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सोद्देश्य रचनाकर्म

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लेखन मेरी समझ में मात्र कार्यकारी नहीं है। साहित्य एक सोद्देश्य रचनाकर्म है जो समाज को आदर्श दिशा दिखाने का काम करता है। लघुकथा साहित्य की आकार में छोटी लेकिन बहुत ही गम्भीर विधा है। लघुकथा के माध्यम से सामाजिक सरोकारों पर विमर्श तथा विसंगतियों का प्रत्यक्षीकरण किया जाता है।

कुछ समय पहले कुछ बेहतरीन लघुकथाएँ मेरे पढ़ने में आई। इन लघुकथाओं में कुछ अलग अंदाज देखने को मिला। इन लघुकथाओं का विषय, प्रस्तुतीकरण और संदेश मुझे बड़ा पसंद आया। इसीलिए मैंने लघुकथा की श्रेष्ठ आयोजन ‘लघुकथा डॉट कॉम’ में ‘मेरी पसंद’ कॉलम के अन्तर्गत इनमें से दो विशिष्ट लघुकथाओं को आपके समक्ष रखने का प्रयास किया है।

बिना सिर का धड़ (श्री मधुदीप गुप्ता)

  मैं कल विनय पाठक से मिला था। अरे! आप विनय पाठक को नहीं जानते! कमाल है भाई, आप कुछ समय के लिए इस शहर से बाहर क्या गए, आप तो इस शहर को ही भुला बैठे। अरे! वही विनय पाठक जो इस शहर के हर जलूस में हाथ में झण्डा थामे सबसे आगे होता है। वह इस शहर का बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति है जिसे यूँ भुला देना ठीक नहीं है। अरे हाँ, जिस व्यक्ति से आपको कोई वास्ता न हो उसे आप क्यों याद रखेंगे! लेकिन मैं आपको यूँ छोड़ने वाला नहीं हूँ। आपको उसकी पूरी दास्तान सुननी ही होगी।

मैं कल जब उसके झोंपड़ीनुमा घर पर पहुँचा तो वहाँ का दृश्य देखकर दंग रह गया।

रुकिए!

आप मुझे बीच में टोककर यह मत पूछिए कि मैं उसके घर क्यों गया था। आप तो मेरा काम जानते ही हैं। शहर के सभी जुलूसों के लिए भीड़ जुटाना ही तो मेरा धंधा है।

बात मुद्दे से भटक रही है, फिर से सही ट्रैक पर लौटते हैं। जब मैं उसके घर पहुँचा तो यह देखकर चकित रह गया कि उसके सामने जमीन पर एक झण्डानुमा कपड़ा बिछा हुआ है और वह उस पर तड़ातड़ जूते बरसाए जा रहा है। उसका चेहरा लाल सुर्ख हो रहा था और उसकी आँखें गुस्से में बाहर निकलने को हो रही थीं।

“क्या हुआ विनय जी?” कुछ देर आश्चर्य से यह देखते रहने के बाद मुझे पूछना ही पड़ा।

“यहाँ से भाग जाओ, नहीं तो मैं यह जूता तुम पर बरसाना शुरू कर दूँगा।” उसने चीखकर कहा।

मैं चुपचाप वहाँ से लौट आया; क्योंकि मैं समझ गया था कि उसके धड़ पर एक सिर उग आया है, जो कुछ सोचता भी है और समझता भी है।

आप तो जानते ही हैं मुझे सिर्फ सिर रहित धड़ों की आवश्यकता होती है। हाँ, अब मैं फिर से बिना सिर के किसी धड़ की तलाश में हूँ। ऐसा कोई आपकी नजर में हो तो मुझे अवश्य बताना… और हाँ कमीशन की चिंता कतई ना करें।

प्रस्तुत लघुकथा पर मेरा अवलोकन

पिछले दिनों एक वृद्ध महिला की तस्वीरें सोशल मीडिया पर काफी छाई रही। यह वृद्धा कभी दिल्ली के शाहीन बाग धरने पर बैठी दिखाई दी, तो कभी यूपी में किसान मोर्चे में, कभी यह एक बड़े राजनेता के गले लगकर रोती भी दिखाई दी। इन तस्वीरों पर बड़े मीम्स बने।

