
सुकेश साहनी प्रख्यात कथाकार हैं। कहानी लेखन के साथ-साथ आपका कार्यक्षेत्र लघुकथा रहा है। लघुकथा जैसी लघुकाय विधा को आपने अपने सृजन से ऊँचाई प्रदान की, वह अपने प्रखर आलोचनात्मक चिंतन-मनन से लघुकथा की विचार गहनता को भी आप सामने लाए। आपकी अनेक लघुकथाएँ विभिन्न भाषाओं में भी अनूदित हो चुकी हैं। अलग अलग शीर्षक पर आधारित अनेक लघुकथा संकलनों का सम्पादन कार्य भी आपने किया है। हिन्दी लघुकथा की पहली वेबसाइट का संचालन आप सन् 2000 से अनवरत रूप से कर रहे है प्रसन्नता की बात यह भी है आपका सृजन कर्म रचना और समीक्षा दोनों ही धरातल पर सामने आता रहा है। सुकेश साहनी के भी कृतित्व पर भी आलोचनात्मक कर्म होते रहे हैं। रावतभाटा (कोटा) के प्रख्यात लघुकथाकार भागीरथ परिहार की नवीन प्रकाशित पुस्तक ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना’ इसी कड़ी में एक और महत्त्वपूर्ण प्रयास कही जा सकती है। भगीरथ स्वयं भी प्रख्यात लघुकथाकार है। इसके साथ ही ‘हिन्दी लघुकथा के सिद्धांत’ और ‘लघुकथा समीक्षा’ जैसी आलोचनात्मक कृतियाँ भी उनकी चिंतन पद्धति का सतत प्रवाह प्रमाणित करती हैं। सुकेश साहनी की चालीस लघुकथाओं को आधार बनाकर प्रस्तुत पुस्तक साहनी जी के लघुकथा सृजन के मानकों,उसकी टैक्नीक, रचनात्मक आयामों, सम्प्रेषणीयता और सबसे अधिक पठनीयता की पड़ताल करती है।
भगीरथ प्रत्येक लघुकथा की विभिन्न मानकों पर पड़ताल करते हैं। यहाँ सुकेश साहनी की लघुकथाओं के शीर्षक, लघुकथाओं में अभिव्यक्त भाव और विचार, कथ्य की अभिव्यंजना शक्ति यहाँ विमर्श का आधार बनते हैं। लघुकथा का भाव पक्ष जितना महत्त्वपूर्ण है, कला पक्ष भी उतना ही मजबूत होना चाहिए। इसे वे शैली और शिल्प के प्रयोग के अन्तर्गत दर्शाते हैं अपने ‘अग्रलेख’ में भगीरथ इस बात को शब्दायित करते हैं, “सुकेश साहनी की कथाओं के शीर्षक सटीक होते हैं। वे कथ्य पर आधारित होते हैं, लेकिन कथ्य को उजागर नहीं करते, ताकि पाठक पहले से ही कथ्य का अंदाजा न लगा सके और उसकी रचना में जिज्ञासा बनी रहे। सुकेश साहनी की कथाओं का गठन हमेशा कसा हुआ रहता है। भाषा पर वे अतिरिक्त ध्यान देते हैं और शब्दों का चयन सोच-समझकर करते हैं। भावों को व्यक्त करनेवाली सृजनात्मक भाषा वे बराबर रचते रहते हैं। वे विचार को सीधे व्यक्त न कर, कथ्य की अभिव्यंजना शक्ति का उपयोग करते हैं । वे विचार को कथानक, बिम्ब, प्रतीक और वार्तालाप से भी अभिव्यक्त करते हैं।” यदि उपर्युक्त पंक्तियों पर ध्यानपूर्वक विचार किया जाए, तो स्पष्ट होता है कि भगीरथ परिहार की लघुकथा समीक्षा की जो अपनी कसौटियाँ और मानक हैं, उन पर सुकेश साहनी की सृजनात्मकता खरी उतरती है। एक प्रकार से भगीरथ, सुकेश साहनी की लघुकथाओं में काव्यगुण की निष्पत्ति करते दिखते हैं। बहुत हद तक यह ठीक भी लगता है, क्योंकि एक कविता की तरह लघुकथा भी अपना भावनिरूपण, अपनी अर्थवत्ता और अपना भाव विचार पढ़े जाने के बाद ही स्पष्ट करते हैं।
