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स्मृति शेष : लघुकथाकार कृष्णानंद कृष्ण

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1-समय के सच को कथानकों के माध्यम से रचना संसार गढ़ने में माहिर थे कृष्णानंद कृष्ण 

डॉ.ध्रुव कुमार

प्रसिद्ध लघुकथाकार, कवि , समालोचक और अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के 18 वर्षों तक अध्यक्ष रहे श्री कृष्णानंद कृष्ण जी का पिछले अप्रैल के अंतिम सप्ताह में निधन हो गया।

वे अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के संस्थापकों में से एक थे। उनका मूल नाम कृष्णानंद पाठक और उनका जन्म भोजपुर जिले के नरही – चांदी गांव में 25 जुलाई 1947 को हुआ था । वे पेशे से इंजीनियर थे और लंबे समय तक बिहार सरकार के लघु सिंचाई विभाग में सेवारत रहे।

उन्होंने 1980 और 90 के दशक में लघुकथा आंदोलन को आगे बढ़ाने और इस साहित्यिक विधा को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । उन्होंने, डॉ भगवती शरण मिश्र और आचार्य डा चंद्र किशोर पांडे ” निशांतकेतु ” जी के पश्चात 1995 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के तीसरे अध्यक्ष के रूप में कार्य भार संभाला और लगभग 18 वर्षों तक देश भर के लघुकथाकारो को एक मंच पर लाने की कोशिश करते रहे। जिन विषयों पर चर्चा और बहस की गुंजाइश बनती, उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान सम्मेलनों में  उन विषयों पर खुले दिल से लोगों को अपने विचार रखने को भरपूर अवसर प्रदान किया। उनकी कोशिश होती थी उन विषयों पर विमर्शोंपरांत विद्वानों की एक राय बने और उस दिशा में कार्य हो। उनका मानना था कि रचनाकारों को रचना प्रक्रिया के साथ साथ उसके विभिन्न पक्षों को भी समझने की जरूरत है। वे सम्मेलन के दौरान ऐसा माहौल तैयार करते जिससे देशभर के विभिन्न इलाकों से आए लघुकथाकार जब अपने गृह नगर में लौटते तो वैचारिक रूप से बहुत समृद्ध होकर लौटते। उनके साथ लंबे समय तक महासचिव और संयोजक के रूप में अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच में उनके सहयोगी रहे डॉ सतीश राज पुष्करणा का मानना है कि हालांकि वे बहुत ही अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे लेकिन परस्पर विरोधी विचारों को सामने लाने में वक्ताओं को प्रोत्साहित करते रहते। वे समकालीनों के साथ-साथ नए रचनाकारों को भी अपनी पत्रिका में भरपूर स्थान देते थे। यह समझने की आवश्यकता है कि जिस दौर में कृष्णानंद कृष्ण और उनके सहयोगी कार्य कर रहे थे वह दौर लघुकथा को एक अलग रचना विधा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए संघर्ष का दौर था। उन दिनों ज्यादातर लोग लघुकथा और कहानी में बहुत कम अंतर कर पाते थे। कुछ लोगों का तो मानना था कि दोनों दो शरीर होने के बावजूद एक जान है। फर्क है तो सिर्फ काया में। नदी और गागर में भरा नदी के जल जैसा। यह बात कृष्णानंद जी को नागवार लगती थी। उनका मानना था कि जिस तरह से काव्य विधा के अंतर्गत रहने के बावजूद कविता को अलग, दोहा को अलग, गीत को अलग,  ग़ज़ल को अलग विधा के रूप में मान्यता प्राप्त है, उसी तरह कथा सागर के भीतर रहने के बावजूद कहानी को, उपन्यास को और लघुकथा का अपना अलग -अलग वजूद है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। इन सारी विधाओं के अलग-अलग रूप है और उनका अपना रचना विधान है। आकार का, स्वरूप का, कथानक का चुनाव और उसकी प्रस्तुति, कुछ ऐसे मुद्दे हैं जहां लघुकथा का अपना बजूद है। कथाकार रमेश उपाध्याय का भी मानना है कि कई ऐसे बिंदु हैं जहां कहानी और लघुकथा में स्पष्ट रूप से अंतर किया जा सकता है 