आज सोशल मीडिया में देश में ऐसे प्लान्टेड से लगते किरदार छुपते नहीं। हालांकि तकनीक के इस दौर में खबरें और तस्वीरें भी आँखों देखा भ्रम पैदा करने में सक्षम है। ‘राजनीतिक आईटी सेल’ रूपी एक नया शब्द भी इन दिनों काफी चर्चा में आया।

मुद्दों को हवा देने, विपक्षियों के गुब्बारे की हवा निकालने और अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए प्रायः सभी राजनीतिक दलों के पास कुछ खास ‘कर्मठ कार्यकर्ता’ होते हैं, जिन्हें न मुद्दे से कोई मतलब होता है और न जायज-नाजायज पक्ष या विरोध से। उन्हें सिर्फ अपने ‘आका’ के हुक्म की तामील और कड़क नोटों की गर्मी से मतलब होता है। एक तरह से यह उनका रोजगार है। ये लोग अपनी नारेबाजी व जोश भरती कवायदों से किसी रैली, सभा या आन्दोलन को गर्म बनाए रखते हैं। प्राय: सभी राजनीतिक दलों को ऐसे कार्यकर्ताओं की तलाश रहती है। इन दलों की इस माँग की पूर्ति करने हेतु सप्लायर भी मौजूद रहते हैं। फिल्मों में ‘जूनियर आर्टिस्ट सप्लायर’ की तरह ये सप्लायर भी ‘निर्देशक’ की डिमांड के अनुसार युवा, अधेड़, वृद्ध, महिला, पुरुष, कृशकाय, रुग्ण, जोशीले, फटेहाल, टोपीधारी-चोटीधारी, किसान, व्यापारी आदि सभी प्रकार के ‘कलाकार’ उपलब्ध करा देते हैं।

 ऐसा ही एक सप्लायर पात्र है मधुदीप जी की लघुकथा “बिना सर का धड़” का मुख्य सूत्रधार।

 किस्सागोई और आभासी वार्तालाप शैली में लिखी गई यह लघुकथा बड़ी सहजता से बेहद तीखी बात रखती है।

इस लघुकथा में तीन पात्र हैं। पहला पात्र वही पूर्वोक्त जूनियर आर्टिस्ट… मेरा मतलब ‘कर्मठ कार्यकर्ता’, दूसरा इसके सप्लायर के रूप में सूत्रधार जिसे लेखक ‘मैं’ के रूप में प्रस्तुत करता है और तीसरा पाठक के रूप में अदृश्य पात्र जिससे यह मैं रूपी सूत्रधार सम्बोधित है।

लघुकथा सूत्रधार और पाठक के मध्य वार्तालाप के द्वारा बढ़ती है। इस वार्तालाप में मात्र सूत्रधार ही बोल रहा है, सामने वाला पात्र कुछ बोलता नहीं। लेकिन लेखक की लेखन शैली और अनुभव का कौशल है कि उन्होंने इसे एकालाप प्रतीत होने नहीं दिया। जहाँ कहीं भी सुनने वाले आभासी पात्र के संवाद की आवश्यकता हो सकती थी वहाँ उन्होंने बड़ी ही चतुराई से उसे बोलने का अवसर दिए बिना ही सूत्रधार से ही वार्ता जारी रखवाई है।

लघुकथा सूत्रधार द्वारा पाठकों और इस आभासी तीसरे पात्र को मुख्य पात्र ‘विनय पाठक’ से परिचित कराने से प्रारम्भ होती है। विनय पाठक!… अरे वही कर्मठ कार्यकर्ता।

पाठक और आभासी पात्र दोनों ही विनय पाठक से परिचित नहीं हैं, लेकिन सूत्रधार बातों का विशेषज्ञ है। वह स्पष्ट करता है कि आपका उस विनय पाठक से कोई वास्ता न सही लेकिन पूरी दास्तान सुने बिना मैं आपको छोडूँगा नहीं।

