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Channel: लघुकथा
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अपने दस दिन–

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“आंटी आप लोग कहाँ जा रहे हैं”- मैंने अपनी बगल में बैठी अपनी सहयात्री से पूछा।ट्रेन अपनी गति से दौड़ रही थी और मैं आलस में सो सोचा थोड़ी गपशप ही की जाए।

“हम…दिल्ली…”

“अच्छा आपकी फैमिली भी है क्या आपके साथ? “मैं आस-पास देखने लगी।

“नहीं हम चार सहेलियां हैं…ये मेरे साथ और दो वो सामनेवाली सीट पर बैठी हैं।”

“आप आ कहाँ से रहे हो?” दरअसल मेरी यात्रा फगवाड़ा से शुरू हुई थी पर मैंने गौर किया कि ये मुझसे पहले से सवार हैं।

“बेटा हम अमृतसर से चढ़े थे।कल अमृतसर पहुँचे थे और दो दिन रुककर दरबार साहिब के दर्शनों के साथ-साथ वाघा बार्डर देखा और आज वापस घर जा रहे हैं।”

“अरे कुछ दिन और रुकना था, वहाँ तो ए. सी. धर्मशालाएं हैं और शहर भी घूमने लायक है।आपको मज़ा आता।”

“ नहीं बेटा पिछले दस दिन से घूम ही रहे हैं अब घर जाने की इच्छा हो रही है।”

“दस दिन से…..कहाँ….अमृतसर में?” मैंने हैरानी से पूछा।

“नहीं, शिमला में”  मैं और वे दोनों हँस पड़ीं।

”दरअसल हम चारों पिछले चालीस वर्षों से दोस्त हैं।हम दोनों स्कूल में एक साथ पढ़ातीं थीं और वो दोनों मेरी कालेज फ्रेंड्स हैं।जब से हम रिटायर हुईं हैं हमने एक बात सोच रखी है कि साल में एक बार घूमने ज़रूर जाएँगी।चारों की पेंशन आती है इसलिए किसी पर आर्थिक बोझ नहीं हैं….इनकी बेटी हमारी टिकटें और आनलाइन होटल बुक करवा देती है।वैसे तो अब हमें भी आ गया है ,सो दिक्कत नहीं होती।साल के तीन सौ पचपन दिन बेटों , बहुओं और पोते-पोतियों को देते हैं पर ये दस दिन हमारे सिर्फ हमारे होते हैं….”और एक बड़ी -सी मुस्कान दोनों के होठों की एक कोर से दूसरी कोर तक ऐसी फैल गई जैसे सुबह की उजियारी किरण…….

-0-karan.vimmi@gmail.com

 


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