार  प्राप्त  लघुकथा

खुशियों   की  होम डिलीवरी-जगवती निर्माण

 

दिलशाद  गार्डन    मेट्रो  स्टेशन  के  साथ   मानो गों   से चिपकाया  गया आलीशान ‘डोमिनोज   पिज्जा  पार्लर’    जैसे    ‘खुशियों की   होम डिलीवरी; इस  खुशियों   के वातानुकूलित  कंटेनर से अलग–थलग बाहर उमस भरी  मई  की दोपहर में   पिज्जा पार्लर  के ठीक सामने तपती धरती पर चिथड़ा  बिछाए बैठी  है,  खुशियों   की नहीं,   रोटियों की भीख माँगती एक भिखारिन।  अपनी माँ के  व्यवसाय से अनभिज्ञ उसके आस–पास  खेल रहा  है, उसका चार साल का बेटा, जो   खुशियों को  वैज्ञानिक की  भाँति  खोज रहा  है। आते–जाते लोगों   द्वारा    फेंके गए  गुटखों   के  खाली  पैकेटों   और सिगरेट  के अधजले   टुकड़ों    के  बीच खेलते–खेलते    वो बार–बार   पहुँच जाता है   उस खुशियों के  कंटेनर   पिज्जा   पार्लर के सामने और  काँच की  दीवार  पर टिका  देता है,   अपनी बहती नाक और   गंदे हाथ।  उसकी  नजरें मानो  चिपक जाती हैं     उस पोस्टर  वाले  पिज्जा  से, बस टपकने   को तैयार  नर्म–नर्म  सफेद तरल पर।  लोगों  की आवाजाही से बार–बार खुलता–बंद  होता  वह  काँच का दरवाजा  जैसे ही खुलता  है,  तो   अन्दर से ठंडी  हवा का  एक खुशबू  भरा  झोंका  उसके   चेहरे से टकराता है।  उस पल वो  अपनी  साँस   को जोर  जोर  से  ऊपर खींचता  है   और  अपनी बहती नाक सुड़ककर ऊपर कर लेता है।  खड़े–खड़े   बच्चे   के  पाँव  दुखने लगते हैं,   पर कोई  उसकी  ओर देखता  भी नहीं,    बच्चा निराश  हो   चला है…

तभी उसकी  माँ पीछे  से आवाज  लगाती है,  उसी चीथड़े  पर बैठी  अपने पास रखे  झोले में   से अखबार  में   लिपटी एक मोटी  रोटी  उसके हाथ  पर रख  देती है।  बच्चा दो  मिनट  उसे देखता  है।  माँ  फिर से अपने  काम में   लग जाती है।

पर बच्चा किसी और ही फिक्र   में   है…

उसने अखबार  पर रखी रोटी  के चार  बराबर   टुकड़े   किये  और जेब टटोलकर   उसमें पड़ी   बचे  हुए  चूरन की  मुड़ी _ तुड़ी  पुडि़या      निकालकर उस पर बिखेर  दी।  माँ  से  नजर बचाकर  उसके झोले  से एक प्याज निकाला, जो शायद  माँ  ने  अपनी रोटी  के साथ रखा हो।  उसने  दाँतों  से  और नाखूनों  से उसके छोटे–छोटे   टुकड़े   किए और    वो  भी उस रोटी  पर बिखरा दिए…

बच्चे की  आँखें   चमक उठी  हैं,    ठीक उस पिज्जा  पार्लर में   लगे  पोस्टर के  लोगों   की आँखों   की तरह।                                                                                                        घ्

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म्पर्क:   जगवती निर्माण  ए–4/189,    नन्द   नगरी, दिल्ली–110093

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आठवाँ पुरस्कार   प्राप्त  लघुकथा

बचपन-बचपन-मीरा  जैन

बेटे   दिव्यम  के जन्मदिन   पर गिफ्ट  में    आए    ढेर  से   नई तकनीक के  इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों   में  कुछ को दिव्यम   चला   ही  नहीं पा रहा था।  घर के अन्य   सदस्यों ने   भी हाथ आजमाइश  की लेकिन किसी को   भी सफलता नहीं मिली। तभी काम वाली   बाई सन्नो का दस वर्षीय लड़का  किसी काम  से घर आया  सभी  को खिलौने के  लिए बेवजह मेहनत करता देख वह  बड़े   ही  धीमे व संकोची लहजे   में   बोला-‘‘आँटी जी! आप कहें  तो  खिलौनों को   चलाकर बता दूँ?’