सूत्रधार बताता है कि वह कल विनय पाठक से मिलने उसकी झोंपड़ी पर गया। यहाँ सामान्य बातचीत में प्रश्न उठता है कि क्यों? लेकिन बातों का महारथी यह सूत्रधार अवसर ही नहीं देता। प्रश्न उठने व पूछे जाने से पूर्व ही वह खुद बता देता है कि “बीच में टोकिएगा नहीं। आप तो मेरा काम जानते ही हैं। शहर के जुलूसों के लिए भीड़ इकट्ठी करना ही मेरा धंधा है।”

इस पंक्ति पर पाठक इस पात्र से भी परिचित हो जाते हैं और इस तथ्य से भी कि यह सुन रहे अदृश्य पात्र से इस कदर पूर्व परिचित है कि उससे अपने धंधे की भीतरी बातों की चर्चा भी कर सकता है।

सूत्रधार बताता है कि विनय पाठक बड़े गुस्से से एक झण्डेनुमा कपड़े पर जूते बरसा रहा है। यहाँ लेखक इसके पीछे कोई कारण या किस्सा बताने की जरूरत नहीं समझता। यह अनकहा बिना कुछ लिखे पाठकों तक सम्प्रेषित हो जाता है कि इस पत्र का मोहभंग हो चुका है तथा इसमें एक कर्तव्यबोध रूपी समझ जागृत हो चुकी है।

सूत्रधार भी समझ जाता है कि अब इसे चंद टुकड़ों या जाति-धर्म, अमीर-गरीब आदि से बरगलाकर राजनेताओं की रोटी सेकने के काम पर नहीं लगाया जा सकता। यही क्यों! हर व्यक्ति जो जरा समझकर, सोच-विचारकर, सही-गलत की परख कर पाने लगा हो, वह भेड़ों की तरह अंधानुकरण करती इस भीड़ का हिस्सा बनने को तैयार नहीं होगा।

सूत्रधार को भी ऐसे लोगों की जरूरत नहीं होती जो सोचते-समझते हैं। उसे तो बस बिना सिर के धड़ चाहिए जो उसके आकाओं की रैलियों-सभाओं में भारी भीड़ बढ़ा सकें। विचारशीलता, तथ्यानुसंधान व सत्य इस धंधे में किसी काम का नहीं।

सूत्रधार पुनः ऐसे ही किसी बिना सर के धड़ की तलाश में है। इस स्थान पर पंचलाइन बड़ी कमाल की है।

लघुकथा के मानकों पर इस रचना को परखा जाए तो यह एक एकांगी रचना है जो विषय पर एक निष्ठ केंद्रित है। कथ्य हालांकि बहुप्रचलित व अनेकशः प्रयुक्त है, लेकिन कथानक व शैली ने इसे विशेष बना दिया है। मधुदीप जी पूर्व में भी पाठकों से सम्बोधित करती लघुकथा का प्रयोग कर चुके हैं, लेकिन शिल्प इतना सुगठित व नपा-तुला है कि पाठक आद्योपांत गहराई से जुड़ा रहता है।

भाषा परिवेशानुकूल है। पहला संवाद काफी लम्बा है। इसे तोड़ा जा सकता था। लघुकथा में उठाई गई विसंगति सामयिक है तथा विडंबनापूर्ण है।

लघुकथा का उद्देश्य सार्थक है। सीधे-सीधे तरीके से कहने की बजाय व्यंग्य की शैली में परोक्ष प्रहार किया गया है।

लघुकथा जुलूस में जुटाई गई भीड़ का सच तथा नेता, दलाल और आम आदमी का तथ्यावलोकन है। नेताओं को भीड़ चाहिए, जो बिना सोचे-समझे आश्वासनों को सत्य मानकर जय-जयकार करे। इस हेतु भीड़ को भेड़ की भाँति मनचाही दिशा में हाँकने के लिए किराए के कार्यकर्ता तो चाहिए ही।

सोचने-समझने वाले लोग नेताओं को पसंद नहीं होते। जहाँ सोच जागृत हो जाती है, वैसे लोग इनकी अपेक्षाओं के बाहर हो जाते हैं।

