अपनी पसंद की लघुकथाओं के बारे में जब सोचता हूँ, तो कई लघुकथाएँ याद आ जाती हैं; लेकिन जब ‘मेरी पसंद’ स्तम्भ के लिए लिखने बैठा हूँ, तो अनेक लघुकथाओं में से दो लघुकथाएँ सामने आ खड़ी हुई हैं-सबसे पहले ‘रिश्ते का नामकरण’ लघुकथा के बारे में बात करना चाहूँगा। मैंने कई बरस पहले यह रचना श्याम सुंदर अग्रवाल जी की फ़ेसबुक वाल पर पढ़ी थी । मुझे रचना का शीर्षक याद नहीं रहा,लेखक का नाम भी भूल गया था, मगर इस शानदार लघुकथा के कथानक को नहीं भूला था । किसी साहित्यिक रचना की सफलता का सबसे बड़ा मानक यही होता है । यह लघुकथा दिखने में जितनी तुरत -फुरत और सपाट लगती है, वास्तव में यह उतनी ही ज्यादा गहराई से गुजरती है । उजाड़ रेलवे स्टेशन पर अकेली स्त्री का रात बिताने की बात, उसकी पसंद नहीं अपितु विकल्पहीनता एवं मजबूरी को बयाँ करती है । फिर उसमें मुलाकाती द्वारा यह बताया जाना कि यहाँ अकेली स्त्रियों के साथ अतीत में बुरा भी हो चुका है । यह सूचना स्त्री को सजग तो करती है मगर अगले ही पल मुलाकाती द्वारा यह बताया जाता है कि वह खुद भी अध्यापक है और उस महिला के कहीं अन्यत्र रहने की व्यवस्था करवा देगा । स्त्री द्वारा इस पर यहाँ मजबूरी और विकल्पहीनता पर आजमाइश तो है; मगर किसी किस्म का आश्वासन देने से परहेज किया गया है । लघुकथा आशंका से आश्वस्ति का सफर इस बात में तय कर लेती है कि मददगार मुलाकाती भी उसका हम पेशा है कोई ज्यादा अजनबी नहीं। सहज और लापरवाह दिख रही अध्यापिका तेजी से निर्णय लेती है कि पहली नजर में पुरुष किरदार का स्त्री को मदद के लिए बढ़ाया हुआ हाथ इंसानियत के लिए नेक नियति से मदद हेतु की गई एक पहल ही होगा। स्त्री के पास विकल्प थे या नहीं थे इससे अहलदा सोचकर उस स्त्री ने पराए और अनजान पुरुष की मदद को नकारा नहीं । जबकि सामान्य तौर पर स्त्रियाँ नारी सुलभ लज्जा एवं सजगता के कारण एक अनजान पुरुष द्वारा की गई मदद की पहल को किसी छिपे हुए मकसद की कल्पना करके उस पुरुष की बात को नकार देती हैं। इसके बाद फिर नए और अनजान पुरुषों से मदद मांगती तथा नए विकल्पों को आजमाती हैं । मगर यहाँ पर अध्यापिका के दिमाग में सब बातें क्रिस्टल क्लियर हैं। यह इस लघुकथा का सबसे सशक्त पहलू है कि आप अगर नेकी में पेवस्त ह्रदय रखते हैं तो बुराई को लेकर आप इतने आशंकित नहीं रहते। अध्यापिका को स्टेशन पर हुई बातचीत के दौरान उदारता से मुलाकाती द्वारा महिलाओं के साथ हुई एक -दो अप्रिय घटनाओं के बारे में बता कर आगाह तो किया जाता है परन्तु यह भी आश्वस्त किया जाता है कि उसके रहने का इंतजाम कहीं और कर दिया जाएगा। यहाँ स्त्री सरल है,सजग है; मगर शातिर नहीं । वह बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से निर्णय लेती है कि यदि महिला के ऊपर खतरा है, तो जो खतरे से आगाह कर रहा है, वही खतरे से बचाने के लिए सबसे मुफीद शख्स भी होगा। इसीलिये वह उस मददगार व्यक्ति के घर थोड़ी देर ठहरने की बात करती है। यहाँ स्त्री की सजगता एवं चतुराई अपने चरम पर है । अध्यापिका “थोड़ी देर ठहरने की बात” कहकर उस घर और वहाँ के माहौल का जायजा लेती है । घर में दूसरा बिस्तर देखकर उसके अंदर एक हैरानी पैदा होती, जिसका वह आत्मविश्वास से तुरन्त प्रश्न पूछकर समाधान भी करती है। यह बिंदु इस लघुकथा में सबसे टर्निंग प्वाइंट वाला था, जिसमें अध्यापक बताता है अध्यापिका से- “कभी -कभार उसकी माँ भी आती है उस घर में और यह दूसरा बिस्तर उसी के लिए है।” दूसरे बिस्तर की बात स्त्री की नजर में मकान को घर बनाती है और यहीं पर वह अध्यापिका उस पराए घर में पराए पुरुष से अपने रिश्ते को कनेक्ट कर लेती है । यह रिश्ता अध्यापिका के मन में अध्यापक को भाई समझने में मदद करता है ।