लघुकथा आजकल की चर्चित विधा है, जिसमें लेखक कम शब्दों में अपने मन के भावों / विचारों को प्रकट करता है और गहरी बात लिखता है। जिसको पढ़ते ही पाठक का मन चिंतन करने के लिए विवश हो जाए। सामाजिक विसंगतियों से आहत होकर मन की पीड़ा को लेखक लघुकथा के ज़रिए व्यक्त करता है। दरअसल लघुकथा साधारण बात को भी प्रभावशाली और कलात्मक विधि से प्रस्तुत करना है।
लघुकथा.कॉम में मैं लगातार कुछ समय से लघुकथाओं का वाचन कर रही हूँ और जो भी लेखक इसमें शामिल हैं सभी की लघुकथा एक विशेषता लिये हुए है। एक बात प्रमुखता से मेरे सामने आई है , वह यह कि लघुकथा मानवीय संवेदना को गहरे स्पर्श के साथ प्रस्तुत करने वाली विधा बन गई है।
मैंने अपनी लघुकथा वाचन में उन लघुकथाओं को वरीयता दी जिनका कथानक सशक्त हो,कथ्य ऐसा हो जो चिंतन को जन्म दे और एक सार्थक लघुकथा के जो प्रमुख मानक तत्त्व होते हैं ,उन पर खरी उतरती हो।
अब बात आती है मेरी पसंद की। वैसे तो ये सभी एक से बढ़कर एक हैं। किसी से भी कमतर नहीं कहा जा सकता। पर जिन लघुकथाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया वे लघुकथाएँ हैं -सुनील सक्सेना की ‘आठ सिक्के’ और रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘नवजन्मा’। ‘आठ सिक्के’ में सुनील सक्सेना ने एक अत्यंत ग़रीब वर्ग से संबंध रखने वाले ईमानदार लड़के के चरित्र को दिखाया है, जो गंगा के पानी में गोते मारकर लोगों द्वारा फेंके गए सिक्के निकालकर अपनी आजीविका चलाता है । अंतिम शब्दों में यह स्थिति भी दिखाई गई है। जान पर खेलकर निभाई गई उसकी ईमानदारी बहुत प्रभावित करती है।
साथ ही उन लोगों की निर्ममता पर गुस्सा भी आता है, जो ऐसे मजबूर बच्चों का फायदा उठाकर उन्हें सिक्कों का लालच देते हैं, महज़ अपने क्रूर आनन्द के लिए। समाज की इस तरह की बुराइयों का सख़्ती से विरोध और निन्दा करना ज़रूरी है।
दूसरी लघुकथा है रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘नवजन्मा’ है। इसमें लिंगभेद को न मानते हुए पुत्री के जन्म पर उत्साहित एक पिता की खुशी को दर्शाया गया है। साथ ही देश मे फैली कूरीति भ्रूण हत्या को प्रोत्साहित करती सोच को भी दिखाया है, जब जिलेसिंह की दादी और बहन महिला होते हुए भी कन्या-जन्म पर दुःख जताती हैं तथा शोक प्रकट करती हैं। दादी अपने पौत्र की क़िस्मत को फूटी हुई कहती हैं और बहन नेग कम मिलने के लिए फ़िक्रमन्द है।माँ तटस्थ बनने की कोशिश करती है। कन्या-जन्म से पत्नी भी होने वाले व्यवहार से आहत है। ऐसे माहौल में पिता जिले सिंह द्वारा उत्सव मनाना, खुशी से उत्साहित होना, मन में खुशी का संचार करता है और एक प्रेरणा देता है सबको एक समान समझने की। उस वक़्त पिता का खुश होकर नवजात बेटी पर से पैसे वारकर देना बेटियों को शाप या बोझ समझने वालों के चेहरे पर करारा तमाचा है। ऐसे ही कदम उठाने से समाज में बेटियों की स्थिति सुधरेगी और वे समाज मे समान स्थान प्राप्त कर सकेंगी। इस लघुकथा में जिले सिंह के अल्पतम संवाद हैं। उसके भावों और विचारों की अभिव्यक्ति केवल उसकी भाव-भंगिमा से ही प्रकट हो पाती है।
दोनों लेखक अपनी बात को सार्थक रूप से कहने में सफल हुए हैं।
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1- आठ सिक्के-सुनील सक्सेना