पहले  तो मालती उसका चेहरा देखती रही फिर  मन ही मन सोच रही थी  कि इसे दिया तो  निश्चित ही तोड़ देगा  , फिर भी  सन्नो का लिहाज कर बेमन से हाँ  कर दिया  और देखते ही  देखते मुश्किल खिलौने को उसने   एक बार में   ही स्टार्ट  कर दिया। सभी आश्चर्यचकित मालती ने  सन्नों  को   हँसते हुए ताना मारा-‘वाह  री  सन्नो! यूँ   तो कहेगी   पगार कम पड़ती  है   और इतने  महँगे    खिलौने   छोरे को दिलाती है   जो  मैंने   आज तक  नहीं  खरीदे?’

इतना   सुनते  ही सन्नो की  आँखें  नम हो   गई ।   उसने रुँधे   गले से  कहा-‘‘बाई  जी! यह खिलौनों  से खेलता नहीं  ;बल्कि खिलौनों  की  दुकान पर काम करता है।’’ जवाब सुन  मालती   स्वयं को लज्जित महसूस कर सोचने लगी  दोनों   के  बचपन में कितना अंतर है।

-0-सम्पर्क : मीरा  जैन   516, सॉईनाथ  कालोनी, सेठी नगर, उज्जैन

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नौवाँ   पुरस्कार  प्राप्त  लघुकथा

चाँद  के  उस पार-सविता पांडे

सब सो  रहे  थे।  धरती  और आकाश   के बीच  बैठी  पामेला जाग रही थी।

‘‘शहर  की  सबसे  ऊँची  इमारत में    रहती अकेली   लड़की! क्या  तुम्हें    डर   नहीं लगता?’’

छोटे–छोटे शहरों     से  बाबस्ता   उसके   यार–दोस्त अधिक ऊँचाई  से  नीचे गिर जाने का अंजाम जानते थे।  यह भी   कि इस तरह अचानक  से कभी    भी फिसल जाने का  डर तब और    भी खतरनाक हो   जाता है   जबकि  ऊँचाई  वचु‍र्अल    हो! आभासी!!! सचमुच!!!

‘‘आज  की रात चाँद  देखा क्या?’’   पामेला   के  कमरे  की  इकलौती खिड़की  सीधी उसकी गोद  में   खुलती थी।  खिड़की  के  चौखटे फ़्रेम से  झाँकता  सुशांत पूछ रहा  था।  उसके पीछे ऊँघता हुआ शहर जगमगा रहा था। निरभ्र आकाश में  चमकता गोल चाँद अपनी छटा बिखेर रहा था और   हाथों   में   खीर  का  कटोरा लिये वह खड़ा   था।

‘‘हाँ!  देखा,  एक साथ तीन   चाँद देखे।  आकाश में  टँगा    एक चाँद।  तुम्हारी चाँद–सी सूरत  और हाथों    में   चाँद का  कटोरा।’’ पामेला हँसी।

‘‘माँ कहती है    आज की रात चाँद से  अमृत बरसता है।  क्या  पता ऐसी   ही किसी चाँद–रात   को  एक-दो अमृत बूँदें    हमारी  प्यालियों में   भी    बरस जाएँ।’’ सुशांत  बोला।

‘‘मरने से  डरते हो   सुश?’’   पामेला   ने पूछा।

‘‘नहीं,  लेकिन मरने से पहले बस एक बार तुम्हारे चेहरे  का  चाँद अपनी हथेलियों  में भरकर   चूमना चाहता   हूँ।  आओ! यह अमृत प्याली  आधी–आधी   बाँट  लें।’’

‘‘यह  क्या कह दिया  सुशांत ने?  हमारी  दोस्ती  इस मुकाम  तक  कब पहुँच  गई।’’

पामेला  अचकचाई।  आसमान में   चमकते चाँद  को  बादलों ने जैसे   ढँक–सा   लिया।

नीम अँधेरे     में  सुशांत   कहीं   खो गया। फोटोशॉप      में  तराशी गयी पामेला  की  चाँद–सी तस्वीर विंडस्क्रीन  पर छा  गई।  पामेला  की  बरसों पुरानी इक तस्वीर।  जबकि  उसने अपने लिए इस आभासी  दुनिया   को चुना था।  अवास्तविक प्रोफाइल!  नकली   स्टेटस!

झूठे   अपडेट्स  और उसके   वजूद  को नकारता एक नाम पामेला!