गुसलखाने से लौटकर अध्यापिका को जब चाय पीने को वह पुरुष देता है तब उस स्त्री के भीतर का संकोच काफी हद तक कम हो जाता है; क्योंकि ऐसी परिस्थिति में आम तौर स्त्री के आने पर पुरुष स्वयं घर से बाहर हो जाते हैं और स्त्री को कुछ बनाकर खाने या पीने के लिए देने में थोड़ा तौहीन महसूस करते हैं मगर जिस तरह बिना किसी अहं केपुरुष अपने घर में चाय बनाकर आगंतुक स्त्री को देता है वह पुरुष की सरलता एवं सहजता का परिचायक है। अपने एकतरफा निर्णय में स्त्री बताती है – “फिर तो खाना भी यहीं खाऊँगी” यानी उस दिन उस घर को स्त्री ने अपना ही मान लिया था । भोजन के बाद अकेली और बेधड़क सोती हुई स्त्री के चारपाई के पास बार -बार पुरुष का जाना पुरुष की मानवता और पशुता के अंतर्द्वंद को खूबसूरती से उकेरता है । लेखक ने क्या ही उम्दा लाइन लिखी है – “मेरे भीतर का मर्द जाग रहा था और उसके भीतर की औरत सोई पड़ी थी”। इस वाक्य के अर्थ बहुत गहरे हैं – ‘भीतर का मर्द’ यानी अविश्वास और आकांक्षा से लबरेज कोई बुरी इच्छा सोने नहीं दे रही थी, जबकि महिला किरदार के बारे में लिखा गया है कि उसमें ‘बसी औरत’ यानी यहाँ पर औरत की उपमा जेंडर में नहीं बल्कि विश्वास करने वाले में परिभाषित की गई है। ये बहुत उम्दा लाइन है लघुकथा की। अपने अंतर्द्वंद्व से परेशान पुरुष जब छत पर बेचैनी से टहल रहा होता है तो उस व्यक्ति के असंमजस और अंतर्द्वंद को दूर करने के लिए स्त्री पीछे -पीछे छत पर आती है और खुद को उस पुरुष की ‘छोटी बहन’ कहकर सारा असमंजस दूर कर देती है । स्त्री का स्वयं छत पर आना और यह वाक्य कहना इस लघुकथा को बेहतरीन मोड़ पर खत्म करने में मदद करता है। लेखक ने जिस चुस्ती और कसावट से यह लघुकथा लिखी है, वह काबिले- तारीफ है । लघुकथा में कहन को जटिल नहीं रखा गया है सब बातें किरदार बहुत सरलता एवं सहजता से कहते हैं; मगर सभी कहन एक जटिल सोच की प्रक्रिया से गुजरकर नाप -तोल कर बोले गए हैं। लघुकथा उम्मीद से इतर जाकर चौंकाती तो है; मगर अंत बहुत तसल्ली भरा रहता है। मेरी नजर में भाषा,कथानक,शिल्प की दृष्टि से ‘रिश्ते का नामकरण’ एक संपूर्ण तथा उत्कृष्ट लघुकथा है ।
अब बात करते हैं। दूसरी लघुकथा- ‘स्त्री का दर्द’। यह लघुकथा- ‘देखन में छोटे लगें ,घाव करें गम्भीर’ का सटीक उदाहरण है । लघुकथा मजबूरी से शुरू होकर भाग्य से जूझती हुई पुरुषार्थ से होती हुई स्त्री के प्रेम में त्याग व समर्पण की उत्कृष्ट बानगी है । गरीबी से जूझ रहे दम्पती, मजदूरी मिलने पर उस दिन अपनी जरूरतों का सामान खरीदते हैं मगर आत्मसम्मान बचाये रखने के लिए कर्ज अदा करने की रकम की जरूरतों के बारे में भी पुरुष अपने लिए बरसाती जूते नहीं खरीद पाता । यहाँ पर पैसा हाथ में होने के बावजूद पुरुष घरेलू सामान तो खरीदता है पर कर्ज़ चुकाने की बात सोचकर अपने निजी जरूरत की चीज यानी जूतों को नहीं खरीदता है । खुद के आगे परिवार की जरूरतों को तरजीह देने का यह उत्तम उदाहरण है ।