 आकारगत स्वरूप, कथानक का चुनाव और उसकी प्रस्तुति लघुकथा को कहानी से अलग करती है। उनकी निगाह में कहानी अगर जीवन के किसी क्षण विशेष की प्रस्तुति है तो लघुकथा विद्युत कौंध की छटा।

कृष्णानंद जी ने समय-समय पर अनेक पुस्तकों और पत्रिकाओं का संपादन भी किया। वे सामूहिकता में विश्वास रखते थे और यही कारण है कि उन्होंने  कई पुस्तकों का संपादन अपने कई मित्रों के साथ मिलकर किया। वे हिंदी के साथ साथ भोजपुरी की रचनाओं के लिए भी जाने जाते हैं । उनकी भोजपुरी में की गई एक रचना ” देश में रावण अभी मरल नईखे ” काफी चर्चित हुई । भोजपुरी की एक और कविता ” आपन गांव भेटाते नईखे, गांव बहुत गरम बा ” ने भी काफी सुर्खियां बटोरी । इन भोजपुरी कविताओं के लिए उन्हें बिहार सरकार से”  राजभाषा सम्मान ” भी मिला। लंबे समय तक उनके सहयोगी रहे डॉ सतीश राज पुष्करणा बताते हैं इन सबके बावजूद उनकी प्राथमिकता हमेशा लघुकथा ही रही।

 उनके संपादन में अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ” पुन: ” के अनेक लघुकथा विशेषांक प्रकाशित हुए। यह पत्रिका कई वर्षों तक उनके संपादन में निकलती रही। आज भी लघुकथा पर केंद्रित अनेक पत्रिकाएं ”  पुनः ” के ढर्रे पर ही निकल रही हैं। 

उन्होंने ” लघुकथा : सर्जना और मूल्यांकन” पुस्तक का भी संपादन किया,  जिसमें देशभर के कई लघुकथाकारों और समीक्षकों के लघुकथा विषयक आलेख प्रकाशित हैं, जो आज भी बहुत समीचीन है और उन्हें पढ़कर लघुकथा के विविध आयामों के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है। 

उनके लघुकथा केन्द्रित लेखों का संग्रह ” हिंदी लघुकथा :  स्वरूप और दिशा ” भी लघुकथा के विकास में अपना विशेष महत्व रखता है । उन्होंने डॉ. सतीश राज पुष्करणा, नरेंद्र प्रसाद नवीन, डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र के साथ मिलकर  ” लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र ” पुस्तक का भी संपादन किया। आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व प्रकाशित यह पुस्तक लघुकथा की रचना प्रक्रिया में मील का एक पत्थर है । इस पुस्तक में कुल 10 आलेख है जो लघुकथा के उद्भव और विकास, रूप- स्वरूप, मानक तत्व,  रचना प्रक्रिया, रचना कौशल, प्रस्तुति योजना, उसकी पहचान, महत्वपूर्ण तत्व, शीर्षक, संवाद, भाषिक संरचना, समीक्षा की समस्याएं और समाधान आदि विषयों पर केन्द्रित है। इन्हें नरेंद्र प्रसाद नवीन, आचार्य जगदीश पांडेय, सतीश राज पुष्करणा, डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र,  नागेंद्र प्रसाद सिंह, निशांतर और स्वयं कृष्णानंद कृष्ण जी ने तैयार किए थे।

उन्होंने अपने जीवन काल में 50 से अधिक लघुकथाएं लिखीं। इनमें से कई बेहद चर्चित साबित। इनमें संवेदनहीन, सहानुभूति, रूढ़ियां, अनुभूति, एगोइस्ट, पहल, एक झूठ और व शुरुआत आदि शामिल हैं।