लघुकथा की पंचलाइन सोचने पर विवश करती है।

“कमीशन की चिंता कतई ना करें” पंक्ति बिकती जनता और किराए की भीड़ की वृत्ति पर गहरा तंज करती है।

शीर्षक इस कथ्य को सार्थक में ऊँचाई प्रदान करने वाला है।

समग्र में लघुकथा अपने मानकों पर उचित उतरती हुई एक अच्छी रचना है जो लेखक के कद के अनुरूप कही जा सकती है।

नियति ने इस लघुकथा के लेखक श्री मधुदीप जी को भौतिक रूप से हमसे दूर कर दिया है, लेकिन उनकी उत्कृष्ट रचनाओं के जरिए वे सदैव हमारे बीच रहेंगे। यह समीक्षा मधुदीप जी को मेरी आदरांजलि है।

मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा है गम्भीर और परिष्कृत लेखक डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी की “इलाज”

इलाज ( लेखक- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी)

 स्टीव को चर्च के घण्टे की आवाज़ से नफरत थी। प्रार्थना शुरू होने से कुछ वक्त पहले बजते घण्टे की आवाज़ सुनकर वह कितनी ही बार अशांत हो कह उठता कि, “पवित्र ढोंगियों को प्रार्थना का टाइम भी याद दिलाना पड़ता है।” लेकिन उसकी मजबूरी थी कि वह चर्च में ही प्रार्थना कक्ष की सफाई का काम करता था। वह स्वभाव से दिलफेंक तो नहीं था, लेकिन शाम को छिपता-छिपाता चर्च से कुछ दूर स्थित एक वेश्यालय के बाहर जाकर खड़ा हो जाता। वहां जाने के लिए उसने एक विशेष वक्त चुना था जब लगभग सारी लड़कियां बाहर बॉलकनी में खड़ी मिलती थीं। दूसरी मंजिल पर खड़ी रहती एक सुंदर लड़की उसे बहुत पसंद थी।

एक दिन नीचे खड़े दरबान ने पूछने पर बताया था कि उस लड़की के लिए उसे 55 डॉलर देने होंगे। स्टीव की जेब में कुल जमा दस-पन्द्रह डॉलर से ज़्यादा रहते ही नहीं थे। उसके बाद उसने कभी किसी से कुछ नहीं पूछा, सिर्फ वहां जाता और बाहर खड़ा होकर जब तक वह लड़की बॉलकनी में रहती, उसे देखता रहता।

एक दिन चर्च में सफाई करते हुए उसे एक बटुआ मिला, उसने खोल कर देखा, उसमें लगभग 400 डॉलर रखे हुए थे। वह खुशी से नाच उठा, यीशू की मूर्ति को नमन कर वह भागता हुआ वेश्यालय पहुंच गया।

वहां कीमत चुकाकर वह उस लड़की के कमरे में गया। जैसे ही उस लड़की ने कमरे का दरवाज़ा बन्द किया, वह उस लड़की से लिपट गया। लड़की दिलकश अंदाज़ में मुस्कुराते हुए शहद जैसी आवाज़ में बोली, “बहुत बेसब्र हो। सालों से लिखी जा रही किताब को एक ही बार में पढ़ना चाहते हो।”

स्टीव उसके चेहरे पर नजर टिकाते हुए बोला, “हाँ! महीनों से किताब को सिर्फ देख रहा हूँ।”

“अच्छा!”, वह हैरत से बोली, “हाँ! बहुत बार तुम्हें बाहर खड़े देखा है। क्या नाम है तुम्हारा?”

“स्टीव और तुम्हारा?”

“मैरी”

जाना-पहचाना नाम सुनते ही स्टीव के जेहन में चर्च के घण्टे बजने लगे। इतने तेज़ कि उसका सिर फटने लगा। वह कसमसाकर उस लड़की से अलग हुआ और सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया।

लड़की ने सहज मुस्कुराहट के साथ पूछा, “क्या हुआ?”

