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लघुकथाएँ

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1-इस बार

    “देखो यार तुमसे पहले भी कहा है, किसी के जाति-धरम पर मत जाया करो”

    “और तुम जो दूसरों की जाति पर कमेंट कसते हो वो ? वो क्या है? परसों का दिन भूल गए ? जब जाति की बात तुमने निकाली थी, मैंने नहीं।” उस दिन बातों- बातों  में  अचानक किसी के मुख से कुछ आपत्तिजनक शब्द निकले और गरमागरमी बढ़ गई। सबकी आवाजें तेज होने लगीं और जोरदार बहस से मेरा ड्राइंगरूम गूँजने लगा।  सभी  के चेहरे तमतमाने लगे,दो गुट बन गए, तर्क पर तर्क दिए जाने लगे,मोबाइल पर आंकड़े दिखाए जाने लगे । सामने  मेज़ पर रखी चाय में किसी की दिलचस्पी नहीं रही,चिल्लाहट के बीच मैंने कई बार चाय पीने  के लिये कहा भी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया,गर्मागर्म बहस के कारण मेज पर रखी गर्मागर्म चाय ठंडी होने लगी।

      हारकर,विषय बदलने के लिए मैंने टीवी चालू कर दिया।  एक समाचार चैनल पर भिन्न धर्म वाला एक व्यक्ति हमारे ,हम चारों के धर्म पर अनर्गल टिप्पणी  कर रहा था तो कुछ सोचकर मैंने वही चैनल चलने दिया और वॉल्यूम बढ़ा दिया।

      उसकी भड़काने वाली भाषा सुनकर  सबको जैसे लकवा मार गया।  चिल्लाते हुए सब, एकाएक चुप हो गए।  कमरे में अब सिर्फ टीवी की आवाज ही सुनाई पड़ रही थी।  हमने एक दूसरे को देखा और सबके चेहरे फिर से सुर्ख होने लगे।

    पर अब कमरे में हमारे बीच, दो नहीं ,सिर्फ एक ही ‘हम’ था।

     मेज पर पड़ी ठंडी होती चाय अब  एकाएक  गर्म लगने लगी थी और सबके हाथ उसकी ओर बढ़ चुके थे ,इस बार मेरे बिना कहे ।

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2-वेल्थ फेसिनेशन 

      ट्रेन के उस कोच के केबिन में  जाकर बैठा तो वहाँ मात्र चार यात्री ही बैठे हुए थे । सबके सब गर्दन झुकाकर ,मोबाइल फोन में डूबे हुए।  एक-दो ने उचटती सी नज़र मुझ पर डाली और फिर खो गए अपने -अपने  फोन में।  यात्रियों का मुआयना किया तो लगा कि  सामने बैठी जवान लड़की ,कुछ वर्ष पूर्व हमारा मोहल्ला छोड़ चुके नितिन जी की बेटी  है । वही है क्या?कहीं मेरी नज़रें धोखा  तो नहीं खा रहीं?पू छ लूँ क्या उससे? पर पता नहीं, कोई और हो।  नहीं -नहीं ,पूछना ठीक नहीं। पर लग तो ये ऋचा ही रही है! नो, नॉट कन्फर्म ।  चार पाँच साल पहले देखा था इसे । तब छोटी थी। फिर ये लोग लखनऊ शिफ्ट हो गए थे । भले  मैं इसे न पहचान पाऊँ लेकिन वो तो मुझे पहचान ही लेगी। पर कैसे ?वो गर्दन उठाकर मेरी ओर  देखे तब न! वो तो डूबी हुई है अपने  फोन में !दो एक बार मैंने गला खखारकर कुछ कहना चाहा ,फोन निकालकर झूठ मूठ कुछ बात की।  फोन पर खुद का नाम भी  लिया लेकिन  सब व्यर्थ।  उसकी नज़रें अपने  मोबाइल से नहीं हटी तो नहीं हटीं ।  मैं  ज्यादा उसकी ओर  देखूँ तो आज के समय मे ये भी गलत ….छोड़ो ,क्या करना अपने को?”सोचकर मैंने पैर पर पैर रखा और आँखें मूंद लीं।

