सहेजने की आदत उसने माँ से सीखी थी। माँ हमेशा कहतीं कि थोड़़ी-थोड़ी बचत जब आड़़े वक्त पर काम आती है तब इसकी अहमियत पता चलती है। और सबसे बड़ी बात किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। यही अच्छी गृहिणी की निशानी है। माँ की यह सीख उसने गाँठ में बाँध ली थी। क्या किराना, क्या रुपया- पैसा वह हर चीज में कुछ न कुछ बचत जरूर करती। जरूरत के समय जब यह सब निकालती तो उसे अपने आप पर बड़ा गर्व होता। खुशी मिलती। आँखें चमक उठतीं।
कई दिनों बाद आज फुर्सत मिलने पर उसने पुरानी साड़ियों को ठीक करने का मन बनाया था। कुछ तो उसने कई दिनों से बाहर नहीं निकालीं थीं। एक-एक साड़ी को सहेजते हाथ फेरते उससे जुड़ी स्मृतियाँ उभर रहीं थीं। सोच रही थी महिलाएँ कितनी लालची होती हैं कपड़े-लत्ते, जेवर की। अचानक एक साड़़ी से हजार के दो नोट और पाँच सौ के तीन नोट टप्प से टपक पड़े। आश्चर्य से उसकी आँखें फटी रह गईं। ‘‘अरे‘‘। विस्मय से शब्द फूटे। मुस्कराहट फैल गई। नोट सीधे किए। सहलाए। एक-एक लम्हा याद आया। कैसे थोड़ा-थोड़ा बचत कर छोटे नोटों को बड़े में बदलते उसने जमा किए थे ये रुपये।
अचानक मुस्कराहट और विस्मय निराशा में बदल गए। काश समय रहते देख लिया होता इन्हें…..। नोटबंदी के बाद अब तो ये कागज के टुकड़े हैं। सिर्फ कागज के टुकड़े….। भरी आंखों से आँसू टप्प-टप्प साड़ियों की परतें भिगोने लगे।