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लघुकथाएँ

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1-त्याग

माँ की मृत्यु के बाद तीसरा दिन था। घर की परंपरा के अनुसार, मृतक के वंशज उनकी स्मृति में अपनी

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प्रिय वस्तु का त्याग किया करते थे।
“मैं आज के बाद बैंगनी रंग नहीं पहनूँगा।” बड़ा बेटा बोला।
वैसे भी जिस ऊँचे ओहदे पर वो था, उसे बैंगनी रंग शायद ही कभी पहनना पड़ता। फिर भी सभी ने तारीफें की।
मँझला कहाँ पीछे रहता, “मैं ज़िदगी भर गुड़ नही खाऊँगा।”
ये जानते हुए भी कि उसे गुड़ की एलर्जी है, पिता ने सांत्वना की साँस छोड़ी।
अब सबकी निगाहें छोटे पर थी। वो स्तब्ध- सा माँ के चित्र को तके जा रहा था। तीनो बेटों की व्यस्तता और अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता के चलते, माँ के अंतिम समय कोई नही पहुँच पाया था। सब कुछ जब पिता कर चुके, तब बेटों के चरण घर से लगे।
“मेरे तीन बेटे और एक पति, चारों के कंधों पर चढ़कर श्मशान जाऊँगी मैं।” माँ की ये लाड़ भरी गर्वोक्ति कितनी ही बार सुनी थी उसने और आज उसका खोखलापन भी देख लिया।
“बोलिये समीर जी,” पंडितजी की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई।
“आप किस वस्तु का त्याग करेंगे अपनी माता की स्मृति में?”
बिना सोचे वो बोल ही तो पड़ा था, “पंडितजी, मैं अपने थोड़े से काम का त्याग करूँगा, थोड़ा समय बचाऊँगा और अपने पिताजी को अपने साथ ले जाऊंगा।”
और पिता ने लोक लाज त्यागकर बेटे की गोद में सिर दे दिया था।

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2-किरचें

बारह साल की हंसा बड़ी मुश्किल से अपने बल्लियों उछलते मन को सम्हाल पा रही थी. पिछले तीन दिनों से एक एक शब्द जोड़कर, तुक मिलाकर उसने दस पंक्तियों की एक उम्दा -सी कविता तैयार कर ली थी. उसकी उम्र पर एकदम फबने वाली, फूल, तितलियों और रंगीन सपनों की गोटा किनारी लगी यह कविता आज उसके लिए किसी खजाने से कम नहीं थी. बस थोड़ी ही देर में माँ आ जाएगी और हंसा उन्हें आश्चर्य में डाल देगी. ये घड़ी भी तो कितनी धीमी चल रही है आज.

हंसा सपने देखने लगती है. माँ उसे खूब प्यार करेगी, खूब शाबाशी देगी, सभी आने जाने वालों के बीच उसकी कविता के बारे में बात करेगी और उसे लेकर बड़ी- बड़ी बातें सोचेगी. सचमुच, बस हवा में उडना ही तो बाकी रह गया था, बाल मन सम्हाले नहीं सम्हल रहा था.

तभी हल्के से आहट हुई, माँ आ गई थी. हंसा अपनी मुस्कान रोक नहीं पाई, माँ आकर बैठी ही थी कि उसने चुपके से उनकी आँखें बंद कर दीं. “अरे क्या है हंसा, बैठने तो दे जरा” लेकिन आज ये उलाहने हंसा को कहाँ  बाँधने वाले थे. अगले ही क्षण माँ की आंखों के सामने थी मोतियों से अक्षरों में लिखी उनकी बेटी की प्यारी सी अभिव्यक्ति. अपनी सहेली से खास आज के दिन के लिए उसने सुनहरी चमक वाला लाल पेन भी लाया था इसे लिखने के लिए.

अपने प्राण आंखों में समाकर हंसा माँ को देख रही थी, उनके चेहरे के हाव -भाव, उतार चढ़ाव और इंतजार, उन मधुर शब्दों को सुनने का, उस स्वीकृति और शाबाशी का.