इन चालीस लघुकथाओं का समीक्षा हेतु चयन स्वयं सुकेश साहनी द्वारा किया गया है। चयन में विविधता प्रभावित करती है। समाज, परिवार, देश-साम्प्रदायिकता, पर्यावरण, शिक्षा-बालक के साथ-साथ स्त्री- विमर्श भी यहाँ है। किसी भी सृजन का मूल उद्देश्य होता है-समाज में मूल्यबोध की स्थापना करना। रचना या सृजनकर्म यदि मूल्यपरकता को पाठकों के सामने नहीं लाता, तो सृजनकर्म की उपयोगिता नहीं कही जा सकती। प्रस्तुत चयन में मूल्यों के सरोकार सामने लाने में भगीरथ परिहार का श्रम श्लाघनीय है। भगीरथ के ही शब्दों में, “साहित्य तभी मूल्यवान् होता है, जब वह उदात्त सामाजिक और मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करे। यह बात लघुकथा साहित्य के लिए भी मौजूँ है। कुछ कथाओं में सीधे-सीधे मानवीय मूल्यों की बात कही गई है, तो कहीं अप्रत्यक्ष रूप से। साहित्य चूँकि जीवन की आलोचना भी है, इसलिए जहाँ आलोचना है, वहाँ उसके विपरीत मूल्य की वकालत है।” जल संकट से सम्बन्धित लघुकथाएँ ‘उतार’, ‘ओए बबली’, ‘कुआँ खोदने वाला’, बाल श्रम से सम्बन्धित ‘किरचें’,’स्कूल’, परिवार पर आधारित ‘पैण्डुलम’, ‘वायरस’, ‘गोश्त की गंध’, धुएँ की दीवार’ जैसी महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ प्रस्तुत आलोचनात्मक अनुशीलन का मूल उत्स हैं। ‘प्रतिमाएँ’, अथ उलूक कथा’, ‘आइसबर्ग’,’चादर’ की सामाजिक-साम्प्रदायिक चेतना को भगीरथ परिहार शिद्दत से रेखांकित करते हैं। लघुकथा में स्त्री-विमर्श भी एक महत्त्वपूर्ण विषय बनकर आया है। पाँच लघुकथाएँ’ आधी दुनिया’,’कसौटी’, ‘फेस टाइम’,’कोलाज’ और ‘गोश्त की गंध’ इसी से सम्बन्धित हैं। एक तरफ पददलित नारी का शोषण, दोनों के विरोधाभासों की अभिव्यक्ति यहाँ है। भगीरथ परिहार ने संकलित लघुकथाओं पर समीक्षा दृष्टि डालते समय इस बात का पूर्ण ध्यान रखा है कि लघुकथा का मूलतत्त्व और केन्द्रीय भाव उभरकर पाठकों के समक्ष आ सके। वास्तव में आलोचना वही सफल और सबल है, जिसमें आलोचक रचना के माध्यम से जीवन तक पहुँचे। लघुकथा की प्राणवत्ता, उसकी गतिशीलता और उसकी सम्प्रेषणीयता ऐसे तत्त्व होते हैं, जो लघुकथा को संचालित और सम्बोधित करते हैं। सौभाग्य से भगीरथ परिहार ने इन तत्वों को समझने-पकड़ने और उन्हें शब्दायित करने में पूर्ण सफलता पाई है। लघुकथा की परम्परा में जहाँ इन लघुकथाओं के द्वारा सृजनात्मकता का योगदान किया गया है, वहीं इन पर मनन-चिन्तन के द्वारा इन लघुकथाओं को नवीन अर्थ प्रदान करते हुए इनकी सृजन-संचेतना के आसव को भी पाठकों के समक्ष अनुशासित रूप से लाया गया है। भगीरथ इन लघुकथाओं को आलोचक के दृष्टिकोण से देख-परखकर इन्हें अपने समय और परिवेश से सम्बद्ध करते चलते हैं।
सृजन-संचेतना का निर्वहन करते समय भगीरथ ने चुनी गईं लघुकथाओं में लघुकथा के सभी सम्भव गुणों और विशेषताओं को तलाशा-तराशा और तौला है। प्रांजल भाषा और गवेषणात्मक शैली से परिपूर्ण प्रस्तुत पुस्तक आलोचना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण आयाम स्थापित करेगी, ऐसा पूर्ण विश्वास है। आलोचना का लोकतन्त्र लाती यह पुस्तक किसी लघुकथा को देखने-समझने की दृष्टि भी प्रदान करती है। सुकेश साहनी का लघुकथा सृजन जितना सुघड़ और सुन्दर है, भगीरथ परिहार का उनकी लघुकथाओं पर सृजन-संचेतना का यह प्रयास भी उतना ही सार्थक, स्पष्ट और सटीक है। ‘दीपक देहली न्याय’ की भाँति यह कृति आलोचक और आलोचक, दोनों ही लघुकथाकारों की सृजन यात्रा में मील का एक पत्थर बनेगी, ऐसा विश्वास है।
[पुस्तक : कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना, लेखक : भगीरथ परिहार, प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर, मूल्य : 200, पृष्ठ : 200, वर्ष:2019]
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