वहीँ बैठे-बैठे स्टीव ने अपनी जेब में हाथ डाला और बचे हुए सारे डॉलर निकाल कर उस लड़की के हाथ में थमा दिए। वह लड़की चौंकी और लगभग डरे हुए स्वर में बोली, “इतने डॉलर! इनके बदले में मुझे क्या करना होगा?”

स्टीव ने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, “बदले में अपना नाम बदल देना।”

कहकर स्टीव उठा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया। अब उसे घण्टों की आवाज़ से नफरत नहीं रही थी।

प्रस्तुत लघुकथा पर मेरा अवलोकन

कोई लघुकथा बेहतरीन तब बनती है, जब उसमें कथ्य, कथानक, शिल्प, शैली, भाषा, पंचलाइन, प्रभावी अंत, निसृत संदेश, सहजता, बोधगम्यता, मानवीय संवेदना, अंतिम प्रभाव, शीर्षक आदि समग्र रूप से अपने शिखर पर हों।

ऐसा ही उदाहरण है प्रस्तुत समीक्षित लघुकथा- “इलाज”।

चन्द्रेश कुमार छतलानी जी लघुकथा के चितेरे हैं। इनकी लघुकथाएँ पाठक की आँखों के समक्ष जीवन्त प्रतीत होती हैं। यह लघुकथा भी पाठक के अन्तर्मन को अंतिम गहराई तक स्पर्श करती है।

सात्विक, राजस व तामस ये तीन प्रकार की मानव प्रकृति होती है। सात्विक प्रकृति का मनुष्य पूर्णरूपेण शिवरूप शुद्ध होता है। उसमें किसी प्रकार की मलिनता, दुर्गुण, मानवीय दोष या कामनाएँ आदि नहीं होते। तामसिक प्रवृत्ति का मनुष्य मात्र दुर्गुणों से भरा राक्षसी दुष्ट स्वभाव का होता है, जिसे अकारण परपीड़न, स्वार्थ व स्वहित में ही रूचि होती है। राजसी व्यक्ति भौतिक सुख के भोग की कामना करने वाला होता है। वर्तमान समय कलियुग है। इसमें विशुद्ध एकल प्रकृति मनुष्य प्राय: नहीं मिलते। अब मिश्रित प्रकृति है। एक ही व्यक्ति परिस्थिति व पारिवेशिक प्रभाव से सत्व-रज या रज-तम प्रधान हो सकता है।

प्राय: हर काल व समाज में मनुष्य को मानवता से परे ले जाती काम-क्रोध-मद-मोह-लोभ-ईर्ष्या आदि तामसिक वृत्तियों को नियंत्रित रखने के लिए धर्म का सहारा लिया गया है। जब तक मनुष्य में ईश्वर है, अथवा उसे ईश्वर व उसके दण्डविधान में विश्वास है तब तक वह अकरणीय कृत्यों व विचारों से बचता है।

लघुकथा ‘ईलाज’ का प्रमुख पात्र ‘स्टीव’ भी ऐसा ही है। वह जीविकोपार्जन के लिए चर्च में साफ-सफाई का काम करता है। चर्च में प्रार्थना के समय की सूचना हेतु घण्टा बजाया जाता है। उसे लोगों को ईश्वर की उपासना के लिए भी समय की याद दिलाता यह घण्टनाद अच्छा नहीं लगता। विडम्बना है कि ईश्वर को याद करने के लिए उसके अनुयायियों को स्मरण कराना पड़ता है।

इस घण्टे से जिन पूजकों को ईश्वर की याद आती है, वह उन्हें भी ‘पवित्र ढोंगी’ कहता है।

स्टीव कोई दृढ़ धार्मिक भी नहीं है तो वह नास्तिक होने के भ्रम में भी नहीं है। उसके मन में भी कामादि भाव उठते हैं। उसे भी दूर कहीं किसी कोठे पर जिस्म का सौदा करने वाली खूबसूरत लड़की को पाने की हसरत है। मगर उसके पास उस लड़की को पाने के लिए देने लायक वांछित कीमत नहीं है। वह रोज शाम को उसे दूर से ही देखता रहता है। यह उसका रजोगुण है कि वह भोग की आकांक्षा रखता है किन्तु तामसिक प्रयास नहीं करता।