    “अरे?”एक पैर ऊंचा हो जाने से तभी जेब में रखे सिक्के हिले तो मेरे अंदर बत्ती सी जली ।  तत्काल मैं उठ खड़ा हुआ और पेंट की  जेब से दस रुपये का एक सिक्का निकालकर नीचे रखे लोहे के एक सन्दूक पर गिरा दिया।  ‘खट्ट’ और ‘खन्न’ की आवाज़ करता हुआ सिक्का झनझनाता हुआ फर्श पर जा गिरा। सिक्का गिरने की आवाज़ सुनते  ही केबिन में बैठे सब उपस्थितों को जैसे करंट सा लगा।  मोबाइल से सिर उठाकर  सबने पहले नीचे सिक्के को  देखा और फिर मेरी तरफ।

 ” अरे कपिल अंकल, आप ! कहाँ से बैठे हैं?कहाँ जा रहे हैं ?”मुझे देख ऋचा ने  हर्षातिरेक स्वर में कई प्रश्न कर दिये।

   मेरी तरकीब काम कर गई थी। सिक्का गिरने की आवाज ,सारी तन्द्राओं, सारी एकाग्रताओं पर भारी है,आज भी।

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3- लगाम

    “फिर वही कहानी!ये दीपू को सँभालना तो दिन पे दिन ….” बहुत समय बाद घर आए पारिवारिक मित्र महेशजी ने जब देखा कि अशोक और निर्मला , मानसिक रोगी, बाईस वर्षीय दीपक को बमुश्किल पकड़ पा रहे हैं, तो बोल पड़े ,”ये तो काबू में ही नहीं आ रहा इन दोनों के!”

   “हाँ, भैया  क्या करें अब?” छोटी, बबली ने जबरन अपने आँसू रोके।

     “पर कमाल की बात है न! मैंने खुद देखा है,जब अम्मा जिंदा थीं तो वो कमजोर ,बीमार औरत अकेली ही ,इसको पकड़कर  काबू में कर लेती थी और  इसके हाथ पाँव भी बांध देती थीं। पर अब? अब देखो ,अपने भैया-भाभी जैसे दो-दो जवान लोगों के भी बस में  नहीं आ रहा ये। “

    “जरूर देखा होगा आपने भैया पर एक खास बात नहीं देखी, अम्मा जब बड़बड़ाते हुए ,चिड़चिड़ाते हुए इसे मारतीं थीं ,रस्सी से बाँधने लगतीं थीं तो उनके आँसू निकलने लगते थे ,विवशता भरे गरमागरम आँसू!जो इस पगले के शरीर पर गिरते थे ,माँ के काँपते हाथ इसको टच करते थे तो शायद माँ की मजबूरी,दर्द को ये कुछ कुछ समझ जाता था,फिर एकदम शांत हो जाता था,प्रोटेस्ट करना बंद कर देता था और चुपचाप खुद को बंधवा लेता था। मारा और बाँधा तो इसे अब भी जाता है पर अब इसके ऊपर कोई आँसू नहीं गिरते न! माँ की ममता से भरे वो आँसू जो इसके लिए काम करते थे लगाम का !इसलिए अब ये बागी होता जा रहा है और इसको बाँधने में अब ……”-कहते कहते रो पड़ी बबली।

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4-हताशा का लावा

      “क्या यार? कैसे-कैसे लोग हैं दुनिया में?” हरि की माताजी की  मौत के दूसरे  दिन नरेन फिर उसके घर आया ,कुछ हांफता सा और बाहर  सड़क पर ही तेजी से बोलने लगा-“,कल वो तुम्हारे खास दोस्त”,मुँह में  रखी तम्बाखू घोलते हुए उसने बड़े अर्थ पूर्ण ढंग से हरि को  देखा,”,’रवि को मैं ही तो लेकर आ रहा था यहाँ । पर वो साला …इधर मम्मीजी की अर्थी उठने वाली थी उधर वो  ,सब जानते हुए भी …देर कर रहा था,घर बैठा पराँठे भर रहा था मुँह में ,घी के पराँठे हे हे हे…”

 

    हरि ने  कुछ कहने के लिए मुँह खोला पर फिर अचानक  बन्द करते हुए कुछ क्षण सोचा और सँभलकर  कहा ,”ठीक  है यार! आ तो गया था वो टाइम से यहाँ। “

  “‘टाइम !” नरेन ने  बनावटी ढंग से आँखें चौड़ी कीं,”आ गया था मतलब ?कोई एहसान किया क्या उसने यहाँ आकर ?अरे, तेरा खास दोस्त है वो रवि!”कहते हुए उसका मुँह कुछ कड़वा हुआ,उसने  तम्बाखू से स्वाद और नशा खींचने की असफल कोशिश करते हुए फिर पानी पर लाठी मारी “,ऐसे टाइम पे भी घी के पराँठे? सूझता कैसे है लोगों को?”