“यहाँ  -वहाँ  से देखकर क्या चार लाइन लिख रखी है हंसा, पत्रिकाएँ  खूब पढने लगी हो आजकल. उसी का असर है ये. अगले महीने परीक्षा है, इतना ही ध्यान उसमें दो तो कुछ काम भी आए.”

मां कागज को रखकर सामने रखा पानी घुटकने लगी थी.

कोई छन्न की आवाज तो नही हुई लेकिन कितना कुछ टूट गया था हंसा के अन्दर उस दिन. अपनी पहली ही अभिव्यक्ति पर यों अस्वीकृति की मुहर लग जाने से खिन्न होकर उसने उसी दिन समेट लिया था खुद को, हमेशा के लिए.

आज हंसा चालीस साल की प्रौढा है, पैसा, परिवार, शिक्षा क्या नही है उसके पास. लेकिन जब भी अपनी लेखनी को लेकर गंभीर होना चाहा, उस दिन की टूटन की किरचे हमेशा ही चुभती रही और माँ को कभी समझ में नही आया, कि क्यों उनकी बेटी को उनकी याद ही नही आती.

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3-मीठी मुस्कान

पालक खाओगे या बथुआ?

ये तो ऐसा है कि झापड दूँ या मुक्का

तुम्हें डॉक्टर ने यही खाने को कहा है, पनीर टिक्का मसाला के सपने मत देखो

हाँ , हाँ , डॉक्टर ने तो ये भी कहा है कि लौकी, तुरई, गिलकी और कद्दू में ही जीवन का सार देखो। खिचड़ी, मूँगदाल, उबली सब्जियां और मोटा आटा, बस यही जीवन रह गया है।

कितनी कडवाहट भर गई है तुममे।

रोज करेले का रस पिलाती हो ना सुबह- सुबह तो क्या मधुर मधुर स्वर निकलेंगे मुँह से

सब के सामने तो बड़ी तारीफ करते हो मेरी, रमा ना हो तो मैं तो कुछ नही कर पाऊँगा। सुबह से लेकर शाम तक लगी रहती है मेरी तीमारदारी में। आजकल कौन करता है इतना। और अकेले में ये गुल खिलाए जा रहे हैं। मुझे क्या है, लो और घी लो अपनी दाल में, कहो तो कल छेदीलाल की रबडी भी मँगवा देती  हूँ , कोने की दुकान से भुजिया और जलेबी का भोग लगाओ और रही सही कसर खोए के लड्डू बनाकर पूरी कर देती  हूँ ।

..

अब हँस क्या रहे हैं?

हँसू नही तो क्या करूँ? रमा! क्या ये सच नही है कि अब मैं ये सब कुछ नही खा सकता, इसका दुख तुम्हे भी है? देखो, हम अपना प्रेम एक दूसरे पर न्योछावर कर रहे हैं ,तो अपना गुस्सा भी तो एक दूसरे पर निकाल देने का हक होना चाहिए ना हमें? शायद यही हक हम पहले ही एक दूसरे को दे देते, तो आज यह नौबत नहीं आती। अब तो सम्हलना ही होगा ना?

वाह, आश्रम जाना शुरू किया है ,तब से बड़ी बाबाओं जैसी बातें करने लगे हो। ठीक है, तो बथुए का साग, करेले का सूप, लौकी का रायता, मूँग दाल की खिचड़ी और….. गुड़ खजूर का लड्डू!

और मुस्काने मीठी हो चली थी!

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4-जयजयवन्ती

“हर वक्त कोई खुश कैसे रह सकता है?”

“किसने कहा तुम्हें खुश होने को?”

“बहू ने!”

“इसलिए मिर्ची तेज़ लगी क्या?”

“आपको भी यही सब कुछ सूझता है क्या?”

“बात वो नही है, देख रहा  हूँ  जब से नौकरी खत्म हुई है, तनी -सी रहती हो हमेशा!”

“तो क्या हरदम खुशी के गीत गाती रहूँ ?”