‘‘हाँ!  मुझे  अधिक ऊँचाई से डर लगता  है।’’ अपनी गोद  में   खुलती  इकलौती   खिड़की से झाँकती पामेला चीखी। छोटे–छोटे  शहरों  से बाबस्ता उसके दोस्तों  तक यह आवाज नहीं पहुँची।  छोटे–छोटे   शहरों  से  बाबस्ता   उसके   दोस्त असली पामेला   को पहचानते थे।  लेकिन इतनी ऊँचाई  से आ रही आवाज  कहाँ सुन  सकते थे   भला! अलग–अलग नामों  से उसकी फ़्रेण्ड   लिस्ट  में   शुमार  सुशांत  भी   सो  चुका  था। दर्जनों  अभिव्यक्तियों  को बयाँ   करता एक नाम सुश!

अचानक ही माउस  पैड  पर रेंगते  पामेला की  कलाई में   एक तेज झनझनाहट–सी हुई। उँगलियों  से कंधे  तक गुजरती उसके मस्तिष्क तक पहुँची और उसे  चीर–सी   गयी। पामेला ने  अपनी कलाई पर पिंक बैंडेज  बाँधा।  उसकी हड्डियाँ,   नसें और मांसपेशियाँ   कमजोर हो रही थीं। दिन–ब–दिन बुढ़ाती  जाती त्वचा में   एक–दो   झुर्रीदार लकीरें जैसे  रोज  ही बढ़ती जा रही थीं। लेकिन उम्र–दर–उम्र  साथ गुजरते  रहने के बाद  भी  सुशांत  वैसा  ही था। जवां  और खूबसूरत।  डिजिटल भी!!!

सब सो  रहे  थे।  दरो–दरख्त  और  चिडि़याँ -चुग्गे, पास-पड़ोस  कुत्ते-बिल्लियों  तक।

गहराती   कालिमा   घुलता–मिलता पामेला  का  रंग और शादी की  उम्र  तक।

‘‘हाँ!  सुश! मरने से पहले तुम्हारी अमृत प्याली चखना चाहती हूँ।  पर, काश! कि इस डिजिटल   दुनिया में    बिताए   और जिए गए  पल  भी   वचु‍र्अल  हो   सकते! आभासी…!!!’’ धरती आकाश  के बीच  बैठी  पामेला अब भी   जाग रही थी।

-0- संपर्क :   सविता पांडे  जीडी   कॉलोनी, मयूर विहार  फेज–3, दिल्ली   –110096

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दसवाँ  पुरस्कार  प्राप्त  लघुकथा

घेवर-किरण अग्रवाल

क्या हम यह जमीन साथ  ले जाएँगे   या फिर  अपने  हिस्से का आसमान? और  उसके देखते  ही  देखते  आसमान एक विशालकाय घेवर  में    बदल गया। उसने   देखा एक दुकानदार  है     जिसका  चेहरा     दिखाई    नहीं   दे   रहा।   लोगों    का  एक अन्तहीन  हुजूम   है भूखा–नंगा   जो ‘जिहाद  जिन्दाबाद …ज़िहाद जिन्दाबाद, भारत माता  की  जय…भारत माता की जय, लौंग  लिव   द  किंग’ के नारे लगा  रहा  है।  दुकानदार   घेवर काट–काटकर तोलता जा रहा है   और  अपना–अपना  हिस्सा लेने को आतुर   भीड़   एक–दूसरे पर टूट   रही है।  वह कच–कच करके घेवर खा  रही   है   और  उससे गरम–गरम ताजा खून  टपक रहा  है।  फिर उसने   देखा कि पहाड़  की धवल चोटी  पर अंधेरा   धीरे– धीरे  पाँव    जमाता जा रहा है   और इसी  गहराते श्याम रंग  में   रंजीत   आहिस्ता–आहिस्ता चोटी  की  ओर सरक रहा है।  उसके घुटने  छिल गए हैं।  उसकी हथेलियाँ घायल   हो  गई   हैं    लेकिन फिर भी   वह  दुश्मन  के खेमे की  ओर आगे बढ़ता जा रहा है। अब उसने दुश्मन  पर फायरिंग करनी  शुरू कर दी  है। उसके  अचूक निशानों  से एक के बाद  एक दुश्मन  के जवान धराशायी    होते जा रहे  हैं। उनके दिल  दहशत   से दहल रहे  हैं।  तभी दुश्मन   की  ओर  से  एक गोला   फेंका  जाता है। इतनी   तीव्र रोशनी होती है   मानो  यकायक  दिन हो   गया हो।  उसी  क्षण एक गोली  आती है  और रंजीत   के सीने में   धँस जाती है। ‘‘रंजीत!’’ वह  जोर से चीख पड़ती है।  अम्मा दौड़ी हुई   आती हैं,   ‘‘क्या हुआ मृणाल?   फिर   कोई  सपना देखा  क्या?’’ वह फटी–फटी नजरों  से अम्मा जी को ताक रही है।  ‘‘अरे बोलती क्यों नहीं  निगोड़ी!  क्या एक तेरा ही पति लड़ाई पर गया है!  एक महीना   तेरे साथ  रहकर गया है   न। उनका क्या जिनके  पति सुहाग की सेज पर ही  उनको   छोड़कर चले गए…। आएगा न सावन में   फिर से।  बोला  है   न उसने। तेरे  लिए घेवर  लाएगा।  तुझको  पसंद है   न? उसको भी   बहुत पसंद है।  जब बच्चा था  न तब…’’