एक दिन सफाई करते हुए उसे चर्च में एक भरा हुआ बटुआ मिलता है। उसके तामस गुण सिर उठाने लगते हैं। वह बटुआ उसके मालिक को लौटाने का प्रयास नहीं करता वरन खुद रख लेता है। लेकिन इस बटुए के लिए वह प्रभु यीशु को धन्यवाद करना नहीं भूलता। कदाचित वह सोचता हो कि ईश्वर ने ही उसकी इच्छापूर्ति के लिए यह प्रतिफल दिया हो, या वह इस अनीति कर्म के लिए अग्रिम क्षमा चाहता हो।

इस लघुकथा का कथ्य श्रद्धा से कुछ अधिक भाव व मनःस्थिति का है। यह पात्र प्राकृत काम भावना का मानवीय प्रतिरूप है। एक खूबसूरत लड़की को देखकर इसके मन में काम भाव उत्पन्न होता है। वह उसे करीब-करीब पा ही चुका होता है तब उसका नाम जानकर उसके मन में एक अन्य नारीस्वरूप उभरता है, जो दिव्य है, पवित्रतम है, श्रद्धेय है।

ईसाई धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि एक वर्जिन (कुँवारी) स्त्री गर्भधारण करेगी। उसके गर्भ से घोड़ों के अस्तबल में ईश्वर का बेटा जन्म लेगा। संतान को जन्म देकर माँ बनने के बावजूद वह स्त्री वर्जिन ही होगी।

मुख्य पात्र स्टीव उस पवित्र नाम को ऐसी जगह सुनकर स्तब्ध रह जाता है। ‘मदर’ के रुप में प्रतिष्ठित इस नाम की वह अशालीन कल्पना तक नहीं कर पाता।

अपने सारे डॉलर उसे थमा कर वह बस इतना ही कह पाता है कि “बदले में अपना नाम बदल लेना।”

यहाँ वह अपने तमोभाव को पीछे छोड़ कर पुनः सत्व में प्रविष्ट हो जाता प्रतीत होता है। यही तो ईश्वर तत्व है।

इस लघुकथा का विषय भाव और  वैचारिक आलोक का है। लेखक ने विदेशी क्रिस्तानी परिवेश को आधार बनाकर बेहतरीन निर्वहन किया है। कदाचित अन्य परिवेश में यह अपना प्रभाव इतने उत्कृष्ट रूप में नहीं दर्शा पाती।

शिल्प बड़ा ही सधा हुआ है।

अंतिम पंक्तियों में स्टीव का आत्मिक संतोष प्रकट होता है। अंतिम पंक्ति देखिए-

“अब उसे घण्टों की आवाज से नफ़रत नहीं रही थी।”

उस स्त्री का नाम सुनकर जो घण्टा उसके दिमाग में बजा, उसने उसे ईश्वर के  स्मरण की याद दिलाने का औचित्य समझा दिया।

लघुकथा “… नाम बदल लेना” पर भी समाप्त की जा सकती थी। मगर मुझे यह अंत अधिक सुखद लगा।

यह लघुकथा सरल है, सहज ग्राह्य है, मानवीयता संवेदनाओं से परिपूर्ण है। यह लघुकथा धर्म, ईश्वर और खोखली धार्मिकता से परे मानवीय व्यवहार व मूल्यों एवं सत्य ईश्वर का प्रत्यक्षीकरण है।

लघुकथा का शीर्षक बड़ा गूढ़ और तर्कपूर्ण है। इस लघुकथा के भाव को पूरी तरह स्पर्श करता यह शीर्षक भी इस लघुकथा को बेहतर बनाने वाला है।

यह लघुकथा बड़ी ही मधुर और भावनात्मक होने के कारण मुझे काफी पसंद आई है।

-0-डॉ. कुमारसम्भव जोशी,बसन्त विहार, सीकर (राजस्थान), सम्पर्क- 7568929277; drksjoshi@gmail.com        


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