“गीत भले ही ना गाओ ,लेकिन परेशानियों के तराने भी ना सुनाओ। सभी के अपने अपने राग क्या कम बेसुरे हैं?”

गीताजी कुछ बोल न पाई। बेसुरा सुनने की नौकरी करते- करते कब अन्दर के तार ढीले पड़ गए थे, पता ही न चला। पोता उनके हाथ की गुझिया के लिए झींक रहा था, कॉलोनी की महिलाएँ  आते रविवार उनकी भजन -संध्या रखना चाहती थी, गुड़िया को स्कूल में पर्यावरण पर कविता सुनाने की तैयारी करनी थी।

“सुनिये, ज़रा खोया ले आइये बाज़ार से!”

“अचानक…”

“आपने ही  खूँटियां कसी हैं और आप ही पूछते हैं कि सुरीला क्यों गा रही  हूँ ?”

एक समवेत हँसी गूँज उठी, जयजयवन्ती जैसी!

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5-अबोला

सवा पांच बज चुके थे। दिन भर की बारिश के बाद की ठिठुरन के चलते चाय का कप उठाते हुए हाथ कांप गए, तब न चाहते हुए भी ओढ़ाये गए दुशाले को उन्होंने नागरिक सम्मान की तरह स्वीकार कर लिया था।

ठीक साढ़े पांच पर रामभरोसे आता है। बारिश के दिनों में वे उसे कुछ पैसे दिये रहते हैं, पकोडे, जलेबी, कचौरी जैसी खुशियां खरीद लाने के लिए। आज तो दिन भर से ऐसी मूसलाधार बारिश है कि… याद आते ही स्वाद ग्रन्थियाँ सक्रिय हो जाती हैं। इस उम्र में खुशियों के पैमाने और धीरज का खिंचाव छोटा होता जाता है।

आधा घन्टा बीत गया है, धुँआँ- धुँआँ- से रास्ते पर एक लम्बी सी आकृति उभर रही है। रामभरोसे का बेटा।

“घर में पूरा पानी भर गया है साहब, बापू बीमार हैं। आपकी मदद को भेजा है। कहें तो कुछ पका दूँ?”

दमा वाली साँस और साड़ी की सरसराहट से उनकी उपस्थिति दर्ज होती है। आँखें सजल, मुख पर पीड़ा और वात्सल्य के मिले जुले भाव। वे बैठे रहते हैं, हाल चाल पूछते, स्वाद ग्रन्थियों की तृप्ति न हो पाने का मलाल करते। अन्दर से गिलास भरकर अदरक वाली चाय और नाश्ता आया है। युवक के चेहरे पर भक्ति-भाव तैरने लगा है।

वे कुछ ठगा- सा महसूस कर रहे हैं।

“अभी आया” कहकर कमरे में जाते हैं। तिपाई पर पुराने गर्म कपड़ों की पोटली, पैकेटबन्द नाश्ता और कुछ पैसे रखें हैं। कुछ बोलना चाहते हैं लेकिन बाम की तीव्र गंध और असहयोग आंदोलन के समान उनकी ओर की गई पीठ इसकी अनुमति नहीं देती। थोड़ा नरम पड़कर मन ही मन मुस्कुराते ज़रूर हैं।

“फाटक लगा लीजिए, हम रामभरोसे के घर जा रहे हैं।“

“जी” संक्षिप्त- सा उत्तर मिलता है। अच्छा लगता है।

रामभरोसे के घर आज वे खुशियाँ  बाँटते हैं, प्रेम की ऊष्मा फैलाते हैं, तृप्त हो जाते हैं।

वापसी में, रामभरोसे के भतीजे की रिक्शा में  उन्हें घर छुड़वाया जा रहा है। मन ही मन कल्पनाएँ  कर रहे हैं, इतनी सारी खुशियों भरी झोली को खाली करना है… लेकिन। खैर, अब उन्होंने सोच लिया है, स्वयं ही बातचीत की पहल करेंगे, और पत्नी को कभी भी ’बातूनी’ होने का ताना नहीं देंगे।

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