ठंड लगभग जा चुकी थी । गंगा किनारे के जो घाट ठंड में सूने पड़े रहते थे, ठंड का असर कम होते ही फिर आबाद होने लगे थे। घाटों पर चहल-पहल बढ़ने लगी थी।पिछली रात ओले क्या पड़े। ठंड पलटकर आ गई। सर्द हवाओं ने एक बार फिर गंगा के किनारों को निर्जन बना दिया था। किनारों पर वही इक्का दुक्का नजर आते जो बरसों से बिना नागा किए गंगा मैया के तट पर आते रहे हैं।
कड़ाके की ऐसी ठंड में शिव मंदिर के पास यही कोई सात-आठ बरस का लड़का अधनंगा बैठा था। हडिड्यों को गला देनेवाली ठंड में कपड़े के नाम पर उसके तन पर सिर्फ अधोवस्त्र था। गंगा दर्शन को आए लोग घाट पर खड़े होकर नदी में सिक्का फेंकते और वो लड़का छपाक से नदी में कूद जाता और कुछ ही पलों में अपनी मुठ्ठी में सिक्का दबाए ऊपर आजाता। वो बहते हुए पानी में गोता लगाकर सिक्का ढूंढ लाता। लोग हतप्रभ होकर उसे देखते। उसके इस अनोखे करतब पर वे तालियाँ तो नहीं बजाते अलबत्ता वही सिक्का उसके हाथ में थमाकर आगे बढ़ जाते। वो रोज इसी तरह गंगा मैया के पेट से सिक्के निकालकर अपने पेट का इंतजाम करता।
दोपहर का वक्त था। सूरज अपनी प्रकृति के हिसाब से चरम पर था लेकिन ठंड के तीखे तेवरों के आगे आज वो भी नतमस्तक था। शिव मंदिर की सीढ़ियां उतरती हुई महिला के सामने उस लड़के ने हाथ फैलाया। महिला उसे नजर अंदाज कर आगे बढ़ने लगी तो साथ चल रहे पति ने उसे रोका। अपनी जेब से एक सिक्का निकाला और नदी में फेंक दिया। लड़का फुर्ती से मंदिर के चबूतरे पर चढ़ा और कुल्फी जमादेने वाली ठंड में कल-कल बहती गंगा नदी में कूद पड़ा। छपाक की आवाज के साथ लहरें गोल होने लगीं। लड़का कुछ ही पलों में उन वलयाकार लहरों को चीरता हुआ मुठ्ठी में सिक्का दबाए हाजिर था। ‘ओह नोण्ण्’ महिला ने विस्फारित आंखों से उस लड़के को देखते हुए कहा। अपने बेटे के सिर से सरक आए स्कार्फ को उसने व्यवस्थित किया और कसकर गठान लगा दी ताकि कानों में ठंडी हवा न जा सके।‘मैंने एक ही सिक्का फेंका था। तुम चाहो तो एक साथ कई सिक्के फेंक सकती हो। ये लड़का उन्हें भी निकाल लायेगा। यू केन ट्राय।’पति ने कहा। महिला ने पर्स से मुठ्ठी भर कलदार निकाले। गिने तो कुल आठ सिक्के थे। महिला ने हाथ को हवा में उछाला और पूरी ताकत से सिक्के नदी में फेंक दिये। लड़का चीते-सी तेजी के साथ शिव मंदिर के चबूतरे पर चढ़ा और नदी में कूद गया। इस बार नदी में लहरें एक जगह नहीं कई जगह गोल हो गई थीं। नदी का वो हिस्सा जिस जगह पर लड़का कूदा था वहाँ पानी की हलचल कम हो गई थी। महिला ने पति की ओर देखा और चलने लगी।
‘रुको वो आता ही होगा। इस बार सिक्के ज्यादा हैं।’ पति ने कहा।
‘वो नहीं आयेगा। चालाक है वो। अब तक तो चुपचाप अंदर ही अंदर तैरकर किसी दूसरे किनारे पर चला गया होगा। आज की कमाई हो गई उसकी।’ महिला ने बेटे की लेदर जैकेट की चैन को गले तक कसकर लॉक कर दिया। अब सर्द हवाओं को कहीं से भी घुसने की गुंजाइश नहीं थी। साथ ही बेटे को हिदयात भी दी-‘डोंट प्ले विथ चेन। बीमार हो जाओगे। अब चलो बहुत ठंड है।’
‘रुक जाइए मेम साब… देख तो लीजिए… पूरे आठ सिक्के ढूँढकर लाया हूँ।’ लड़के के होंठ ठंड से नीले पड़ गए थे।
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2-नवजन्मा- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जिलेसिंह शहर से वापस आया तो आँगन में पैर रखते ही उसे अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ लगा।
दादी ने ऐनक नाक पर ठीक से रखते हुई उदासी-भरी आवाज़ में कहा-‘जिल्ले! तेरा तो इभी से सिर बँध ग्या रे। छोरी हुई है!’
