लघुकथा पर आज तक सभी मर्मज्ञजन बहुत कुछ कह चुके हैं, लिख चुके हैं। आज मैं अपना एक अलग नजरिया रख रही हूँ जो इसे डिजिटल वर्ल्ड से जोड़ता है।
हम सब जानते हैं कि आज इंटरनेट आधुनिक तकनीक का महत्त्वपूर्ण उपकरण है। आज मात्र इंटरनेट के कारण बहुत संख्या में लोग हिंदी पढ़ रहे हैं, लिख रहे हैं। ‘इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ और ‘इंडियन मार्केट रिसर्च ब्यूरो’ द्वारा हुए एक सर्वव्यापी सर्वे के अनुसार ग्रामीण यूजर्स में 27% और शहरी यूजर्स में 60% लोग हिंदी इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। कई वेबसाइट, वेब पोर्टल, ई-पत्रिकाएँ और ब्लॉग आदि के कारण हिंदी पढ़ने वाले पाठक बढ़ते जा रहे हैं और हिंदी साहित्य आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए देश-विदेश में पहुँच चुका है। गौरतलब बात यह है कि साहित्य की सभी विधाओं में ‘लघुकथा’ विधा को देश-विदेश के हिंदी पाठकों ने बहुत स्नेह दिया है। इसका मुख्य कारण है- लघुकथा का लघु स्वरूप और इसकी मारक क्षमता। साथ ही आज के दौड़ते युग में जब युवा वर्ग लोकल ट्रेन, बस, टेम्पो, ऑटो, मेट्रो आदि में ट्रैफिक को मात देते हुए जल्द-से-जल्द ऑफिस तक पहुँचना चाहता है, तब घर से ऑफिस तक का रास्ता वह मोबाइल पर कुछ पढ़ते हुए बिताता है। यदि गौर किया जाए ,तो उनमें से अधिकतर हिंदी पाठक समाचारों से अधिक लघुकथा पढ़ते हुए पाए जाते हैं। समय का अभाव भी लघुकथा के लिए सकारात्मक साबित हुआ है। साथ ही लघुकथाओं ने जहाँ जनजागृति बढ़ाई है ,वहीं इनका पाठक वर्ग भी बढ़ता जा रहा है। इस डिजिटल युग ने महिलाओं के लिए भी लघुकथा लेखन के द्वार खोल दिए हैं।
मुझे लघुकथाओं की विशेषकर तीन शैलियाँ पसंद हैं – बिम्बात्मक, सांकेतिक और व्यंग्यात्मक । आज मैं लघुकथाओं के ्सागर में से इन्हीं शैलियों के 2 मोती चुनकर आपके लिए लाई हूँ-
मेरी पहली पसंदीदा लघुकथा है रवि प्रभाकर जी की ‘अधः अंधमनुसरित’ और दूसरी लघुकथा है सुषमा गुप्ता जी की ‘पूरी तरह तैयार’। दोनों ही लघुकथाओं में करारा कटाक्ष है। ये दोनों ही लघुकथाएँ सशक्त होने के साथ ही आज के समाज की कलई खोलकर रखने में समर्थ साबित हुई हैं।
पहली लघुकथा ‘अधः अंधमनुसरित’ शीर्षक को सार्थक करते हुए अंधों के शहर में आईने बेचने की बात कह रही है । इसमें ‘अंधों के शहर में आईने बेचने’ का बिम्ब लिया गया है। यह कथा बहुअर्थ लिये है। प्रथम दृष्टा लगता है कि जो लोग दूसरों को मूर्ख बनाते हुए खुद को होशियार समझते हैं, दरअसल कोई और उन्हें मूर्ख समझकर अपना उल्लू सीधा करने की सोच रहा होता है। दरअसल कथा के दोनों ही पात्र, राजेश और सुरेश, शातिर हैं। सुरेश को किस्मत से मौका मिल जाता है और वह लोगों को बेवकूफ बना अपना काम बनाता रहता है क्योंकि वह जानता है कि यहाँ हर आदमी खुद को होशियार मानता है इसलिए कोई भी यह कभी नही मानेगा कि उसे मूर्ख बनाया गया है और इसीलिए वह आसानी से उन अक्ल के अंधों को आईने बेचता रहता है। उधर राजेश उससे मिलने आता है। दरअसल राजेश भी सुरेश को बेवकूफ बनाने ही आया था। वह मान बैठा था कि सुरेश भी अक्ल का अंधा है लेकिन असलियत पता चलते ही वह उल्टे पांव भाग खड़ा होता है। इसमें एक गूढ़ अर्थ और भी है जो शीर्षक को सार्थक करता है कि सब अंधी दौड़ या भेड़चाल में लगे हैं। पहले व्यक्ति को मूर्ख बनाया गया लेकिन दूसरा व्यक्ति भी सयाना बनने की जगह पहले की देखादेखी मूर्ख ही बन गया क्योंकि पहले ने, मैं मूर्ख बन गया हूँ, यह स्वीकार ही नही किया। और इस तरह सभी इस भेड़चाल में अंधे बन ठगे गए। प्रभावी शीर्षक के साथ लघुकथा कसी हुई, अपने लक्ष्य को भेदती, बिम्ब का सटीक प्रयोग करती, अपना संदेश देने में सफल हुई है।
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