पत्नी से नंगे पाँव पति का चलना सहा नहीं जाता तो वह अपनी चप्पल देने की पेशकश करती है; लेकिन पुरुष उस पेशकश को यह कहकर टाल देता है – “जनाना चप्पल पहनें,इससे तो नंगे पाँव ही अच्छे”।यह वाक्य काफी गूढ़ता लिये हुए है । पहली नजर में ऐसा लगता है कि स्त्री द्वारा दी गई जनाना चप्पल की पेशकश पुरुष अहं को जगाती है और वह पुरुष होने के दम्भ होने से जनाना चप्पल की पेशकश को इंकार करता है पर वास्तव में ऐसा है नहीं । पुरुष इस बात को सोचता है कि यदि नंगे पाँव रहने से मुझे तकलीफ हो रही है तो स्त्री के पैर तो और भी कोमल होते हैं, उसे तो नंगे पाँव चलने में और भी कठिनाई होगी। बड़ी ही चतुराई से पुरुष अपने प्रेम को छिपाते हुए इस पुरुष के अहं से सनी पगीबात की आड़ लेता है और कहता है – “जनाना चप्पल, इससे तो नंगे पैर ही अच्छे” औऱ खुद नंगे पाँव चलते हुए इस बात को सुनिश्चित करता है कि उसके जीवन की स्त्री को कष्ट न हो । लघुकथा में इस प्रेम और संरक्षण के भावों को बहुत कायदे से उकेरा गया है। दोनों किरदार एक दूसरे के प्रेम में यूँ रचे -पगे हैं कि उन्हें अपनी सुविधा के सुख से ज्यादा अपने जीवन साथी को रही असुविधा की पीड़ा सालती है । लेखक ने प्रेम का गजब विरोधाभास दिखाया है । पुरुष स्त्री को चप्पल पहनाकर संतुष्ट है और वहीं पर स्त्री, पुरुष को नंगे पाँव चलता हुआ और अपने पैरों में चप्पल देखकर आत्मग्लानि से भर उठती है । जब स्त्री से चप्पल लेने का प्रस्ताव पुरुष ठुकरा देता है तो प्रेम में पगी स्त्री भी नंगे पाँव रहने का निर्णय कर लेती है।स्त्री अपने असमंजस से निकलती है और गंगा जी बहुत ही भावुक प्रार्थना करती है – “जुटाना तो दोनों को भी जुटाना, नहीं तो इसे भी रख लो। ”-यह कहकर स्त्री का चप्पल को गंगा जी में फेंककर पति की तरह नंगे पाँव हो जाना इस लघुकथा का टर्निंग पाइण्ट है और इसे मास्टरपीस रचना बनाता है। लेखक का अंत में यह लिखना (अब स्त्री को पुरुष के नंगे पाँवों से असुविधा नहीं हो रही थी) इस लघुकथा को काफी ऊँचाई पर ले जाता है, जहाँ हृदय के कष्ट को तन के कष्ट से बड़ा बताया गया है । प्रेम, समर्पण ,निछावर ,संवेदना और जेंडर की समानता को समेटे यह एक उत्कृष्ट लघुकथा होने के सभी मानक पूरी करती है ।
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1-रिश्ते का नामकरण/ दलीप सिंह वासन
उजाड़-से रेलवे स्टेशन पर अकेली बैठी लड़की ने मुझे बताया कि वह अध्यापिका बनकर आई है। रात को स्टेशन पर ही रहेगी। प्रात: वहीं से ड्यूटी पर उपस्थित होगी। मैं गाँव में ही अध्यापक था। पहले घट चुकी एक–दो घटनाओं के बारे में मैंने उसे बताया।
“आपका रात में यहाँ ठहरना ठीक नहीं है। आप मेरे साथ चलें, मैं किसी घर में आपके ठहरने का प्रबंध कर देता हूँ।”
जब हम गाँव में से गुजर रहे थे तो मैंने इशारा कर बताया, “मैं इस चौबारे में रहता हूँ।”
अटैची ज़मीन पर रख वह बोली, “थोड़ी देर आपके कमरे में ही ठहर जाते हैं। मैं हाथ–मुँह धोकर कपड़े बदल लूँगी। बिना किसी वार्तालाप के हम दोनों कमरे में आ गए।
“आपके साथ और कौन रहता है?”