   “अरे समझा करो यार, रवि शुगर पेशंट है । वो भूखा नहीं रह सकता। मौत मैयत के कामों  में चार-पांच घण्टे तो लग ही जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को तो हमेशा  खाकर ही कहीं जाना चाहिए। याद है जब माँ को ब्लड की जरूरत थी तब कैसे उसने बिना खाए-पीए भागदौड़ की थी? फिर ?अब, उसके खाकर आने या भूखे पेट आने से माँ  वापस तो नहीं आ जाएँगी न?”नरेन की ‘उम्मीदों ‘पर पानी फेरते हुए हरि ने अपनी आँखों पर ठंडे पानी के छींटे मारे।

   “हूँ, चलो। जो तुम ठीक समझो। ” ठंडा पानी नरेन के ऊपर भी पड़ा, मुँह मे रखी तम्बाखू उसे असहनीय होने लगी तो ‘पिच्च’ की आवाज के साथ उसने सारी तम्बाखू थूक दी।

     तम्बाखू की उबलती हुई पीक , हरि को  पीक नहीं,हताशा का लावा  नज़र आई और ऐसे माहौल में भी मुस्कुराहट ने उसके होंठों पर अधिकार जमा लिया।

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5-बर्फ का ताला

     उज्जैन रोड पर घूमते हुए रोज सुबह  वह दिख जाती, फटे कपड़ों में, एक काले से ,फूले-फूले किन्तु फटे हुए गालों वाले, बड़ी-बड़ी आँखों वाले बच्चे को लेकर भीख मांगती हुई। बच्चा हमेशा अधनंगा ही दिखता था ,कभी उत्तरीय  पहना हुआ तो कभी अधोवस्त्र ।

     एक दिन कुछ निश्चय कर मैंने उस बच्चे के नाप के दो जोड़ नए कपड़े खरीदे और उस भिखारिन को दे आया, उसने  खुश होकर मेरे हाथ जोड़े और  मुझे ढेर सी दुआएँ दीं।

   पर ये क्या?अगले दिन से फिर वही सीन? बच्चा उन्हीं अधूरे, फटे, गन्दे कपड़ों में?

   “अरे!”तीन चार दिन यही नोटिस करने और इंतज़ार के बाद एक दिन मैं तीव्र आक्रोश से उसके पास पहुँचा और  बोला,”ये क्या? मैंने बच्चे के लिए नए कपड़े दिए थे, वो क्यों नहीं पहना रही हो इसे? कुछ छोटे-बड़े हैं क्या?”

       “नी साब,बरोबर हें। “

      “तो फिर?”मैं अभी भी बहुत गुस्से में था,”तुम लोगों को तो कुछ देना ही नहीं चाहिए, बेच दिए होंगे कहीं। “

“नी बाउजी नी “,वह तेजी से सिर हिलाती बोली,”बेचे नी, रखे हें अभी । पेनाउँगी । ”  

    “अरे, पर कब?इतनी ठण्ड में इस बच्चे को पूरे कपड़े तो पहनाओ। “मैं अभी भी आक्रोशित था।

   “बाउजी “उसकी  बुभुक्षा  ने जैसे मेरे उबलते आक्रोश पर बर्फ का ताला सा लगा दिया,” हमार वास्ते ठंड से बड़ी हे भूक! इसको नए,अच्छे कपड़े पेनाउँगी तो भीक  मिलेगी मेरको?”