कृष्णानंद कृष्ण जी की लघुकथाओं को पढ़ने के बाद यह पता चलता है कि वह अपने समय के सच को वैविध्य कथानकों के माध्यम से अपने रचना संसार को सजाने में विश्वास रखते थे।  उनका रचना कौशल विषय वस्तु के अनुकूल स्वयं ही अपना रूप ग्रहण कर लेता है और उसमें उनकी भाषा शैली का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उनकी भाषा की सहजता कथा की विषय- वस्तु से इस प्रकार घुल जाती है पाठक उसमें प्राप्त ” रस ” में बह जाता है और अंतिम वाक्य पर आकर ठहरता है। जहां रचना  एक झटके के साथ उसे झंझोड़ देती है कि वस्तुत : लघुकथाकार पाठक को क्या कहना चाहता है। कृष्णानंद कृष्ण जी लघुकथा के साथ-साथ उसके शीर्षक के प्रति भी पूरी तरह सतर्क रहते थे। उनकी प्रत्येक लघुकथा का शीर्षक लघुकथा का एक अभिन्न तत्व बनकर उभरता हैं। वह कविता के क्षेत्र में जितना सफल थे, लघुकथा और लघुकथा समीक्षा के क्षेत्र में भी उतने ही सफल थे।

उनकी ” पहल ”  एवं ” शुरुआत ”  दो लघुकथाएं मूल रूप से गांव में राजनीतिक स्तर पर हो रहे परिवर्तन और लोगों में आ रही जागरूकता को रेखांकित करने का सफल प्रयास है ”  पहल ”  का नायक सुदर्शन ग्रुप वार के पश्चात अपने गांव की बर्बादी के विषय में सोच रहा है । इस बार उसके गांव पर यह चौथी बार हमला हुआ है। उसके गांव को बार-बार निशाना क्यों बनाया जाता है। हर बार की तरह इस बार भी सारे लोग नेता, अफसर, पुलिस संवेदना और सहानुभूति लेकिन संवेदनहीन शब्दों से उनकी झोलियां भर गए और उन्हें अगले हमले के लिए बलि का बकरा बनाने को छोड़ दिया। वह अपने मित्र मनोज के यहां जाता है और अपनी चिंता से मित्र को अवगत कराता है। उसका मित्र उसकी नजरों में उभरे प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहता है – अरे यार सीधी सी बात है हम कमजोर हैं हम अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता। आश्वासनों और रिलीफ की अफीम ने हमें पंगु बना दिया और वह कहता है – देखो यार ! अगर हमलावर को यह एहसास हो जाए कि सामने वाला भी हमला कर सकता है तो उसे सौ बार सोचना पड़ सकता है । हमें भी अपने को तैयार करना होगा । ” इन पंक्तियों से इसका समापन इस लघुकथा का उद्देश्य स्पष्ट कर देता है। ” दोनों की बंधी मुठ्ठियां एक साथ आसमान में उठीं “।

शुरुआत में भी यही घटना है किंतु इसमें नेताओं के चरित्र को विशेष रूप से फोकस किया गया है – ” बस्ती का मुखिया नेताजी के पास चला गया था । नेताजी उसे सांत्वना दे रहे थे । अपने समर्थकों के माध्यम से सब लोगों को आर्थिक सहायता देने के लिए कह रहे थे । अर्जुन ( कथा नायक )  को लग रहा था कि वे फिर एक बार उजड़ने के लिए अभिशप्त हो रहे हैं । यह खेल तो वह कई वर्षों से देख रहा है। वह भीतर से बेचैन था। काका को उसने कितना समझाया था किंतु काका लगता है फिर नेता की बातों में आ गए। नेता के समर्थक, लोगों को पंक्तिबद्ध कर रहे थे। उससे रहा नहीं गया । उसने चबूतरे पर चढ़कर हांक लगाई ” काका ” और चुपचाप दूसरी ओर मुड़ गया। सारे लोग उसके पीछे चल पड़े। काका भी मन मारे उसकी ओर बढ़ गए। “

