“अब क्या होगा बड़े बाबू”, दफ्तर में पसरे सन्नाटे को तोड़ते हुआ एक लिपिक ने प्रश्न उछाला। सबकी दृष्टि सोच में डूबे हुए बड़े बाबू की ओर उठ गई।
बड़े बाबू ने गर्दन बिना उठाए ही अपने चश्मे से झाँका और फिर गहरी साँस छोड़ते हुए बोले, “ऊपर वाला जाने…”
“यही तो डर है…ऊपर वाले ने ही जान लिया; इसीलिए रातों-रात साहब का तबादला हो गया,” दूसरे क्लर्क ने कहा।
“भइया, आदमी के जाने के बाद उसकी अहमियत मालूम होती है”- यह तीसरा था।
“कुछ भी है बंदा था बहुत इंसाफ पसन्द और दयालु…” पहले वाले ने अपने होंठो को फैलाते हुए कहा, “जैसा काम वैसा दाम। उनकी दया से हम सबका काम चलता था।”
“यह बात तो सही है…छोटे कामों के छोटे दाम और बड़े कामों के बड़े दाम…इसे ही इंसाफ और दया कहते हैं,” दूसरे ने कहा।
एक कोने में बैठे एक कनिष्ठ लिपिक को, जो कुछ ही समय पूर्व बदली होकर आया था, ये सारी बातें रहस्यपूर्ण लगीं तो उसने बीच में ही टोक दिया, “सिन्हा साहब, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह दाम और काम का क्या चक्कर है?”
बड़े बाबू सहित सबकी दृष्टि उसकी ओर उठ गयी और लगभग सभी के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। इतने में दूसरा लिपिक अपनी कुर्सी से उठकर उसके पास आकर मेज पर अपना कूल्हा टिकाते हुए बोला, “कभी साहब के केबिन में गए हो?”
“हाँ…दो तीन बार गया हूँ फाइल लेने या देने”- उसने उत्तर दिया।
“तो भइया कभी फाइलों को खोलकर भी देखा या नहीं,” सामने बैठे पहले लिपिक ने पूछा।
“नहीं…मैं तो साहब के साइन देखकर फाइल बड़े बाबू को पास कर देता हूँ…मेरा इतना ही काम है,” कनिष्ठ लिपिक ने कहा।
“तब तो बड़े बाबू जी ही बताएँगे”, दूसरा लिपिक वहाँ से उठकर बड़े बाबू की ओर चल दिया। बाकी लिपिकों की गर्दनें भी बड़े बाबू की ओर घूम गईं।
बड़े बाबू के चेहरे पर अनुभव की रेखाएँ स्पष्ट दिखती थीं, उन्होंने अपना चश्मा उतारा और पीठ कुर्सी के बैकरेस्ट पर टिकाई और उपदेशात्मक अंदाज में बोले, “देखो लल्ला…साहब बहुत स्पष्टवादी थे…पता नहीं तुमने ध्यान दिया कि नहीं…उनके हस्ताक्षरों की स्याही अलग-अलग रंग की होती थी, जैसे कभी नीली, कभी हरी, कभी लाल, कभी गुलाबी तो कभी नारंगी…उनकी मेज पर ध्यान देते, तो तुम्हें हर रंग के कलम रखे मिल जाते।”
“हाँ वह तो मैंने देखे थे…पर इससे क्या होता है?” कनिष्ठ लिपिक भी अब तक अन्य लिपिकों के साथ बड़े बाबू की मेज के पास आ चुका था।
“इसी से तो सबकुछ था, भइया,” मुँह में भरे गुटखे के साथ दूसरा लिपिक बोला।
“हाँ…लल्ला इसी से सब था…जिस रंग के हस्ताक्षर उसी रंग के नोट…कुछ समझे,” बड़े बाबू के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।
“ओहो…अब समझा,” कुछ समझते हुए कनिष्ठ लिपिक हँसने लगा।
“लेकिन बात फिर वहीं पर अटकी है कि अब क्या होगा? सुना है साहब की जगह आई मैडम बहुत सख्त हैं,” पहले वाले ने अपनी चिन्ता व्यक्त की।
“अब जो होगा देखा जाएगा…यूँ समझ लीजिए कि अब सादा भोजन करने की आदत डाल लीजिए…चटनी, अचार, सलाद, पापड़ और स्वीट डिश…सब भूल जाइए। दाल रोटी खाइए और प्रभु के गुण गाइए,” बड़े बाबू ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
एक ठहाका दफ्तर में गूँज गया कि चपरासी ने आकर कहा, “बड़े बाबू…मैडम ने बुलाया है आपको।” चपरासी का वाक्य सुनते ही दफ्तर में फिर पहले जैसा सन्नाटा पसर गया। सबके चेहरे पर चिन्ता और परेशानी के भाव आ गए। सबसे अधिक विकल तो बड़े बाबू हुए। फटाफट कुछ फाइलें उठाकर मैडम के केबिन की ओर दौड़े। बाकी लिपिक अपनी-अपनी सीट पर बैठकर बेचैन मन से फाइलों के काग़ज़ उलटने-पलटने लगे।
लगभग पाँच मिनट बाद बड़े बाबू चेहरे पर चमक लिये हुए वापस आए। सबकी नज़रें और कान उनकी ओर लग गए। उनके हाथ में हरे, लाल, नीले, पीले, सारे रंग के पैन थे। उन्होंने सारे पैन अपनी मेज पर रखे और गहरी साँस छोड़ते हुए बोले, “मैडम केवल गुलाबी पेन इस्तेमाल करती हैं।” एक पल के लिए दफ़्तर में फिर से सन्नाटा पसर गया; लेकिन अगले ही पल फाइलों के पन्ने खड़कने लगे।
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