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6- 105 नम्बर

        “105 !”इस कॉलोनी में सब्जी बेचते हुए एक मकान के बाहर लगा, ये बड़ा सा लाल रंग से लिखा हुआ नम्बर देखते ही मुझे चिढ़ सी होने लगती है। “झमाझम बारिश में  ठेला धकाते और  गीला मुँह  पोंछते हुए मैंने सोचा,”इस नम्बर से ही नफरत हो गई है मुझे। रोज जैसे ही मैं यहाँ से गुजरता हूँ,इस 105 नम्बर बंगले से एक बुड्ढा बाहर निकलता है और सब्जी लेने के बाद दो-पाँच रुपये का धनिया जबरदस्ती मुझसे ले जाता है, फ्री में!और बोलता है ,बोनस में! हुँह शरम नहीं आती इन अमीरों को।  हम गरीबों से क्या कोई बोनस लेता है?…धनिया कौनसा सस्ता आता है?पर क्या करूं?सब्जी बेचना है तो…” मैने फिर मुँह बिचकाया।

    ,”आज क्या बात है?”मकान की ओर देखते हुए मैं बुदबुदाया,”मेरी चिल्लाहट सुनकर भी बाहर नहीं आया बुड्ढा ? बारिश के कारण अंदर पडा होगा,चलो अच्छा है ,आज तो बला टली…”

       नहीं,लेकिन बला टली नहीं थी ,उसी समय 105 नम्बर का कम्पाउंड गेट खुला और वही बुड्ढा छतरी हाथ मे लिए बाहर निकला पर यह क्या?उसके दूसरे हाथ मे आज प्लास्टिक की  एक थैली थी जिसमें कोई नीले रंग की चीज़ थी।

     “नहीं-नहीं, आज सब्जी नहीं लेनी। मैं रोज़ देखता हूँ तुम बरसात में गीले होते हुए सब्ज़ी बेचते रहते हो । महामारी का टाईम है भैया । भीगने से कहीं तुम्हें बुखार हो गया तो सब कोरोना ही समझेंगे, सो तुम्हारे लिए ये…ये  रेनकैप और कोट खरीद लाया हूँ,बिल्कुल नया! अब इसे पहनकर सब्जी बेचना। ये लो ,मेरी तरफ से ,…बोनस में!”और कहकर वो बु….,नहीं -नहीं ,वे बाबूजी, ठहाका मारकर हँस पड़े।

   बरसती बूँदों के बीच मुझ पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया और अपनी सोच पर शर्माते हुए,कृतज्ञ नज़रों से उन्हें देखते हुए , मैं भी मुस्कुरा उठा।

  पहली बार मुझे वे अच्छे लगे, और  उनके मकान पर लगा, वह 105 नम्बर भी ।

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6-अनुताप

   लोगों से बचकर छिपता हुआ ,हाँफता हुआ वह जिस रास्ते पर चला जा रहा था वह उसका जाना पहचाना था।

    छिपने के लिए उसे सामने खड़ा  टूटा-फूटा भवन दिखा तो वह तुरन्त उसमें अंदर घुस गया।  उसे याद आया ,ये तो उसका स्कूल था, पन्द्रह सोलह वर्ष पूर्व का,जो अब खंडहर में तब्दील हो चुका था।

   एक कमरे की टूटी सी दीवार के पास खड़ा होकर वह लघुशंका की सोच ही रहा था कि एकदम ठिठक गया।

   उस जीर्ण शीर्ण दीवार के बचे-खुचे  प्लास्टर पर पेन से चित्रित कुछ रेखाचित्रनुमा आकृतियाँ दिखीं तो उसकी आँखें धुंधलाने लगीं…

“ये ….ये क्या ,अरे ?  इस  दीवार पे ये ….पतंग,फूल,पत्ते ,तितली सब मैंने  ही तो बनाए हुए हैं । इसी स्कूल में पढ़ते हुए। अभी तक ये ऐसे ही  हैं??कमाल है!”सोचते हुए उसे कुछ गुदगुदी होने लगी,”मुझे बचपन मे दीवार पर चित्रकारी का बड़ा शौक था,कागज़ पर भी और दीवारों पर भी”तभी हाथ में थमे हथियार पर उसका ध्यान गया तो उसके विचार अपकेंद्रित हुए”,पर क्या मैंने या किसी भी बच्चे ने किसी  दीवार पर कभी बंदूक  बनाई?रिवॉल्वर का ड्रॉइंग बनाया?नहीं ,कभी नहीं। बच्चे दीवारों पर  तितली,फूल,पतंग,चिड़िया तो बनाते हैं पर बंदूक,रिवॉल्वर  ..कभी नहीं।

तब, तब ये बंदूक हाथ में कैसे आ गई? और कबसे?”

सोचते हुए उसका दिमाग चक्कर खाने लगा,धुंधलाती आँखों से पानी बहने लगा, पैर जमीन पर ढीले पड़ने लगे और हाथ ,रिवॉल्वर पर ।

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