‘‘तुम जाओ  सोने अम्मा! मैं   ठीक हूँ।  हाँ  सपना ही  देखा था।  सपने कोई  सच थोड़े ही  होते हैं… तुम जाओ। मैं  भी    सो जाती  हूँ।’’ अम्मा  मृणाल के सिर पर हौले  से हाथ फेरती हैं,    ‘‘पगली!’’   और धीरे– धीरे   चलते   हुए हिलते  हुए दरवाजे   के पीछे अदृश्य हो  गई   हैं। मृणाल अपने   ब्लाउज  के भीतर से  एक मुड़ा   हुआ  कागज निकालती है।  खोलती  है   उसे। उसपर लिखा  हुआ है,  ‘‘दुश्मनों    से युद्ध करते हुए   लेफ्टिनेंट रजीत सिंह शहीद हो  गए।’’ मृणाल   का   हाथ सरककर उसके   पेट पर आ गया है।  भीतर  एक जिन्दगी  काँप रही  है।

-0-सम्पर्क :  किरण अग्रवाल  आई/212, फूलबाग, जी बी  पंत विश्वविद्यालय,   पंतनगर–263145

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ग्यारहवां पुरस्कार   प्राप्त  लघुकथा

जातिवादी-ओमप्रकाश  कृत्यांश

भाई   साहब, दिल्ली से  एक ही  बोगी में   एक ही साथ आ   रहे हैं    हम,  और अब तक हमारे बीच  से अ–परिचय  की  धुंध  हटी  नहीं है। यह कुछ  ठीक   नहीं लग रहा। चलिए, अपना

शुभ   नाम   तो बताइये।’’

ट्रेन  की  बोगी में  बैठे    एक सज्जन ने  अपने  सामने बैठे यात्री    से बातचीत की पहल की।

‘‘मेरा नाम   बंटी   है।  बंटी   कहते  हैं        मुझे…’’  सामनेवाले  सज्जन  का  जवाब एकदम संतुलित था।

‘‘लेकिन यह नाम   तो आपका पुकारू नाम लगता है। आपका असली नाम क्या है?’’

‘‘नहीं,  ऐसा कुछ  नहीं है।  यही  मेरा असली नाम है।’’

‘‘चलिए  ठीक है।  सरनेम क्या लिखते हैं     आप…मेरा मतलब है   आपके   नाम  के साथ कुछ  तो होगा ही,  जैसे   शर्मा, सिंह,  सिन्हा, बनर्जी,  इत्यादि?’’

‘‘नहीं     भाई साहब, ऐसा कुछ  नहीं है।’’

‘‘क्षमा  करेंगे,  आपके पिताजी  किस  नाम से जाने जाते  हैं?’’

‘‘कुमार  कमल ‘सत्यार्थी’  दरअसल कवि हैं    वो।’’

ट्रेन   में  बैठे   अब दोनों   यात्री  अचानक  चुप हो  गये थे।  उनके बीच  सवालों–जवाबों  का सिलसिला थम  सा गया था।

लेकिन थोड़ी    देर  बाद   ही  परिचय  पूछने  वाले   सज्जन  की  एक बनावटी  हँसी  गूँजी थी‘‘बहुत    खुशी हुई मुझे    यह जानकर कि आप भी मेरी    तरह जातिवादी नहीं  हैं।’’

-0- सम्पर्क:  ओमप्रकाश  कृत्यांश ढॉरी स्टाफ     क्वार्टर,    एम क्यू–114 जिलाबोकारो  (झारखंड)  825102

 

 

 


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