जिलेसिंह के माथे पर एक लकीर खिंच गई.
‘भाई लड़का होता तो ज़्यादा नेग मिलता। मेरा भी नेग मारा गया’-बहन फूलमती ने मुँह बनाया-‘पहला जापा था। सोचा था-खूब मिलेगा।’
जिले सिंह का चेहरा तन गया। माथे पर दूसरी लकीर भी उभर आई.
माँ कुछ नहीं बोली। उसकी चुप्पी और अधिक बोल रही थी। जैसे कह रही हो-जूतियाँ घिस जाएँगी ढंग का लड़का ढूँढ़ने में। पता नहीं किस निकम्मे के पैरों में पगड़ी रखनी पड़ जाए।
तमतमाया जिलेसिंह मनदीप के कमरे में घुसा। बाहर की आवाज़ें वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थीं। नवजात कन्या कि आँखें मुँदी हुई थीं। पति को सामने देखकर मनदीप ने डबडबाई आँखें पोंछते हुए आना अपना मुँह अपराध भाव से दूसरी ओर घुमा लिया।
जिलेसिंह तीर की तरह लौटा और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चौपाल वाली गली की ओर मुड़ गया।
‘सुबह का गया अभी शहर से आया था। तुम दोनों को क्या ज़रूरत थी इस तरह बोलने?’ माँ भुनभनाई. घर में और भी गहरी चुप्पी छा गई.
कुछ ही देर में जिलेसिंह लौट आया। उसके पीछे-पीछे सन्तु ढोलिया गले में ढोल लटकाए आँगन के बीचों-बीच आ खड़ा हुआ।
‘बजाओ!’ जिलेसिंह की भारी भरकम आवाज़ गूँजी.
तिड़क-तिड़-तिड़-तिड़ धुम्म, तिड़क धुम्म्म! ढोल बजा।
मुहल्ले वाले एक साथ चौंक पड़े। जिलेसिंह ने अल्मारी से अपनी तुर्रेदार पगड़ी निकाली; जिसे वह-वह शादी-ब्याह या बैसाखी जैसे मौके पर ही बाँधता था। ढोल की गिड़गिड़ी पर उसने पूरे जोश से नाचते हुए आँगन के तीन-चार चक्कर काटे। जेब से सौ का नोट निकाला और मनदीप के कमरे में जाकर नवजात के ऊपर वार-फेर की और उसकी अधमुँदी आँखों को हलके-से छुआ। पति के चेहरे पर नज़र पड़ते ही मनदीप की आँखों के सामने जैसे उजाले का सैलाब उमड़ पड़ा हो। उसने छलकते आँसुओं को इस बार नहीं पोंछा।
बाहर आकर जिलेसिंह ने वह नोट सन्तु ढोलिया को थमा दिया।
सन्तु और ज़ोर से ढोल बजाने लगा-तिड़-तिड़-तिड़ तिड़क-धुम्म, तिड़क धुम्म्म! तिड़क धुम्म्म! तिड़क धुम्म्म!
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