“मैं अकेला ही रहता हूँ।”
“बिस्तर तो दो लगे हुए है?”
“कभी–कभी मेरी माँ आ जाती है।”
गुसलखाने में जाकर उसने मुँह–हाथ धोए। वस्त्र बदले। इस दौरान मैं दो कप चाय बना लाया।”
“आपने रसोई भी रखी हुई है?”
“यहाँ कौन-सा होटल है!”
“फिर तो खाना भी यहीं खाऊँगी।”
बातों-बातों में रात बहुत गुजर गई थी और वह माँ वाले बिस्तर पर लेट भी गई थी।
मैं सोने का बहुत प्रयास कर रहा था, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। मैं कई बार उठकर उसकी चारपाई तक गया था। उस पर हैरान था। मुझ में मर्द जाग रहा था, परन्तु उस में बसी औरत गहरी नींद सोई थी।
मैं सीढि़याँ चढ़ छत पर जाकर टहलने लग गया। कुछ देर बाद वह भी छत पर आ गई और चुपचाप टहलने लग गई।
“जाओ सो जाओ, आपने सुबह ड्यूटी पर हाजि़र होना है।” मैंने कहा।
“आप सोए नहीं?”
“मैं बहुत देर सोया रहा हूँ।”
“झूठ।”
“…”
वह ठीक मेरे सामने आकर खड़ी हो गई, “अगर मैं आपकी छोटी बहन होती, तो आपने उनींदे नहीं रहना था।”
“नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।” और मैने उसके सिर पर हाथ फेर दिया।
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2-स्त्री का दर्द/ अमर गोस्वामी
वे दोनों शहर से मजदूरी करके और कुछ जरूरत का सामान खरीद लौट रहे थे। स्त्री की गोद में बच्चा था। दोनों की उम्र यही 20-25 वर्ष की रही होगी। ऊबड़-खाबड़ और कंकड़ों-भरी सड़क पर चलते हुए अपने पति के बिवाई-भरे नंगे पैरों को देखकर स्त्री को असुविधा हो रही थी। वह बोली, “ए, हो दीनू के बाबू! तुम अपनी पनही जरूर खरीद लेना।”
“हाँ।” पुरुष ने कहा।
वे दोनों सोच रहे थे कि पनही खरीदना क्या आसान बात है? इतने दिनों से पैसा जोड़कर माह-भर पहले जो जूता उधार लेकर खरीदा था, उस पर किसी चोर की निगाह पड़ गई। उधार सिर पर था। अब उधार लेकर खरीदने की भी हैसीयत नहीं थी।
फिर जहाँ रोज खाने को रूखा-सूखा जुटाना मुश्किल हो, वहाँ जूता बहुत ऊँची चीज थी, मगर औरत को अपने पाँव में चप्पल और मर्द को नंगे पाँव ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर चलते देखकर असुविधा होती थी। वह कई दिन इसी ऊहापोह में रही, कुछ पैसे चोरी से बचाने की कोशिश की, मगर वे बचे नहीं। उस दिन भी औरत ने कहा, “न हो तो दीनू के बाबू, यह चप्पल पहन लो।”
मर्द हँसा, “जनाना चप्पल पहनें। इससे तो नंगे पैर अच्छे।”
“ठीक ही कहा, नंगे पैर अच्छे”
बगल से गंगा नदी बहती थी। कगार से चलते हुए औरत मन ही मन बुदबुदाई, “हे गंगा मैया, अगर जुटा सके तो दोनों को जुटाना, नहीं तो इसे भी रख लो।”
औरत ने अपनी चप्पल छपाक से पानी में फेंक दी। अब औरत को मर्द के नंगे पाँवों से असुविधा नहीं हो रही थी।
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