 इन दोनों लघु कथाओं का केंद्रीय विषय ग्रुप -वार है किंतु पहल का उद्देश्य स्वयं आगे बढ़कर प्रतिआक्रमण के लिए लोगों को तैयार करना है किंतु शुरुआत में राजनीतिज्ञों की चाल और मक्कारी का बदला राजनीति से ही देने का आभास देता है । पहल में निराकरण स्पष्ट है किंतु _ शुरुआत”  में निराकरण स्पष्ट न होकर सांकेतिक है, जिसे पाठकों की समझ पर ही छोड़ दिया गया है,  वे इसे चाहे जिस रूप में लें। सांकेतिकता लघुकथा का एक विशिष्ट गुण भी है। ” एक झूठ और ”  में भी नेताओं के चरित्र को ही उजागर किया गया है किंतु यहां शहर की राजनीति केंद्र में है। आज की राजनीति का अपराधीकरण हो चुका है। प्राय: नेता अपराधियों के बलबूते पर अपनी राजनीति करते हैं। अपराधियों द्वारा दिलवाए गए वोटों की बदौलत ही नेता विजयी होते हैं। अतः उनकी दृष्टि में वे अपराधी ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं। जनता का उनकी दृष्टि में कोई महत्व ही नहीं होता। लोग मंत्री जी के निवास पर ठंड के मौसम में चार घंटे से ठिठुर रहे हैं किंतु मंत्री जी अपने निवास में गजराज सिंह से मंत्रणा में व्यस्त हैं । जब गजराज चला जाता है तो मंत्री जी कार की ओर बढ़ते हुए लोगों को सही न्याय दिलाने का आश्वासन देते हैं और कहते हैं – ” आप लोग घबराए नहीं, मैंने इस घटना की जांच के लिए कमीशन बैठा दिया है । फिलहाल मुझे एक महत्वपूर्ण सभा में जाना है, ” कहते हुए गाड़ी में बैठे और निकल गये। इन पंक्तियों ने नेताओं के दोहरे चरित्र को पूरी तरह उजागर कर दिया। 

”  एगोइस्ट ” और ” अनुभूति ” भी कृष्णानंद कृष्ण की बेहद चर्चित लघुकथा है । इन दोनों  लघुकथाओं में ” चिड़ा – चिड़ी”  प्रतीक रूप में प्रस्तुत करते हुए कथा नायकों का की मन: स्थिति को अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास किया गया है । इनकी इसी प्रकार की एक और लघुकथा भी है । गोया ”  चिड़ा- चिड़ी ” के कार्य व्यवहार को उन्होंने काफी गंभीरता से देखा और महसूस किया है । शायद इतना स्वभाविक चित्रण तभी संभव हो पाया है। इस लघुकथा के समापन का वाक्य विशेष रूप से सार्थकता प्रदान करता है। ” पापा आप अपना काम करें,  ईगोइस्ट लोग दूसरे का ख्याल नहीं करते ।”  बात सुनकर रामलाल कथा नायक को लगा जैसे किसी ने उन्हें झकझोर कर रख दिया । अपनी बात कहने के लिए प्रतीकों- संकेतों से काम लिया गया है। यह रचना कौशल का श्रेष्ठ उदाहरण है। 

उनकी लघुकथाओं पर एक लेख डॉ. सतीश राज पुष्करणा के संपादन में प्रकाशित ” लघुकथा – समीक्षा एक दृष्टि ” में प्रकाशित है, जो कृष्णानंद जी की लघुकथाओं की विशेषताओं की ओर गहरे रूप से रेखांकित करती है।

– डॉ.ध्रुव कुमार

महासचिव, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच, पटना।

    फोन – 9304455515


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