मैं अपनी प्रिय मित्र श्रद्धादेवी के घर उनकी मौत की मातमपुर्सी करने गई थी । उनके पतिदेव बहुत हो रहे थे । बार-बार उनको याद करके उनकी आँखें भर आती थीं । उनकी विद्वत्ता ,संसार की असारता और वैराग्य की बहुत सी बातें कर रहे थे । मुझे लगा कि पत्नी के जाने के कारण इनको संसार की मोह-माया से अरुचि हो गयी है । सच मौत बिना शब्दों के ही अपनी निस्तब्धता से कितना कुछ सिखा जाती है । तभी टन—टन टन – की घंटी की आवाज सुनकर श्रद्धादेवी के पति की दृष्टि दरवाज़े की तरफ घूमी । “बेटा देखो कौन आया है ?”
बेटे ने गेट खोला और बाहर गया । आकर बोला –“माँ की छपी किताबें आई हैं ,क्या करूं ?”
कोरियर वाले को बुलाओ । “हाँ भई अब डा. साहब तो चली गयीं ।”
“बहुत बुरा हुआ , बहुत अच्छी थीं ।”
“हाँ , होनी के आगे किसका बस चलता है ।”
“जी ,साहब उनकी किताबें लाया हूँ ।”
“इसको ले जाओ हम क्या करेंगे”
“साहब कहाँ ले जाऊँ , क्या करूँगा मैं ?”
“भई चाहे प्रकाशक को दे दो , चाहें किसी पुस्तकालय में दान कर दो , पर वापस ले जाओ , हम क्या करेंगे इनका , अब वो तो रही नहीं । उनके नाम की चीज़ हमें दुखी ही करेगी, प्लीज़ वापस ले जाओ ।”
“अच्छा साहब आप ठीक ही कहते है, और उनका तीस हज़ार का जो चेक आया है वह भी वापस ले जाऊँ; क्योंकि उनके नाम का चेक आपको दुःख ही देगा ।”
“क्या ! चेक ! कहाँ है ? इधर लाओ और श्रद्धादेवी के पति ने चेक वाला लिफाफा ले लिया, बेटे ने कोरियर वाले के पत्रक पर हस्ताक्षर किए । कोरियर वाला किताबों का बंडल लेकर बाहर चला गया ।
मैं प्यार ,संवेदना , दिखावा , रिश्तों की निरर्थकता , और धन से जुड़े संबंधों की सलाइयों पर ज़िंदगी के फंदे डालने लगी ।
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चेक
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